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उस समय सेवड़ासिंघा अपने महल की छत पर ध्यानस्थ बैठा हुआ था। उसको क्या पता था कि उसकी मृत्यु सामने आ रही है। उसने अपनी ओर आते हुए विशाल शिलाखण्ड की सनसनाती हुई आवाज सुनी तो आँखें खोल कर देखा। वह पल भर में समझ गया कि मृत्यु सिर पर आ चुकी है। अपनी तन्त्रविद्या से उस विशाल शिलाखण्ड को रोकने का प्रयास भी किया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। हवा में चक्कर काटता हुआ शिलाखण्ड आया और तीव्र गति से गिर पड़ा सेवड़ासिंघा के ऊपर। उसके मुँह से एक दर्दनाक चीख निकली। मरते-मरते शाप दिया उसने – रानी रत्नावली, तुमने छल से मारा है मुझे। मैं अपनी तन्त्र साधना का उपयोग करते हुए शाप देता हूँ कि तुम्हारा यह नगर कल का प्रातःकाल न देख सकेगा। कोई प्राणी नहीं बचेगा इस नगर का। कल के बाद इस नगर में कभी कोई नहीं रह सकेगा।