चाँदपुर की चंदा | Chandpur Ki Chanda PDF

कुछ साल पहले पिंकी और मंटू का प्रेम-पत्र सोशल मीडिया पर वायरल हुआ और ऐसे वायरल हुआ कि उसे शेयर करने वालों में हाईस्कूल-इंटरमीडिएट के छात्र भी थे और यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर भी। लेकिन उस छोटे से प्रेम-पत्र के पीछे की बड़ी कहानी क्या थी, यह किसी को नहीं मालूम। क्या था उन दो प्रेमियों का संघर्ष? ‘चाँदपुर की चंदा’ क्या उस मंटू और पिंकी की रोमांटिक प्रेम-कहानी भर है? नहीं, यह उपन्यास बस एक खूबसूरत, मर्मस्पर्शी वायरल प्रेम-कहानी भर नहीं है, बल्कि यह हमारे समय और हमारे समाज के कई कड़वे सवालों से टकराते हुए, हमारी ग्रामीण संस्कृति की विलुप्त होती वो झाँकी है, जो पन्ने-दर-पन्ने एक ऐसे महावृत्तांत का रूप धारण कर लेती है जिसमें हम डूबते चले जाते हैं और हँसते, गाते, रोते और मुस्कुराते हुए महसूस करते हैं। यह कहानी न सिर्फ़ हमारे अपने गाँव, गली और मोहल्ले की है, बल्कि यह कहानी हमारे समय और समाज की सबसे जरूरी कहानी भी है।
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Author
Atul Kumar Rai
Size
2.97 MB
Pages
149
Language
Hindi

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Description

जनवरी 2006 घड़ी सुबह के सात बजा रही है। घने कोहरे में सिमटकर बलिया रेलवे स्टेशन सफेद पड़ गया है। दो दिन से दिल्ली-मुंबई जाने वाली गाड़ियाँ दस-दस घंटे की देरी से चल रही हैं। इस कारण बहुत सारे यात्री परेशान हैं, तो कुछ यात्री अभी भी प्लेटफॉर्म की तरफ टकटकी लगाए देख रहे हैं। कहीं कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। चारों तरफ गलन से भरा एक ठंडा सन्नाटा है, जो वक्त के साथ फैलता ही जा रहा है।
इधर प्लेटफॉर्म नंबर दो से आती ‘ए चाय गरम, गरम चाय’ की आवाज इस सन्नाटे को चीर रही है। तब तक पूछताछ केंद्र पर हलचल होने लगी। दो-चार यात्री उठ खड़े हुए। उनको देखकर बाकी लोग भी खड़े होने लगे। अचानक सूचना प्रसारण यंत्र में किसी ने जोर की फूँक मारी- ‘यात्रीगण कृपया ध्यान दें, जयनगर से चलकर नई दिल्ली को जाने वाली स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नंबर दो पर आ रही है।’
ये सुनते ही चारों ओर हल्ला शुरू हो गया। गाड़ी का इंतजार करके थक चुके सारे यात्री अपने-अपने स्वेटर, मफलर, अटैची, बक्सा, गठरी, झोला, कंबल, ठीक करने लगे। देखते-ही-देखते कोहरे को चीरकर धुआँ उड़ाती, सीटी बजाती स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नंबर दो पर खड़ी हो गई।
गाड़ी खड़े होते ही जनरल बोगी से लड़खड़ाते हुए पाँच अधेड़नुमा युवक उतर रहे हैं। पाँचों की उम्र पच्चीस से तीस के बीच है। सबके हाथों में झोले और पैरों में गोल्डस्टार के जूते हैं। मुँह से गुटखा टपक रहा है और आँखों तक लटकती जुल्फों से रूसी झड़कर जैकेट पर गिर रही है। पाँचों को गौर से देखने पर यकीन हो जाता है कि इस देश में सिर्फ ठंड ही नहीं बल्कि बेरोजगारी और महँगाई भी काफी बढ़ गई है और सरकार को सबसे पहले ‘युवा कल्याण मंत्रालय’ और ‘मद्य निषेध मंत्रालय’ को एक में मिला देना चाहिए, क्योंकि जिस दिन ठीक से ‘मद्य निषेध’ हो गया, उस दिन ‘युवा कल्याण’ अपने आप हो जाएगा।
थोड़ी देर में पाँचों लड़के आँख मलते हुए स्टेशन के बाहर आ गए। बाहर आते ही आपस में विचार-विमर्श होने लगा। सबसे होशियार दिखने वाले एक लड़के ने गुटखा थूककर कहा, “बोंधू, आमादेर स्टेशनटा पेच्छोने छूटे गेचे…”
“चुप करो दादा… वहाँ गारी का स्टॉपेज ही नहीं था तो कैसे उतर जाते? यहाँ से हम लोगों को रिजरब ऑटो पकरके चलना परेगा।”
ऑटो का नाम सुनते ही पाँचों ने झोला उठाकर ऑटो स्टैंड की तरफ कूच किया। इधर सुबह से सूने पड़े ऑटो स्टैंड पर भारी भीड़ उमड़ पड़ी थी। ट्रेन से उतरे सारे यात्री ऑटो में बैठकर हवाई जहाज की स्पीड से जल्दी-जल्दी घर जाना चाहते थे। इस कारण ऑटो स्टैंड का माहौल मछली बाजार बन गया था। लेकिन इस बाजार से दूर एक दारू की दुकान के सामने खड़े होकर दो ऑटो वाले बड़े ही निर्विकार भाव से खैनी बना रहे थे। पाँचों लड़कों को देखते ही उनके हाथ रुक गए, भौंहें तन गईं और मुँह से निकला…
“रे बित्तन!”
“का रे?”
“ई सब आर्केस्ट्रा वाले हैं का भाई?”
“लग तो इहे रहा है भाई। ई सरवा लगन शुरू होते ही मेहरारू-लइका लेकर बंगाल से बलिया चले आते हैं। फिर पूरे लगन उनको रूपश्री, प्रधान आर्केस्ट्रा में नचवाते हैं और अपने सामियाना में सुतकर लइका खेलाते हैं।”
“बक्क बोक्का! ई सब मालदा जिला वाले मजदूर हैं। बलिया-छपरा रेल लाइन पर काम चल रहा है, देखे नहीं हो का? जाकर पूछो तो…”
ऑटो वाला आगे बढ़कर पूछने लगा, “कहाँ जाना है दादा?
“कहीं नहीं जाना।”
“बाँसडीह कचहरी, मनियर?”
“ना।”
“नरही, भरौली, बक्सर?”
“ना दादा।”
“खेजुरी, खड़सरा, सिकंदरपुर?”
“ना।”
“तब गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, देवरिया, गोरखपुर, सिवान, छपरा बक्सर, आरा, भभुआ, मोहनिया, रोहतास?”
“नहीं भाई, बस करो!”
“तब कहीं तो जाएँगे कि रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का डिब्बा गिनने आए थे?”
“एक मिनट रुको… पढ़ो जी का लिखा है!”
पाँचों में सबसे पढ़ाकू दिख रहा एक लड़का कागज निकालकर पढ़ने लगा, “चाँदपुर!”
“वाह!”
चाँदपुर का नाम सुनते ही ऑटो वाले का सूखा चेहरा चाँद जैसा खिल गया। उसकी आँखें इन पाँचों दिव्य मूर्तियों का गहन निरीक्षण करने लगीं, मन में शंख बजने लगे, चित्त में सुगंधित अगरबत्तियाँ जलने लगीं और दिल से आवाज आने लगी, “जय हो भिरगू बाबा! सुबह-सुबह क्या आइटम भेजा है आपने।” लेकिन मौके की नजाकत को समझकर उसने उत्तेजना भरी आवाज को अपनी जेब में छिपाकर पूछा, “आप लोगों को मैनेजर साहब के यहाँ जाना है क्या दादा?”
एक ऑटो वाले के मुँह से मैनेजर साहब का नाम सुनते ही पाँचों लड़के अवाक होकर एक-दूसरे को देखने लगे। किसी ने कुछ नहीं कहा। सब सुन्न पड़ गए। ऑटो वाला मामले की गोपनीयता को झट से समझ गया। उसने दाँत चियारते हुए कहा, “कोई बात नहीं, हम सब समझते हैं। वैसे जब चाँदपुर ही जाना था तो बलिया स्टेशन नहीं आना चाहिए था। सहतवार रेलवे स्टेशन पर उतर जाते, वहाँ से घोड़ा गाड़ी पर सवार होते और सीधे चाँदपुर चले जाते।”
“वो सब छोड़ो… तुम बताओ, तुमको चाँदपुर चलना है कि नहीं?”
“काहे नहीं चलना है, आप आदेश तो करिए।”
“कितना लोगे?”
“कितना देंगे?”

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