Chachi Adult Story by Pridarshan
मैं पूरे 30 वर्ष बाद उन्हें देख रहा था।
वे पहले से दुबली हो गयी थीं। चेहरे पर झुर्रियाँ तो नहीं थीं, लेकिन उनकी दमकती गोरी बाँह की झूलती त्वचा उनके जिस्म पर समय के पड़ते निशानों की गवाही दे रही थी। उनके काले घने बाल अब कुछ कम हो गये थे, लेकिन वे सफ़ेद नहीं थे। शायद वे बालों को रँगने लगी थीं। लेकिन उनकी आँखों की वह चमक बदस्तूर क़ायम थी जो उनकी पूरी देह से फूटा करती थी।
मुझे कुछ समय उन्हें पहचानने में लगा था। लेकिन उन्होंने पहले पहचान लिया था-तुम किशोर हो न! सिर हिलाते-हिलाते मैंने पहचाना और उनके पाँव पर झुक गया।
वे माथे पर हाथ रखे हँस रही थीं-“मोटे हो गये हो। बाल भी सारे सफ़ेद हो गये। हम तो समझे तुम पहचानोगे ही नहीं।”
मैं कहना चाहता था कि आपको न पहचानने का सवाल ही नहीं है। लेकिन मैंने मुस्कराते हुए बस इतना पूछा-“सुनील कहाँ है आजकल?”
“पटना में, बैंक में लग गया है न!” उनके चेहरे पर एक तृप्त माँ की ख़ुशी थी।
“तुम क्या कर रहे हो?” उन्होंने पूछा था।
मैंने बताया कि मैं दिल्ली में पढ़ा रहा हूँ एक कॉलेज में।
“तुम्हारा तो सबको पता था। तुम पढ़ने में कितने तेज़ थे। तुमको तो अच्छी जगह होना ही था।” वे मेरा चेहरा देख रही थीं। इस देखने में शायद यह भी शामिल था कि कहीं अतीत का कोई ऐसा पन्ना तो मेरे चेहरे पर फड़फड़ा नहीं रहा है जिससे मैं आँख मिलाना न चाहूँ।
मैंने पूरी कोशिश की कि अपने चेहरे को बिल्कुल तटस्थ बनाये रखूँ। वह उलझन न दिखे जो बरसों पहले मेरे और उनके बीच आकर बैठ जाया करती थी। लेकिन शायद वह कहीं मौजूद थी। पुराने अनुभवों की छाया किसी चोर की तरह हमारे भीतर के किसी अन्धकार में छुपी रहती है और वह ठीक उसी समय बाहर आती है जब उस पर किसी तरह रोशनी पड़ने लगती है। पूरे तीस बरस गुज़र जाने के बावजूद हमारे बीच जो घटा था, वह बना हुआ था और याद दिला रहा था कि मोहल्ला और शहर तुम भले छोड़ दो लेकिन जीवन और विगत से छूट नहीं सकते। यही नहीं, वह विगत अब न्योता दे रहा था-“कब तक यहाँ हो। कल आओ दोपहर को। अगर समय हो तो…” मैंने वादा किया कि आऊँगा। उन्होंने बताया कि वे अब पुराने घर में नहीं रहतीं-नया पता दिया, पूछते हुए कि आओगे न। मैंने सिर हिलाया। वे मुस्कराती हुई आगे बढ़ गयी थीं।
पीछे छूट गया मैं और उस दिन की याद जब इस सिलसिले की शुरुआत हुई थी।
मैं उनको चाची कहा करता था। वह मेरे दोस्त सुनील की माँ थीं। वह एक दोपहर थी जब मैं सुनील के घर पहुँचा था-अपनी एक कॉपी लेने। हम दोनों नवीं में साथ पढ़ते थे। मैं फर्स्ट आता था और वह फेल होता था। चाची दुखी रहतीं। सुनील को भी कोसतीं और उसके दोस्तों को भी। उन्हें लगता था कि उनका बेटा अपने दोस्तों की वजह से बिगड़ा हुआ है। अपवाद सिर्फ़ मैं था। अक्सर सुनील के सामने मेरा उदाहरण पेश किया जाता था-“किशोर को देखो, वह भी तो तुम्हीं लोगों के साथ रहता है। कैसे हमेशा फर्स्ट आता है?” ऐसे अवसरों पर सुनील मुझे देखता, लेकिन कुछ इस निगाह से जैसे मैं उसका दोस्त नहीं, दुश्मन होऊँ।
लेकिन मैं उसका दोस्त बना रहा। उसकी फिसड्डी आदतों के बावजूद। दरअसल उससे ज़्यादा चाची-यानी उसकी माँ का ममत्व मुझे खींचा करता था। वे मुझे देखकर जैसे निहाल हो जाया करती थीं। उनको लगता कि उनके बेटे का यह इकलौता दोस्त है जो उसे उसके फिसड्डीपन से उबार सकता है। इस क्रम में सुनील तो नहीं, ख़ुद वही मेरी कॉपियाँ माँग लिया करतीं। सुनील रो-गाकर उनको कॉपी करता या यह काम भी उसकी माँ करतीं और देर-सबेर मुझे अपनी कॉपी लेने जाना पड़ता।
मोहल्ले की बाक़ी औरतों के मुक़ाबले चाची कुछ पढ़ी-लिखी थीं। वे बहुत अरमान से बताती थीं कि मैट्रिक में उनके 56 प्रतिशत नम्बर आये थे और याद दिलाती थीं कि उन दिनों इतने नम्बर लाना आज के फर्स्ट डिवीजन से लाख गुना बेहतर है। लेकिन आप आगे क्यों नहीं पढ़ीं चाची? यह सवाल उनको कुछ मायूस कर जाता। वे आईए में थीं, तभी शादी हो गयी। तब ससुराल वालों ने कहा था कि सहूलियत से पढ़ा देंगे। लेकिन सहूलियत आयी कहाँ? पहले सुनील चला आया। फिर दो-दो ननदों की शादी। फिर सास-ससुर के नखरे। फिर शहर में आकर खुली यह दुकान। जब तक सँभलतीं, तब तक दस-बारह साल निकल गये थे। वे कहतीं, “अब भी पढ़ लूँ, लेकिन तुम्हारे चाचा तैयार नहीं होते। बोलते हैं, सब हँसेंगे-कि बुढ़िया आईए में पढ़ रही है। बोलते-बोलते वे हँस पड़तीं और अजब ढंग से खिल जातीं-अब सुनील पढ़ लेगा तो मेरा अरमान पूरा हो जायेगा। तुम आते रहो बाबू। सुनील तुम्हारी संगत में ही पढ़ पायेगा। बाक़ी लड़का लोग को तो तुम जानते हो।” तो मेरा उसके घर लगातार आना-जाना था।
उस दोपहर भी मैं अपनी कॉपी लेने ही सुनील के घर गया था। वह आज की तरह फ़्लैटों वाले दिन नहीं थे, खुले और बड़े घरों का ज़माना था। चारदीवारी से घिरे उस घर में फाटक के बहुत देर बाद बाड़ी शुरू होती। उसके बाद एक कोने में कुआँ था और एक तरफ़ अलग-अलग कमरे। तो मैंने फाटक खोला, हमेशा की तरह बाड़ी पार करके कमरों की तरफ़ जाने लगा। लेकिन उधर कोई नहीं था। मैंने एकाध बार सुनील को पुकारा।
तभी अचानक दूसरी तरफ़ से आवाज़ आयी-“अरे किशोर तुम?” यह सुनील की माँ की आवाज़ थी। यह कुएँ की तरफ़ से आ रही थी।
मैंने पलटकर देखा। और अवाक् देखता रह गया। वे कुएँ पर नहा रही थीं-बल्कि नहा चुकी थीं। नीले रंग का एक पेटीकोट उनके सीने से बँधा था और वे एक बाल्टी में रखे कपड़े निचोड़ रही थीं। यह सुनील की माँ नहीं थीं, पानी से गीली एक खुली हुई देह थी-अपनी आभा में दमकती हुई सुगठित देह। मेरी चोर निगाहें उनके खुले कन्धों को, कपड़े पसारने के लिए उठती उनकी गोरी बाँहों को, मेरी नसों में किसी काँच की तरह गड़ते उनके उन्नत उभारों को, उनके खुले घुटनों को देख रही थीं। मेरे पाँव कुछ काँप से रहे थे, मुझे अपने होंठ सूखते से लगे, दिल नहीं, जैसे पूरा जिस्म अजीब ढंग से धड़क रहा था। वे बेहद सुन्दर लग रही थीं। सुन्दर नहीं, कुछ ज़्यादा। वे वह औरत नहीं थीं जिन्हें मैं चाची कहता था, यह कोई और थी जिसने एक जादुई जिस्म पहन लिया था। गोलाई, रेखा, उभार, मांसलता-यह सब कुछ मैं सस्ते उपन्यासों में अपनी चौदह साल की उम्र में पढ़ चुका था, लेकिन उसे बिल्कुल अपने सामने इस तरह देखना बेहद अलग-सा था।
लेकिन वे बेख़बर थीं-वे अपने 14 साल के बेटे के हमउम्र दोस्त से बात कर रही थीं-बिल्कुल ममत्व भरे अन्दाज़ में-और हमेशा की तरह शिकायत करती हुई कि सुनील पढ़ाई नहीं करता और मुझे हिदायत देती हुई कि उसका भी ध्यान रखूँ।
मैं हाँ-हूँ करता उनके घर से निकल आया था। मेरे भीतर एक सनसनाहट भरी थी। बार-बार उनकी गीली देह मेरे सामने कौंध जाती। शायद उस रात मैंने सपना भी देखा। एक तालाब का सपना, उसमें नहाती और उससे बाहर आती एक गर्म-तपती हुई देह का सपना। उठा तो पसीने-पसीने था।
लेकिन इस सनसनी की जगह जल्द ही एक अपराध-बोध ने ले ली। अगले कई दिन मैं पछतावे में डूबा रहा। जो महिला मुझे बिल्कुल बेटे की तरह मानती है, मैं उसके बारे में क्या सोच रहा हूँ? मैंने मन-ही-मन अपने-आप को बहुत धिक्कारा। लेकिन अवचेतन में बसी कामनाएँ ऐसे धिक्कारों से प्रबल होती हैं। अक्सर मैं कोशिश करता कि दोपहर को उनके घर ऐसे समय पहुँचूँ जब वे मुझे कुएँ पर नहाती मिलें। लेकिन ऐसा अवसर दुबारा नहीं आया। यह ज़रूर हुआ कि मेरे भीतर कल्पनाओं के तरह-तरह के रेले उठने लगे। मैं उन्हें अपनी कल्पना में नहाता देखने लगा। अक्सर मैं सोचता कि कुएँ की जगत पर खड़े होकर मैं पानी खींचकर उनकी देह पर डाल रहा हूँ और उनकी सूती साड़ी बिल्कुल पारदर्शी हुई जा रही है जिसके भीतर से एक लगभग अनावृत्त देह किसी जादू-सी झलक रही है।
यह बात भी मेरे अपराध-बोध को बढ़ाती रही। यह बात किसी से साझा नहीं कर सकता था इसलिए कुछ किताबें भी पढ़ने की कोशिश की। लेकिन धर्म और दर्शन की वे किताबें दो-तीन पेज से ज़्यादा नहीं पढ़ पाया। एक डर भी इसी दौरान घेरने लगा था। कहीं सुनील को पता चला कि मैं उसकी माँ के बारे में ऐसी कल्पनाएँ करता हूँ तो क्या होगा?
लेकिन दूसरी तरफ़ मेरी छापामार कोशिशें भी बढ़ती जा रही थीं। पहले मैं बेधड़क सुनील के घर में दाख़िल होता था। अब चुपके से होने लगा था। इस उम्मीद में कि चाची को मेरे आने का पता न चले और मैं उन्हें फिर ऐसी किसी हालत में देख लूँ।
लेकिन कुछ सच हमारी कल्पनाओं से भी बहुत आगे के होते हैं-ऐसे सच जिनकी हम कल्पना तक नहीं कर पाते। ऐसा ही एक सच एक दिन मेरी इस छापामार कार्रवाई के दौरान उजागर हो गया, जिसने मेरे और उनके रिश्ते को हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया।
उस दिन भी मैं चुपके से घर में दाख़िल हुआ था। कुआँ सन्नाटे में था, तार पर लटके कपड़े बता रहे थे कि चाची नहा चुकी हैं। पता नहीं क्यों, फिर भी मैं बिल्कुल दबे पाँव कमरे की खिड़की की ओर बढ़ा। अचानक मुझे लगा कि दो लोगों की बातचीत की बहुत मद्धिम आवाज़ आ रही है और कोई रो रहा है।
यह चाची थीं-सुबकती हुई सी और उनके सामने कौन था? मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा-यह तो हमारे साइंस टीचर हैं। सुनील को ट्यूशन पढ़ाने आते हैं। लेकिन वे तो सात बजे आते हैं? अभी कैसे आ गये? स्कूल ख़त्म होते सीधे यहाँ? मैंने अपने कान पूरी तरह लगा दिये थे। चाची कह रही थीं-“आप पर भरोसा है, सुनील को इतना पढ़ा दीजिए कि पास हो जाये। उसका मन पढ़ने में नहीं लगता है।”
सर कह रहे थे, “मेरे जाने के बाद वह कुछ करता ही नहीं है। उसके पापा को बोलिए, सख़्ती से बैठायें। मैं भी समझाऊँगा।”
चाची कुछ देर चुप रहीं। फिर उनकी आँख भर आयी-“इसके पापा को तो इसका पढ़ना बेकार लगता है। बोलते हैं, दुकान पर बैठा करो। ज़्यादा कुछ बोलो तो ग़ुस्से में एकदम बेक़ाबू हो जाते हैं। इसको भी पीटते हैं और…।” बोलते-बोलते वे चुप रह गयीं।
सर हैरान थे-“और? आपको भी?”
चाची बस सुबक पा रही थीं।
“भरोसा नहीं हो रहा है, आदमी तो एकदम सीधे लगते हैं।”
चाची जैसे तड़प उठीं-“सीधे? देखिए, इतने सीधे।” और उन्होंने कन्धे के पास से अपना ब्लाउज़ कुछ हटा दिया। मुझे कुछ दिखा नहीं, लेकिन सर की आवाज़ फँसी-फँसी-सी सुनाई पड़ रही थी- “ये दाग चोट से…ओह।” अचानक दोनों की आवाज़ आनी बन्द हो गयी। सिर्फ़ चाची सुबक रही थीं। मैं इतना उत्सुक था कि खिड़की से झाँकने लगा था। दोनों मुझसे बेख़बर थे। और मैं देखकर स्तब्ध-सर ने चाची को अपनी बाँहों में ले रखा था। वे उनके कन्धे से लगी रो रही थीं-बहुत हलके से कहती हुई-“छोड़ दीजिए, छोड़ दीजिए।”
सर ने छोड़ दिया, लेकिन छोड़ने से पहले उनका माथा चूम लिया। चाची उनके और क़रीब सिमट आयी-बिल्कुल गले लगी हुई। लेकिन अचानक उन्हें कुछ लगा, उन्होंने सिर घुमाया और फिर उनकी नज़र सीधे खिड़की से देखते मुझ पर पड़ी।
जैसे उन्होंने कोई भूत देख लिया हो। वे बिल्कुल एक झटके से सर से अलग हुईं। सर भी इतनी देर में मुझे देख चुके थे। दोनों कमरे से बाहर दालान में आ गये। दोनों मुझसे कुछ कहने की हालत में नहीं थे। मैं डरा हुआ था या परेशान था, मैं भी समझ नहीं पा रहा था। लेकिन मैं तीर की तरह दौड़ता हुआ निकल गया।
लेकिन वह दृश्य मेरा पीछा करता रहा। चाची और सर-एक-दूसरे से जुड़े हुए। मेरा माथा सनसना रहा था। मैं कुछ सोचने की हालत में नहीं था। यह भी तय नहीं कर पा रहा था कि कहाँ जाऊँ। मैं तालाब किनारे जा बैठा। मन कुछ शान्त हुआ तो बहुत सारे ख़याल आये। कैसी हैं चाची? छिः सर के साथ! और सर? कितने सीधे बनते हैं! लेकिन चाची से चिपके हुए थे। मैं कई अभद्र-सी बातें सोचता जा रहा था। क्या सुनील को बता दूँ यह सब? लेकिन कैसे बताऊँगा? किसको बताऊँ? आख़िर चाची ऐसी क्यों हैं? फिर मुझे कुएँ पर उनका नहाना याद आ गया। क्या सर ने भी उनको कभी ऐसे देखा होगा? क्या उन्होंने सर को ‘फँसाया’ होगा? यह सब पहले से चल रहा था?
तरह-तरह के ख़यालों के बीच मैं अचानक चिहुँक गया। किसी ने बहुत हलके से मेरा नाम पुकारा था। मैंने मुड़कर देखा। सर थे। लगता है, मुझे खोजते हुए यहाँ आ गये थे। लेकिन वे मुझसे आँख नहीं मिला पा रहे थे। बस इतना कह पाये-“सुनील की मम्मी ने बुलाया है, जाकर मिल लो।” यह भी आदेश कम, एक मनुहार ज़्यादा थी।
मैं नहीं जाऊँगा। मैंने तय कर लिया था। उस औरत के घर कभी नहीं। अचानक मुझे उनसे चिढ़-सी हो गयी थी। सुनील से भी दोस्ती तोड़ लूँगा। आवारा लड़का है-आवारगी करता रहे। आवारा माँ का आवारा बेटा। हालाँकि यह सोचते-सोचते मेरा कलेजा हिल गया। चाची मुझे कितना मानती थीं। और मैं भी उन्हें नहाते हुए देखना चाहता था। ग़लती मैंने भी तो की है।
लेकिन मैं नहीं गया। कई दिन बीत गये। स्कूल आता-जाता रहा। सर मिलते, लेकिन मुझसे कतराकर निकल जाते। अचानक उनका और मेरा रिश्ता भी बदल गया था। मैं धीरे-धीरे इसका आनन्द लेने लगा था। जैसे मैं कोई न्यायाधीश हूँ और अपराधियों को पता है कि उनका जुर्म मेरे सामने साबित हो चुका है। सर इन दिनों बहुत अनमने ढंग से पढ़ाते। सुनील भी इधर स्कूल नहीं आ रहा था।
फिर एक दिन सुनील स्कूल आया। आते ही उसने मुझे घेर लिया-“कहाँ है तू। एक दिन भी घर नहीं आया?” मैं चुप रहा-कैसे बताता कि उसके घर आकर मैंने क्या पाया है। उसने बताया कि माँ बहुत बीमार थीं। तेज़ बुख़ार था। चार दिन बाद उतरा है। तभी वह स्कूल आ पाया। “तुझे माँ ने बुलाया है”, उसने फिर कहा-“माँ तुझे बहुत मानती हैं। कह रही थीं, कुछ ज़रूरी बात करनी है। बहुत दिन से किशोर आया नहीं है।”
मैंने सिर हिलाया-“आऊँगा।” यह सुनील को टालने की कोशिश थी। लेकिन इन चार-पाँच दिनों में मेरे भीतर भी बहुत सारी चीज़ें पिघल रही थीं। बहुत सारी नयी उत्सुकताएँ मेरे भीतर पैदा हो चुकी थीं। यह देखना चाहता था कि चाची अब मुझसे कैसे मिलती हैं।
तो एक दिन फिर मैं ऐसे समय पहुँचा जब सुनील घर पर नहीं था। चाची थीं। मुझे देखकर सकपकाकर खड़ी हो गयीं। फिर भीतर कमरे में ले गयीं। मैं कुछ शिकायती, कुछ उलझन भरी नज़र से उनको देखता रहा। फिर आवाज़ को यथासम्भव रूखा बनाने की कोशिश करते हुए मैंने कहा, “आपने बुलाया था।”
लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया, चुपचाप रोने लगीं। अब मैं कुछ सहम-सा गया। सुबकते-सुबकते उन्होंने मुझे अपने पास खींच लिया। अचानक मुझे लगा, मेरी पुरानी कल्पनाएँ साकार तो नहीं होने जा रही हैं? लेकिन वे कह रही थीं-“बेटा, जो तुम देखे हो, किसी को बोलना मत।” लेकिन मैं सुन कम रहा था, महसूस ज़्यादा कर रहा था। उनके बेख़बर स्पर्श की गर्मी मेरे भीतर पिघल रही थी। फिर उन्होंने मुझे किनारे किया। थोड़ी देर चुप रहीं फिर धीरे-धीरे बोलने लगीं-“तुम बहुत छोटे हो किशोर। कुछ समझ में नहीं आयेगा। औरत बहुत दुख झेलती है। इतना कि दुख को ही सुख मानने लगती है।” वाक़ई मैं समझ नहीं पा रहा था। इस बात का सर के साथ उनके रिश्ते से क्या वास्ता है। लेकिन वे अपनी धुन में बोले जा रही थीं- “कभी-कभी ऐसा कुछ हो जाता है कि ख़ुद भी समझ में नहीं आता है। ऐसा ही हो गया, समझो। तुम्हारी चाची गन्दी औरत नहीं है रे। तू तो मेरा दूसरा बेटा है-सुनील से बहुत समझदार, बहुत तेज़। माँ का मान रखना।” वे फिर रोने लगी थीं।
मैं फिर सिहरने लगा था-कुछ शर्म से, कुछ अपराध-बोध से और कुछ इस सवाल से भी कि वे जो कर रही हैं, वह ठीक कैसे है। लेकिन एक बात मैंने तय कर ली थी कि किसी को कुछ नहीं बताऊँगा। मैंने चाची को देखकर सिर हिलाया और उठकर निकल आया।
लेकिन चाची ने शायद सर को यह सब बता दिया था। अब वे मुझसे डरे हुए कम दिखते थे, लेकिन उपकृत और मेरे प्रति उदार कुछ ज़्यादा। अब मेरी कॉपियों पर उनका ध्यान ज़्यादा रहता था। मुझे लग रहा था, इस बार वे मुझे नम्बर भी कुछ बढ़ाकर ही देंगे।
लेकिन जासूसी मेरी छूटी नहीं थी। शक और चिढ़ का जो बीज मेरे भीतर पड़ चुका था, वह पौधा बनता जा रहा था। मैंने चुपके-चुपके सर का पीछा करना शुरू किया और पाया कि सप्ताह में एक-दो दिन वे दोपहर को भी चाची के यहाँ चले जाते हैं। मैंने यह भी ध्यान दिया कि आधे घण्टे रुककर वे निकल जाते हैं। इस आधे घण्टे में दोनों के बीच क्या कुछ होता होगा, इसको लेकर मेरी कल्पनाशक्ति प्रचुर मसाला जुटा दिया करती थी।
धीरे-धीरे चाची मेरी नज़र से उतरने लगीं। सुनील के घर भी जाना मैंने छोड़ दिया। सुनील कुछ दिन मेरे पास आता रहा, मुझसे पूछता रहा, लेकिन थक-हारकर वह भी किनारे लग गया।
लेकिन भीतर-ही-भीतर मैं किनारे नहीं लगा था। मेरे भीतर जैसे कोई प्रतिशोध भाव था जो लगातार बड़ा और कड़ा होता जा रहा था। मुझे लग रहा था-यह पोल खुलनी चाहिए। सर की बेफ़िक्री अब बढ़ती जा रही थी।
तो यहाँ मैंने एक सरहद पार करने का फ़ैसला किया। अपनी जासूसी के दौरान जब एक मैंने दिन पाया कि सर इधर-उधर देखते हुए चाची के घर का फाटक खोल रहे हैं तो दौड़ता हुआ चाचाजी-यानी सुनील के पापा-की दुकान पहुँच गया। उनकी बहुत बड़ी आटा चक्की थी जिसमें चक्की का शोर गूँजता रहता था। पहले उन्होंने समझा कि मैं आटा लेने आया हूँ। लेकिन मैंने बताया कि सर आपके घर पर आये हुए हैं-चाची से मिलने।
लेकिन मैं उनकी प्रतिक्रिया देखकर हैरान हुआ। उन्होंने बस सिर हिलाया था। उन्हें लगा कि सुनील फिर फेल-वेल हुआ होगा और सर उसकी शिकायत के लिए घर आये होंगे। शायद अपनी पत्नी की बेवफ़ाई की उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी।
मैं बेवकूफ़ों की तरह लौट आया। लेकिन मेरे दिल में हलचल मची हुई थी-किसी भी तरह, किसी भी तरह यह राज़ खुलना चाहिए। अचानक चाची के प्रति मेरे सम्मान में बहुत कमी आ चुकी थी और सर को तो मैं बाक़ायदा दुश्मन मानने लगा था। मैंने तरह-तरह के उपाय सोचे। एक गुमनाम चिट्ठी लिखकर दोनों का पर्दाफ़ाश कर दूँ? या चुपचाप दो-चार दोस्तों को बता दूँ? या सुनील से ही मासूमियत के साथ पूछ लूँ कि सर दोपहर को तुम्हारे घर क्यों जाते हैं? हैरानी की बात यह थी कि इन दिनों सुनील अचानक पढ़ाई में गम्भीर हो गया था। मंथली टेस्ट में उसके नम्बर अच्छे आ गये थे। मुझे यह बात भी अफ़सोस में डाल रही थी कि सर और चाची दोनों मेरी ओर से उदासीन होते जा रहे थे। अब सुनील नहीं बताता कि चाची ने मुझे बुलाया है।
लेकिन मेरे कुछ करने से पहले कुछ और चीज़े घट गयीं। सर और चाची की जिस गुपचुप मुलाक़ात को मैं सिर्फ़ अपना राज़ समझता था, उस पर दरअसल मोहल्ले के कई और लोगों की नज़र पड़ चुकी थी। सरगोशियाँ फुसफुसाहटों में बदल गयी थीं और फुसफुसाहटें ऊँची होती गयी थीं। अन्त किसी धमाके की तरह हुआ। सुबह-सुबह पता चला कि बीती रात सुनील के पापा ने चाची की जमकर पिटाई की है। जो काम पहले वह छुप-छुपाकर करते थे, इस बार सरेआम किया। शायद अपनी ग़ुलाम बीवी की बग़ावत उन्हें अपनी मर्दानगी के लिए चुनौती लग रही थी। उन्होंने अपना बदला लेने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। रात को वे उनको घर से निकालने पर तुले थे। वे रोती-कलपती घर के फाटक पर खड़ी रहीं और। मोहल्ले के सामने बनता अपना तमाशा देखती रही।
मैं दहशत में था। मैं सब कुछ चाहता था, लेकिन यह नहीं चाहता था। चाची मेरी निगाह में गिरी थीं, मोहल्ले की निगाह में उन्हें नहीं गिरना चाहिए था। मैं यह सोचकर डर रहा था कि रात उन पर कितनी भारी बीती होगी। स्कूल जाते हुए मेरे पाँव काँप रहे थे कि सुनील से कैसे मिलूँगा। लेकिन सुनील से मिलने की नौबत नहीं आयी। सुनील स्कूल नहीं आया था। स्कूल में अलग तरह का हंगामा था। कुछ लोग सर के नाम पर गाली-गलौज करते आये थे। प्रिंसिपल साहब जब तक कुछ समझते, सर को स्टाफ रूम से निकालकर बच्चों के बीच पीटा जा चुका था। किसी तरह उन बदमाशों को हटाया गया। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि इतने अच्छे और सीधे साइंस सर का किसी से ऐसा झगड़ा कैसे हो सकता है। उस दिन क्लास नहीं चल रही थीं, सर लोग सब इधर से उधर जा रहे थे और एक तरह का डर और शोर जारी था। किसी ने बताया कि पुलिस भी आने वाली है। लेकिन पुलिस नहीं आयी, मोहल्ले के ही कुछ लोग आये। बताया गया कि वे स्कूल को कोई नुक़सान पहुँचाना नहीं चाहते, बच्चे तो उनके घर के ही हैं, बस एक सर को सबक सिखाना था जो सिखाया जा चुका है। तो मामला ख़त्म।
सर का क्या हुआ, फिर मुझे पता नहीं चला। आख़िरी बार मैंने उन्हें स्कूल में देखा था। उनके माथे पर एक पट्टी बँधी हुई थी-आँख के पास सूजन थी। लेकिन अगले दिन से वे स्कूल नहीं आये। किसी ने बताया कि स्कूल और शहर दोनों छोड़कर चले गये।
चाची से मिलने कुछ दिन बाद ज़रूर गया था। उस दिन की सार्वजनिक पिटाई और बेइज़्ज़ती करने के बाद चाचाजी ने फिर उनको घर में जगह दे दी थी-लेकिन कुछ इस तरह जैसे नौकरानी को जगह दी जाती है। अब चाची चाची नहीं रह गयी थीं।
इस बार मैं गया तो चोरी-चुपके नहीं, लेकिन डरे-सहमे। चाची घर पर थीं। अचानक मेरी आहट से वे चौंक उठीं। मुझे देखकर अमूमन प्रफुल्ल हो जाने वाले उनके चेहरे पर जैसे कोई भाव नहीं था। बस उन्होंने पहचान भर लिया। मैं देखकर स्तब्ध था। वे कुछ ही दिनों में कुछ और हो गयी थीं। लावण्य से भरा शरीर जैसे रातों-रात मुरझा गया हो। उनके चेहरे पर जो ख़ुशी झलकती थी, वह उनकी काया से भी फूटती थी। लेकिन आज एक बेजान-सी ठठरी के सामने खड़ा था मैं। वे चुप रहीं। मैं भी कातर ढंग से उनको देखता हुआ चुप रहा। फिर अचानक क्या हुआ कि मेरे भीतर एक रुलाई उमड़ आयी। मैं रो रहा था। तब भी वे चुप रहीं। बस देखती रहीं। फिर मैंने ख़ुद पर क़ाबू पाया-“चाची, चाची। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा था।” ठठरी अब भी चुप थी। फिर उसमें कुछ हरकत हुई-“घर जाओ किशोर, हमको मालूम है।” मैं बस न में सिर हिलाता रहा-जैसे नहीं जाऊँगा। फिर वे बोलीं-“तुम दुकान गये थे, बताने कि सर मेरे पास हैं।”
अचानक मैं शर्मिन्दगी से नहा उठा। उनको पता है। चाचा ने बताया होगा ज़रूर। पिछले दिनों की कड़ियाँ जोड़ी होंगी। इनके इस हाल का मैं भी ज़िम्मेदार हूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूँ। मैं बस इतना बोल पाया-“चाची, आप बहुत अच्छी हैं, बहुत अच्छी।” चाची जैसे मुझे सुन ही नहीं रही थीं, अपने-आप में बोल रही थीं-“सब सुनील के चलते हुआ। वह पढ़ सके, इसीलिए सर को बुलाये थे। सर उसके लिए बहुत किये। इतना उसके बाप नहीं किये। बाप तो चाहते थे, पढ़े नहीं दुकान पर बैठ जाये। उनकी तरह जानवर बना रहे।” मैं बिल्कुल स्तब्ध था। जानवर शब्द का उच्चारण करते हुए उनके मुँह से जैसे हिक़ारत टपक रही थी। क्या वे मुझसे बात कर रही हैं? या अपने-आप से। लेकिन वे बोले जा रही थीं- “ग्राहकों से हे-हे करते रहते हैं, घर आकर हम लोगों पर ग़ुस्सा उतारते हैं। हम लोग उनके लिए मिल के गेहूँ जैसे थे। बस पिसते रहना था। उनकी चक्की चलती रहती थी। सर आये तो याद आया, हम भी औरत हैं। सुनील भी लड़का है।” अचानक जैसे वे किसी मूर्च्छा से जागी हों-“जाओ बेटा तुम। अब कुछ कहने-सुनने को नहीं बचा है। सुनील सँभल गया है। पढ़ लेगा। आदमी बन जायेगा। मेरा बेटा अपने बाप जैसा नहीं बनेगा।”
फिर उनकी आँखों में हलकी-सी चमक लौटी। पहली बार जैसे उन्हें मेरा नाम याद आया-“किशोर, तुमको भी हम बेटा मानते रहे। रिश्ता-नाता ऐसे भी बन जाता है। सर से भी बन गया था। सबका मोल चुकाना पड़ता है। चुका रहे हैं। जाओ तुम। तुम भी बच्चे ही हो मेरे। बस एक सलाह देंगे। जीवन में औरत की इज़्ज़त करना। बहुत इज़्ज़त भी पाओगे और प्यार भी, जाओ।”
मैं भीतर से हिला हुआ निकल आया था। अक्सर चोर की तरह घुसने वाला मैं चोर की तरह निकल रहा था-भीतर मनों बोझ उठाये। यह नहीं जानता था कि इस घर में दुबारा आना नहीं होगा।”
सर ने स्कूल आना बन्द कर दिया था। सुनील आने लगा था, लेकिन अब वह एक बदला हुआ लड़का था। पहले दिन कुछ बच्चों ने उसको देख कानाफूसी की, लेकिन सुनील उनकी ओर से लापरवाह बना रहा। मुझसे उसकी बातचीत लगातार सीमित होती गयी थी। जैसे माँ के साथ हुए हादसे के बाद उसने अपने-आप को भीतर सिकोड़ लिया हो। इन सबके बीच हम नवीं से दसवीं में कब पहुँचे और कब दसवीं पास कर गये, पता भी नहीं चला। चाची मुझे याद आती थीं, लेकिन किसी छूटे हुए क़िस्से की तरह। कभी मेरे भीतर उनके जिस्म का सितार बजता और कभी उनकी हिदायत याद आती-‘औरत की इज़्ज़त करना। इससे इज़्ज़त भी मिलेगी, प्रेम भी मिलेगा।’
शहर मुझसे छूट गया था। दिल्ली में पढ़ाई हुई, वहीं नेट किया, वहीं से पीएच.डी. की और एक दिन पाया कि मैं डीयू का असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हो चुका हूँ। अब सुनील और चाची ही नहीं, पूरा शहर इतना पीछे छूट चुका था कि पलटकर देखने पर भी दिखाई नहीं पड़ता था। लेकिन चाची मेरे भीतर बनी रही थीं-याद दिलाती हुई कि औरत की इज़्ज़त करना। इसका ठीक-ठीक क्या मतलब हो सकता है, हालाँकि यह बात अलग-अलग अवसरों पर मैं अलग-अलग ढंग से समझता रहा।
और अब पूरे तीस साल बाद चाची मेरे सामने थीं। मुझे उनसे मिलना था। अगली सुबह मैं उनके घर जा पहुँचा-घर यानी उनके नये पते पर। यह शहर की नयी रिहाइश में बन रहे एक शानदार अपार्टमेंट का फ़्लैट था। न फाटक था, न आँगन था और न कुआँ, न सतरंगी तितली की तरह दमकती देह थी। फ़्लैट के दरवाज़े पर सुनील शर्मा की नेमप्लेट भर लगी हुई थी। मैंने घण्टी बजायी। दरवाज़ा खुला और वे मेरे सामने थीं। कल शादी के मौक़े पर पहनी गयी रेशमी साड़ी की जगह बस एक हलके रंग की सूती साड़ी में थीं। उन्होंने मुझे नीले क़ुशन वाले सोफ़े पर बिठाया, पूछा, “कैसे हो, परिवार में कौन-कौन हैं”? मैंने बताया-“पत्नी और दो बेटियाँ हैं। पत्नी मौसम विभाग में काम करती है, बेटियाँ स्कूल में हैं।” मैंने सुनील के बारे में पूछा तो बताया, “उसने बैंक में ही काम कर रही एक लड़की से शादी की है-दोनों ट्रेनिंग में मिले थे। लड़की अलग जाति की थी। उसके परिवार वाले हिचक रहे थे। हम जाकर समझाये। फिर सब मान गये कि दोनों की ख़ुशी में ही सबकी ख़ुशी है।” उन्होंने बताया कि दोनों बहुत ख़ुश हैं, वे भी बहुत ख़ुश हैं-वे जब पटना जाती हैं तो पोता उनसे लटका रहता है।
मैने पूछा, “और सुनील के पापा?” वे एक मिनट के लिए चुप रहीं। फिर उनका चेहरा कुछ पत्थर-सा हो आया-“वे अब नहीं हैं। बहुत पीने लगे थे। लिवर बिगड़ गया। दस साल पहले।”
मैं अवाक् था। फिर उनकी आँखों में पानी जैसा चला आया- “सब समझते हैं कि मेरी वजह से मरे।” मेरी समझ में आ गया था कि अब उन पुराने दिनों से फिर से आँख मिलानी पड़ेगी। लेकिन वे बोले जा रही थीं-“सर याद हैं न तुमको। बहुत बदनामी हुई थी। सब बोलते हैं, उसी के बाद पीने लगे। इसी से तबीयत बिगड़ी।”
उन्होंने पूछा, “तुम भी तो यही सोचते होगे।” मैंने न में सिर हिलाया। वे मेरी आँखों में देखती रहीं। शायद विश्वास का कोई धागा दिखा। उन्होंने लम्बी साँस ली। मुझे उनका कहा याद आ रहा था-रिश्ते-नाते ऐसे ही बनते हैं, उनका भी मोल चुकाना पड़ता है। औरत की इज़्ज़त करना। मुझे यह भी ख़याल आया कि किसी ने यह नहीं कहा कि सुनील की माँ ने पीना क्यों नहीं शुरू किया? हमेशा मर्द को ही दुख क्यों होता है? किसी ने नहीं जाना कि पीकर वे चाची और सुनील की क्या गत बनाते रहे होंगे। चाची जैसे मेरे मन की बात समझ रही थीं-“बाबू, घर नरक हो गया था मेरे लिए।” उन्होंने नहीं कहा कि पति की मृत्यु से असल में उन्हें मोक्ष मिला है।
मैंने सहमते हुए पूछा। अब सब ठीक है चाची? उन्होंने सिर हिलाया। लेकिन एक सवाल मेरे भीतर बचा हुआ था-“आप सुनील के साथ पटना जाकर क्यों नहीं रहतीं? दोनों को आराम होगा। आपको भी और उसको भी?”
वे हँसने लगीं। कहा, “बताऊँगी।” फिर मुझसे पूछा, “तुम बताओ, घर-परिवार तुम्हारा बिल्कुल ठीक है न?”
मुझे शायद अवचेतन में इसी अवसर की तलाश थी। शायद इसीलिए मैं अपने बहुत सारे काम छोड़कर चाची से मिलने आया था। बस एक स्वीकारोक्ति के लिए। मैंने शायद अपने भीतर बरसों से दुहराकर रखा गया संवाद बोला-“बिल्कुल ठीक है। क्योंकि तीस साल पहले माँ जैसी चाची से एक सलाह मिली थी-औरत की इज़्ज़त करना, बहुत इज़्ज़त पाओगे, और प्यार भी।”
अब वे अवाक् थीं। अचानक उन्होंने मुझे गले लगा लिया और रोने लगीं-“किशोर, यह बहुत बड़ी बात है। तुमको याद है। तुम सच में मेरे बेटे हो।”
लेकिन अपने इस मुँहबोले बेटे के लिए आख़िरी अचरज उन्होंने बचाकर रखा था। अचानक फ़्लैट की घण्टी बजी। वे हड़बड़ाकर उठीं। उनके चेहरे पर मुस्कराहट लौट आयी थी। दरवाज़ा खुलने पर एक बूढ़ा-सा आदमी दाख़िल हुआ। मुझे पहचाना हुआ चेहरा लगा। पहचानकर मैं चिहुँक गया-ये तो सर हैं! मैं खड़ा हो गया-“प्रणाम सर।” वे मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे। चाची ने कहा-“किशोर है, सुनील का दोस्त।” लेकिन चाची के कहने से पहले वे मुझे पहचान चुके थे-“अरे किशोर! कैसे हो तुम?” मुझे वे आख़िरी मुलाक़ातें याद आयीं, जब वे मुझसे आँख मिलाने से बचते थे। लेकिन आज उनकी आँखें हँस रही थीं।
“तुमने पूछा था न, पटना क्यों नहीं चली जातीं?” यह चाची की आवाज़ थी-विहँसती हुई, “अब यहाँ भी परिवार है हमारा। अब मत पूछना, सुनील क्या बोलता है। सुनील और उसकी बहू का ही कहना था, सर से शादी कर लो।” शादी बोलते-बोलते वे किसी किशोरी कन्या-सी लजा गयीं और फिर झेंप मिटाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगीं। सर भी हँस रहे थे-“किशोर को मिठाई तो खिलाओ। पहली बार आया है।” लेकिन मुझे इस हँसी में फिर से वह दमकती देह दिख रही थी और कहीं यह ख़याल आ रहा था कि देह इस तरह तभी दमकती है जब आत्मा दमक रही होती है।