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Name | आको-बाको । Aako Baako Hindi Book PDF Download |
Author | |
Category | Novels |
Language | Hindi |
Download Link | Working |
दो दोस्त, जो ढूँढ़ने चले हैं कि कविता आख़िर कहाँ से आती है। एक छोटे शहर की सुपर मॉम, जो रोज़ टीवी पर आने का सपना देखती है। भोपाल की वो लड़की, जो अब भी अपने मुंबई के पेन फ़्रेंड को हाथ से लिखी चिट्ठियाँ भेजती है। एक मॉडल, जिसका एक गाना हिट होने के बाद सब कुछ फ़्लॉप हो गया। देहरादून में रहने वाला डाकिया, जो शहर का सबसे अच्छा ऐक्टर है। लखनऊ की पुरानी हवेली में रहने वाले ज़िंदा लोग, जिनको लोगों ने भूत मानकर छोड़ दिया है। द्रौपदी, जिसने पाँच भाइयों में बँटने से मना कर दिया था। गौतम बुद्ध, जो अगर घर लौट गए होते तो क्या होता! दिव्य प्रकाश दुबे की ये 16 कहानियाँ, अलग-अलग शहरों में रहने वाले आम और ख़ास दोनों तरह के लोगों को नए शेड में दिखाने की कोशिश करती हैं। वे लोग, जो अपनी आधी-अधूरी हसरतों के साथ भी पूरे हैं।
Summary of book आको-बाको । Aako Baako Hindi Book PDF Download
नीता को घर का कामकाज निपटाते हुए रोज की तरह दिन के बारह बज गए थे। उसने अपने लिए चाय बनाई और इत्मिनान से अखबार पढ़ने लगी। उसको अखबार पढ़ने का शौक था लेकिन कभी वो ताजा अखबार नहीं पढ़ पाती। ज्यादा कुछ कहाँ चाहिए था उसे, कड़क चाय और ताजा अखबार। बस इतना और बस इतना ही नहीं मिल पाता था।
पति को चाय के बिना अखबार के अक्षर दिखाई नहीं देते थे। सुबह बच्चों का टिफिन, उनके स्कूल की तैयारी में साँस लेने की फुरसत ही नहीं होती।
नीता उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले के ऑफिसर्स कॉलोनी में रहती थी, नहीं उसके पति ऑफिसर नहीं थे। वो लोग अपर कास्ट नहीं थे, ये बात दो-तीन दिन में कोई-न-कोई याद दिला देता था। शाहजहाँपुर की इस ऑफिसर्स कॉलोनी में घरों के चार-पाँच टाइप थे- बंगले, ए टाइप, बी टाइप, सी टाइप, डी टाइप। नीता का घर सी टाइप का था। इस कॉलोनी में चपरासी बाबू से लेकर, अधिकारी, जज सभी सरकारी लोग रहा करते। यूँ तो बाबुओं की बिल्डिंग से डीएम बंगला बिलकुल पास था। नीता के घर के आस-पास रहने वाली औरतें शहर के अधिकारियों की बीवी की तरह नहीं थीं। कभी किसी को काम हो तो वो एक-दूसरे के घर का खाना-पीना देख लेतीं और बच्चों को सँभाल लेतीं। ये औरतें अधिकारियों की बीवियों को ऐसे देखतीं जैसे वो उस शहर की हिरोइन हों। डीएम और एसपी की बीवियों के पहने हुए कपड़ों की चर्चा बहुत दिनों तक होती। ऐसा कहा और माना जाता कि बड़े अधिकारियों की बीवियाँ कपड़े वगैरह खरीदने बरेली या लखनऊ जाती हैं। कुछ औरतें तो यहाँ तक कहती थीं कि शहर के सब बड़े अधिकारियों की बीवियाँ हफ्ते में एक बार बरेली केवल शॉपिंग करने जाती थीं। ये वे औरतें थीं जो अपने पतियों से डीएम और एसपी की तनख्वाह पूछकर उँगलियों पर हिसाब लगातीं कि कितने पैसे खर्च हो जाते होंगे। बड़े अधिकारियों की होने वाली कमाई को जोड़ने में उनकी उँगलियाँ कम पड़ जातीं। अपने बच्चों को अधिकारी बनाने का सपना पहली बार उनकी उँगलियों पर महीने का खर्चा जोड़ते-घटाते हुए पनपता।
वे जो कपड़े लेकर आतीं, बाबुओं की बीवियाँ उन कपड़ों जैसे कपड़े ढूँढने के लिए शाहजहाँपुर की लोकल मार्केट जातीं। कुछ औरतें इसलिए सारे व्रत और त्यौहार रहतीं कि रिटायरमेंट से पहले उनके पति का प्रोमोशन हो जाए और वे थोड़े दिन के लिए ही सही बड़े बाबू से अधिकारी हो जाएँ। सी टाइप के घर से बी टाइप के घर पहुँचने में उम्र निकल जाती थी।
नीता को अपना दो कमरे वाला सरकारी घर अच्छा लगता था। उसने उसको सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। घर चूँकि छोटा था इसलिए कुछ भी नया सामान रखने की जगह नहीं थी। नीता के आस-पास रहने वाली सहेलियाँ भी उसकी अखबार पढ़ने की इस आदत से परेशान रहतीं। एकाध तो ताने मारते हुए कह भी देतीं, “देश-दुनिया तो फैमिली ही है न, फिर अखबार क्या पढ़ना!” या फिर, “अखबार पढ़कर किस्मत थोड़े बदल जाएगी!”
उसके पूरे ब्लॉक में वो अकेली थी जो अखबार पढ़ती थी। उसकी बाकी सहेलियाँ तो न्यूज
देखती भी नहीं थीं। उनके पति जो कुछ भी बता देते थे वही उनके लिए खबर हो जाती। नीता कभी इस बात का जवाब नहीं देती। अखबार में अपना भविष्यफल पढ़कर वो पिछले दिन के अखबार से अपना भविष्यफल मिलाती। बीता हुआ दिन शायद ही कभी भविष्यफल के हिसाब से बीता होता, फिर भी नीता को उम्मीद थी कि किसी न किसी दिन का भविष्यफल तो…
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