वरदान | Vardaan Hindi PDF Download Free in this Post from Google Drive Link and Telegram Link ,
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Name : | वरदान | Vardaan Hindi PDF Download |
Author : | Invalid post terms ID. |
Size : | 1.7 MB |
Pages : | 108 |
Category : | Novels, Stories |
Language : | Hindi |
Download Link: | Working |
‘वरदान’ में प्रताप नायक है, जो दीन दुखियों रोगियों दलितों का बिना किसी स्वार्थ के मदद करते है और विरजन के साथ प्रेम के मोहपाश में बंध कर अपनी भावी जिंदगी की कोमल और खुशियों से भरी हुई कल्पनाएं करते है। लेकिन उनकी यह कल्पना सच्चाई नहीं बन पाती है और विरजन का कमलाचरण से अनमेल विवाह हो जाता है। प्रेमचंद जी ने अपने इस उपन्यास में प्रेम जीवन में आई हर स्थितियों की कहानी को बहुत बारीकी से निरीक्षण कर उसे अपने इस उपन्यास में व्यक्त किया है।
विश्वव्यापी आर्थिक संकट के दौर में रचित प्रेमचंद का आरंभिक उपन्यास ‘वरदान’ प्रेम, पवित्रता, त्याग, संयम, देश सेवा और बलिदान की गौरव गाथा है।
बनारस के तीन परिवारों को केंद्र में रख कर रचित इस उपन्यास में कर्तव्य की कठोर साधना में रत रहने वाले पुरुष की प्रेमिल भावनाओं के साथसाथ अभावग्रस्त नारी हृदय की वेदना की भी सहज अभिव्यक्ति हुई है।
विभिन्न पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं की झलक देने वाला यह उपन्यास हर वर्ग के पाठकों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय है।
प्रेमचंद ने इस उपन्यास को उर्दू में ‘जलवा-इ-इसर’ शीर्षक से भी प्रकाशित कराया था।
Summary of book वरदान | Vardaan Hindi PDF Download
पुस्तक का कुछ अंश
विंध्याचल पर्वत मध्य रात्रि के निविड़ अन्धकार में काले देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दृष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं हैं और अष्टभुजा देवी का मन्दिर, जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों से लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है। मन्दिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था।
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों ओर भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थी। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखाई देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाए रहने के पश्चात कहा-
‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जब कि मैंने तुम्हारे चरणों पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई! मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं?’
‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की तीर्थ यात्राएं कीं परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आई। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तों की इच्छाएं पूरी की हैं। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात् उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आई-
‘सुवामा! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग क्या मांगती है?’
सुवामा रोमांचित हो गई। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात् महारानी ने उसे दर्शन दिए। वह कांपती हुई बोली-जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी?
‘हां, मिलेगा।’
‘क्या लेगी? कुबेर का धन?’
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