Doglapan Book PDF Download
Biography / Autobiography
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Name | प्रोफेसर की डायरी / Professor Ki Diary Hindi Book PDF Download |
Author | No tags for this post. |
Category | Biography / Autobiography, Speech & Diary |
Language | Hindi |
Download Link | Working |
संस्कृति को किसान-कामगार, शिल्पकार और बुद्धिजीवियों ने हज़ारा साल मारपा है। बुद्धिजीवी किसान-कामगार तबकों से आते हैं और अंततः उन्हीं के लिए बोलते हैं। भारत को विश्वगुरु की जिस छवि में देखने की कोशिश की जाती है, उसे किसने रचा था? इतिहास इसे जितना भी नज़रअंदाज़ करे मगर ये संस्कृति बहुसंख्यक किसान कामगार वर्ग ने रची है। विशाल लोक-साहित्य के रचयिता कौन थे? मंदिरों को बनाने वाले लोग कौन थे? कौन थे खूबसूरत मूर्तियों को गढ़ने वाले लोग? कौन थे जिन्होंने मिट्टी और लकड़ी से अनूठी नक़्क़ाशियाँ कीं? महलों से लेकर राज- सिंहासनों को बनाने वाले राजगीर कौन थे? आकर्षक आभूषण किसने बनाए ? सड़कों से लेकर संसद के खंभों तक को किसने गढ़ा ?
विश्वगुरु की छवि में जितने भी रंग हैं, उसे हमने ही भरा है। इस विश्वगुरु की छवि में गुरुओं की वास्तविक स्थिति क्या है? और इन ‘गुरुओं’ में किसान- कामगार, शिल्पकार और दलित वंचित तबकों की हिस्सेदारी कितनी है? क्या हम अपने स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों के दरवाज़े सबके लिए खोल सके ? क्या हमने क़लम और किताब को हर हाथ तक पहुँचाया? क्या हमारे मुल्क़ के तालीमी-इदारे आज भी नाज़ करने लायक़ बचे हैं? इन सवालों पर ईमानदारी से बात करना विश्वगुरु होने की गुंजाइश के साथ असल में इंसाफ़ करना है।
नज़र की ईमानदारी का तक़ाज़ा है कि हम उतनी ही हक़ीक़त न देखें, जितना सत्ता दिखाती हो। जागरूक नागरिक होने की शर्त है कि आप उस हक़ीक़त से भी रूबरू हों, जो असल में छिपाई जाती है। वह हक़ीक़त, जिसे अक्सर बयाँ नहीं,
केवल बर्दाश्त किया जाता है। इतिहास अमूमन हुक्कूमत के हक़ में खड़े होकर लिखा जाता है, जो दरअसल मुकम्मल नहीं होता। तारीख़ी इबारत में हाशिए के क़िस्से नज़रअंदाज़ कर दिये जाते हैं। मगर एक समय ऐसा आता है जब इतिहास से बहिष्कृत हिस्से अपने अनकहे क़िस्सों के साथ आ धमकते हैं। चिनुआ अचेबे के शब्दों में कहें तो ‘जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की बहादुरी के क़िस्से गाये जाते रहेंगे।’
यह किताब विश्वगुरु के दावे के बीच गुरुओं व अकादमिक संस्थाओं, ख़ासकर विश्वविद्यालयों के हिस्से की थोड़ी सी हक़ीक़त कहती है। यह क़िस्सा एक एडहॉक प्रोफ़ेसर की नज़र से देखी गयी दुनिया का क़िस्सा है। मैंने लगभग दो दशक के अपने अकादमिक जीवन में जो कुछ अनुभव किया, उसे कभी किसी नोटबुक में तो कभी किसी किताब के ख़ाली पन्नों के बीच लिखता गया। कहीं तारीखें लिख डालीं तो कहीं किसी आँखों देखी घटना को दर्ज कर लिया। कभी कोई हृदय- विदारक बात हुई तो उसे कहीं लिख कर सहेज लिया। कभी किसी चुहल को नोट कर लिया। हम पहली पीढ़ी के दलित बहुजन तबके से आये हुए लोगों के पास अकादमिक ज़िंदगी में ऐसे अनगिनत अहसास होते हैं। वक़्त बदला तो अहसासों के इन बिखरे पड़े नोट्स और टिप्पणियों को एक जगह सहेजकर किताब बना दी है। हृदय की आँखों से लिखा गया हमारा अपना इतिहास ।
इस किताब में विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों तक में काम कर रहे अनगिनत अस्थायी शिक्षकों के रोज़मर्रा के अहसास हैं। इन अस्थायी शिक्षकों को एडहॉक प्रोफ़ेसर, गेस्ट टीचर, शिक्षा मिल, नियोजित शिक्षक, संविदा शिक्षक जैसे जाने कितने नामों से जाना जाता है। यह किताब इन अलग-अलग नामों की साझा कहानी है, जिनका काम एक ही है पढ़ना और पढ़ाना। एक ऐसा पेशा, जिसमें शिक्षक को छोड़ सब कुछ परमानेंट होता है। सिलेबस, स्टूडेंट, पढ़ाई-लिखाई, नोट्स, चॉक, डस्टर, मार्कर, बिल्डिंग, एग्जाम, इवेंट्स, ड्यूटीज़ सब कुछ परमानेंट; मगर इनकी बुनियाद में खड़ा एक शिक्षक ख़ुद परमानेंट नहीं होता।
आज हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था वेंटिलेटर पर है, जिसे अस्थायी शिक्षकों के ज़रिए ऑक्सीजन दिया जा रहा है। मैं देश की राजधानी के एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय में तक़रीबन चौदह साल तक एडहॉक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर रहा। मैंने जो कुछ देखा, उसे कहना बहुत जोखिम भरा है। ‘भीड़’ बन जाना हमारे दौर की
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