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जिस समय हमारी ट्रेन महोबा स्टेशन पर लगी, उस समय तक रात गहरी हो चुकी थी। दिल्ली तो आठों पहर जागती रहती है। हम दिल्ली से 600 किलोमीटर दूर थे। सांस्कृतिक इतिहास के समृद्धतम शिखर पर बैठे उस बुंदेलखंड में, जो आज भूख और प्यास से तड़पते क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। इस ओर का रुख हमारी पत्रकार बिरादरी तभी करती है, जब अकाल गहरा हो जाता है और लोगों के मरने की सूचनाएं आने लगती है।
लेकिन हम तो आज एक दूसरे ही मिशन पर थे। हम, यानी मैं और राजन। राजन, फारवर्ड प्रेस के ग्राफिक डिज़ाइनर, आदिवासी मुद्दों में गहन रुवि रखने वाले युवा हैं। कभी भी, कहीं भी चल पड़ने, किसी से भी लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार रहने वाले साथी।
हमारे पास दो तस्वीरें हैं। एक तस्वीर में पत्थर का एक ढांचा है, जो न मंदिर की तरह दिखता है, न ही घर की तरह। वह पत्थर की अनगढ़ सिल्लियों से बनी छोटी सी झोपड़ी जैसा कुछ है। दूसरी तस्वीर में किसी सड़क पर लगा एक साइनबोर्ड है, जिस पर लिखा है— “भारत सरकार : केंद्रीय संरक्षित स्मारक, भैंसासुर स्मारक मंदिर, चौका तहसील, कुलपहाड़ – भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, लखनऊ मण्डल, लखनऊ, उपमंडल महोबा, उत्तर प्रदेश”।
मुझे ये तस्वीरें इंडिया टुडे के पीयूष बाबेले ने पिछले साल 16 अक्टूबर (2014) को ईमेल से भेजी थीं। हग एक-दूसरे से निजी जीवन में परिवित नहीं हैं।
9 अक्टूबर, 2014 को फारवर्ड प्रेस के दफ्तर पर पुलिस ने छापा मारा था। हिंदू संगठनों से जुड़े कुछ लोगों ने हमारे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया था। उन्होंने पुलिस को दी गई शिकायत में
कहा था कि फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2014 अंक में डॉ. लाल रत्नाकर की ‘राजा महिषासुर की ‘शहादत’ शीर्षक पेंटिंग प्रकाशित कर, हमने उनकी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाई है तथा
“ब्राह्मण और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच द्वेष फैलाया है।” यह एक ऐसा मजाक था, जिसपर हम….
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