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‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, ‘इसी को लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।’ इस उपन्यास को लिखने के लिए महाश्वेता जी ने अथक अध्ययन किया और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के विषय में व्याप्त तरह-तरह की किंवदन्तियों के घटाटोप को पार कर तथ्यों और प्रामाणिक सूचनाओं पर आधारित एक जीवनीपरक उपन्यास की तलाश की।
इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं, बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इन्दौर-ललितपुर के जंगलों, झाँसी, ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ, उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रान्ति के बाकी तमाम अग्रदूतों, और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसरों तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है।
इस कृति में तमाम ऐसी सामग्री का पहली बार उद्घाटन किया गया है जिससे हिन्दी के पाठक सामान्यतः परिचित नहीं हैं। झाँसी की रानी पर अब तक लिखी गईं अन्य औपन्यासिक रचनाओं से यह उपन्यास इस अर्थ में भी अलग है कि इसमें कथा का प्रवाह कल्पना के सहारे नहीं बल्कि तथ्यों और दस्तावेजों के सहारे निर्मित किया गया है, जिसके कारण यह उपन्यास जीवनी के साथ-साथ इतिहास का आनन्द भी प्रदान करता है।
इसे लेकर इतनी उत्सुकता इस लिए भी थी कि अपने मामा के यहाँ उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में पढ़ा तो उनकी इस ओर दिलचस्पी जगी। उन्होंने इस पर और अध्ययन शुरू किया और रानी लक्ष्मीबाई की शख्सियत से काफी प्रभावित हुईं। उन्होंने उनपर लिखने का इरादा कर लिया और उनके भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्रव्यवहार शुरू किया।
सामग्रियों की उपलब्धता से उत्साहित हो उन्होंने पूरे मनोयोग से लिखना शुरू भी कर दिया और 300 पेज लिख डाले। इसके बाद उन्होंने स्वयं इसे पढ़ा और अपने हाथों से फाड़ कर फेंक दिया। आज जब 10-20 कहानियों की किताब या 200-250 पृष्ठों का कोई उपन्यास छाप कुछ लोग सोशल मीडिया पर सेलेब्रिटी और बेस्ट सेलर बन जाते हैं वो शायद इस स्थिति को इतनी सहजता से न समझ पायें! मगर महाश्वेता देवी को इस पूरी प्रक्रिया में कुछ कमी सी लग रही थी। फिर वर्षों के मनोयोग और शोध से उन्होंने यह किताब लिखी।