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गुजरात फाइलज़ / Gujarat Files: Anatomy of a Cover-up

गुजरात फाइलज़ / Gujarat Files: Anatomy of a Cover-up
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मेरे लिए 2010 की गर्मियां पत्रकारिता को नए मायने देने वाली थीं। मैं हमेशा अपने आपको एक मेहनती और साधारण संवाददाता मानती थी जिसके पास कुछ आदर्श थे जो कि उसे उसके पुराने
विचारों वाले पत्रकार पिता से मिले थे। लेकिन उस समय, मैंने अपने आपको एक ऐसे चौराहे पर पाया, जहां मैं चाहूंगी कि कोई भी पत्रकार कभी न पहुंचे।
मैं 2010 में लंबे मेडिकल अवकाश के बाद तहलका में अपने काम पर फिर से जाने लगी थी।
इस दौरान शहर भर के डॉक्टर मेरी बीमारी का पता नहीं लगा पाए थे। उन दिनों मैं गढ़चिरौली के नक्सल प्रभावित इलाके से एक स्टोरी पर काम करके लौटी ही थी। यह बात उस घटना से ठीक पहले की है जिसे मैं अपने जीवन की सबसे झकझोरने वाली घटनाओं में से एक मानती हूं।
तह थी मेरे बेहद अज़ीज दोस्त शाहिद आज़मी की हत्या। फौजदारी कानून के सबसे बेहतरीन दिमागों में से एक आज़मी ने मेरी जिंदगी में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अतियार कर ली थी। जिस शाम आज़गी की मौत हुई, उस शाम मुझे उनसे मिलकर उन आदिवासियों और बुद्धिजीवियों के मागलों के बारे में बात करनी थी जिन पर सरकार ने नक्सली होने का ठप्पा लगा दिया था और अब वे झूठे आरोपों में जेल में सड़ रहे थे।
लेकिन तकदीर को कुछ और ही मंजूर था। मैं उस दिन अपनी भतीजी के आग्रह पर घर में ही रुक गई| वह उसका सातवां जन्मदिन था। मेरे फोन पर दर्जनों मिस्ड कॉल थे और कई सारे संदेश, जिनमें मुझसे जानना चाहा गया था कि ‘शाहिद के बारे में ताजा खबर क्या है?’ इन
तमाम संदेशों को मैंने बाद में ही देखा। बाकी सारी घटना की जानकारी मुझे दोस्तों के कई सारे फोन और समाचार चैनलों पर ब्रेकिंग स्टोरी के जरिये मिल गई। ‘राष्ट्र विरोधियों’ के मामले हाथ
में लेने के लिए अज्ञात हमलावरों ने शाहिद को उनके दतर में गोली मार दी थी। शाहिद की पैरवी के चलते ही 7/11 के मुंबई ट्रेन धमाकों के लिए पकड़े गए कुछ निर्दोष लोग हाल ही में बरी हो गए थे। शाहिद की मौत के बाद मुंबई की अदालतों ने 26/11 के मुंबई हमले के दो सह-आरोपियों को भी बरी कर दिया था। शाहिद की हत्या के पीछे का शातिर दिमाग आज तक एक रहस्य बना हुआ
है, कम से कम जनता की आंखों में….

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