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महात्मा ने ध्यान से मेरी ओर देखा और फिर एकबारगी चौंक कर बोले – तुम… तुम… पूर्णानन्द सरस्वती हो न? यह सुनकर आश्चर्य हुआ मुझे! सोचा भ्रम हो गया है महात्मा को। बोला – नहीं महाशय, मैं पूर्णानन्द सरस्वती नहीं हूँ। आपको समझने में गलती हुई है। नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। मुझसे आपको पहचानने में भूल नहीं हो सकती। पूरे दस वर्षों से इधर-उधर भटक रहा हूँ पूर्णानन्द् तुम्हारी खोज में। चलो, उठो, आश्रम में चलो। महात्मा की बातें सुन कर किंकर्तव्यविमूढ सा हो गया था मैं उस समय। कैसे समझाऊँ उस मतिभ्रष्ट और भ्रमित महात्मा को कि मेरा नाम अरुण कुमार शर्मा है। काशी में रहता हूँ। मेरा अपना परिवार..। मैं कुछ कहूँ उसके पहले ही उस विक्षिप्त महात्मा ने मेरा हाथ थाम कर उठाते हुए कहा – ज़रा अपनी ओर तो देखो, तब सब समझ में आ जायेगा।
उसी क्षण मैंने अपनी ओर देखा। आश्चर्यचकित रह गया मैं। न जाने मेरा स्वरूप और वेशभूषा आदि सब कुछ सन्यासी जैसा हो गया था। यह कैसा परिवर्तन? मुण्डित सिर, शरीर पर रेशमी कषाय वस्त्र, बगल में रुद्राक्ष और स्फटिक की मालाएँ, मस्तक पर त्रिपुण्ड की गहरी रेखाएँ, बगल में कमण्डल और मृगचर्म। हे भगवान्! कैसे हो गया ये सब? कैसे बन गया एक युवा ब्राह्मण पुत्र सन्यासी? अपने आपको देख रहा था मैं बार-बार। विश्वास नहीं हो रहा था मुझे एकाएक हुए इस अविश्वसनीय और विलक्षण परिवर्तन को देखकर।