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पेट की ऐंठन फिर दिक्कत पैदा कर रही थी। दरअसल पिछले तीन दशकों की मशक्कत भरी ‘जिंदगी ने उसे पेचिश की जो बीमारी सौंप दी थी उससे निजात पाना मुश्किल था। और तो और प्रोस्ट्रेट भी बढ़ा हुआ था। बावजूद इसके हाथों में बंदूक की बेहद ठंडी धातु के एहसास के मुकाबले इस दर्द को बर्दाश्त किया जा सकता था। लेकिन बंदूक थामने की नौबत कभी-कभार ही आती थी- ऐसे समय जब वह पूर्वी घाट से लगे जंगलों में कहीं अंदर होता था। मसलन ऐसे समय, जब शहीद हो गए कामरेडों की याद में कोई सभा हो रही हो या सैनिकों की सेरेमोनियल परेड हो या उनकी कवायद चल रही हो। फिलहाल वह मध्य भारत के इन जंगलों से सैकड़ों मील की दूरी पर था।
वह इस समय दिल्ली में था।
दक्षिण दिल्ली के बदरपुर इलाके की मोलारबंद एक्सटेंशन कॉलोनी भी एक जंगल की ही तरह थी। सुबह होते ही हजारों की तादाद में लोग पतली और टूटी-फूटी नालियों से भरी सड़कों से टिड्डियों के दल की माफिक अपनी नयी-पुरानी साइकिलों पर निकल पड़ते थे। वे कारखानों में बतौर फिटर या कटर काग करते थे या किसी बन रही इमारत में दिहाड़ी मजदूर थे। कुछ को प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड का काम मिला हुआ था। जिंदगी काफी जद्दोजेहद भरी थी। आज के जमाने में जितनी तेजी से महंगाई अपना पैर फैला रही थी, रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना जबर्दस्त हौसले का काम था। इनमें से कुछ ऐसे थे जो अपने परिवार को दूरदराज के किसी कस्बे या गांव में छोड़ कर अकेले ही रहते थे। इनके पिताओं को इंतजार होता था कि शहर से बेटा कुछ
पैसे भेजे और वे अपने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करा सकें| कुछ माएं थीं जो विधता हो चुकी थीं।
कुछ बहनें थीं जिनको अपने ब्याहे जाने का इंतजार था। गरीबी की मार झेलती पत्नियां थीं जो हमेशा इस उम्मीद में रहती थीं कि शायद वे बच्चों की पढ़ाई के लिए कुछ पैसे बचा सकें। यहां हालत यह थी कि अपनी मामूली कमाई में से ये लोग इसी कोशिश में लगे रहते थे कि परिवार के लोगों को ज्यादा से ज्यादा पैसे भेज सकें।
सालों-साल तक यहां के गरीब मजदरों को किसी पुरानी फिल्म के इस गाने में ही