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साहित्य की दुनिया में निष्कर्ष से अधिक महत्वपूर्ण निष्कर्ष तक पहुंचने की प्रकिया होती है। जब हम कोई उपन्यास पढ़ रहे होते हैं, तो हमारे लिए क्लाइमेक्स से अधिक महत्वपूर्ण उसमें आया जीवन होता है। यही बात कविता, कहानी व साहित्य की अन्य विधाओं के बारे में भी सही है और प्रकरांतर से यही बात इस किताब पर लागू होती है। फारवर्ड प्रेस पत्रिका में चले साहित्य संबंधी बहस-मुबाहिसे में से चुने हुए इन लेखों में आप एक जीवंत वैचारिक ऊष्मा पाएंगे। यह
किताब बहुजन साहित्य की अवधारणा के नक्शे की निर्माण प्रक्रिया से आपका परिचय कराएगी तथा आप इसके विविध रूपों पर हुई बहसों की तीखी तासीर को महसूस कर पाएंगे। ये बहसें
आपको एक सुविंतित निष्कर्ष की ओर ले जाएं, इतनी ही इनकी भूमिका है। यही साहित्य का काम है और यही आलोचना का भी। निष्कर्ष तो आपको स्वयं ही तय करने होते हैं।
मासिक फारवर्ड प्रेस का प्रकाशन मुद्रित पत्रिका के रूप में मई, 2009 से जून, 2016 तक हुआ।
एक जून से यह पत्रिका स्वतंत्र वेबपोर्टल में रूपांतरित हो गई है। बहुजन साहित्य की अवधारणा पर रचनाओं और आलोचना का प्रकाशन इसके वेब पोर्टल पर भी जारी है। इस किताब में संकलित लेख इस विमर्श के आरंभिक दौर के हैं। आज यह यात्रा वहां से कई पायदान आगे बढ़ चुकी है, फिर भी ये आरंभिक लेख इस पूरी प्रकिया को समझने के लिए आवश्यक हैं। किताब में
लेखों का क्रम प्रकाशन के समय के आधार पर न रखकर विषय के आधार पर रखा गया है, ताकि आप इस विमर्श को अधिकाधिक आत्मसात कर सकें।
बहुजन साहित्य की अवधारणा अपने आप में एकदम सीधी है – अभिजन के विपरीत; बहुजनों का साहित्य जैसा कि ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने कहा था – बहुजन हिताय, बहुजन सुखाया
लेकिन इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण चीजों को भी ध्यान में रखना चाहिए। बहुजन साहित्य…
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Nice stories
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