नील माधव
हम ओड़िशा के जगन्नाथपुरी में पहुंचे। मानसी और मैं तीन दिन पहले ट्रेन से यहां के सफर के लिए निकले थे। मानसी के पास खजाने का एक सुराग बताने वाला पुराना अजीब सा कलश था, जिसमें कई आकृतियां बनी हुई थी। इस कलश को लेकर मेरी जिज्ञासा तब से है जब से हम दोनों शेषनाग धारा को ट्रेस करने निकले थे।
कलश के अनुसार हमारा पहला पढ़ाव जगन्नाथपुरी था। यहां पर हमें क्या मिलने वाला था या क्या ढूंढ़ना था, कुछ पता नहीं था। हमें इतना जरूर अंदाजा था कि यह कलश मंदिर को दर्शाता है। ऐसा ही एक कलश भगवान जगन्नाथ के मंदिर में भी लगा था।
जगन्नाथ के मंदिर में मुख्य पुजारी से मिलने के बाद हमें कुछ पुरानी मान्यताओं के विषय में भी जानकारी मिली। अब हमें पूरा विश्वास हो गया था कि हो ना हो ये नक्सा जैसी जानकारी जो इस कलश में बनी है, जरूर नील माधव के दिव्य स्वरूप के छुपे हुए स्थान के विषय में कुछ बताती हो।
मानसी वैष्णव थी इसलिए उसे अब नील माधव के उस जागृत स्वरूप या कहें तो दिव्य मूर्ति को ढूंढना ही था, और उसके दर्शन करने ही थे। जगन्नाथ मंदिर में रखे जगन्नाथ की मूर्ति भी नील माधव के स्वरूप में ही निर्मित है एवं हर नवकलेवर में बदली जाती है।
परम्परानुसार नवकलेवर का कार्य तब किया जाता है जब आषाढ़ मास अधिकमास होता है। यह प्रायः ८ वर्ष बाद, ११ वर्ष बाद या १९ वर्ष बाद आता है। ये मूर्तियाँ एक विशेष प्रकार की नीम की लकड़ी से बनायीं जाती हैं जिसे ‘दारु ब्रह्म’ कहते हैं।
जगन्नाथ की नव निर्मित मूर्ति में अंधेरी रात को एक छोटा सा चमकने वाला पिंड स्थापित किया जाता है जो कि पुरानी मूर्ति से निकाला जाता है। इस कार्य को पुजारी आंखों में पट्टी बांध कर करते हैं। इस कार्य को करते समय जगन्नाथपुरी के सभी लोग अपने घरों की बत्ती बुझा देते हैं। कोई नहीं जानता वह पिंड क्या है। कई लोग उसे भगवान श्रीकृष्ण का दिल कहते हैं जो कि उनके शरीर के दह के बाद भी बचा रह गया।
मानसी को यह सब कथा पुजारी से सुनने में बहुत मजा आ रहा था। मैंने उसे याद दिलाया कि हमें अपने खजाने की तलाश में निकलना है। हमें वहां से यह पता लगा था कि नील माधव के उस दिव्य मूर्ति की पूजा सुंदरवन में मौजूद एक कबीले का सरदार करता था। केवल वही जानता था कि नील माधव कहां हैं। लेकिन नील माधव के कहीं चले जाने के बाद वहां का कबीला भी उजड़ गया।
सुंदरवन से हम लिंगराज मंदिर गए। इस मंदिर में एक बड़ा सा ताला अंग्रेजों के जमाने से लटक रहा था। उस मंदिर के बाहर एक चबूतरे में हम दोनों साथ बैठे थे और एक दूसरे को अच्छे से जानने की कोशिश कर रहे थे। हमारी मुलाकात शेषनाग धारा के कारण हुई थी एवं हम दोनों ने बस कुछ ही बातें शेयर की थी।
मानसी ने कहा वह एक मॉडल बनना चाहती थी लेकिन उसके पापा जो कि भारत सरकार के रक्षा सलाहकार थे, उनकी वजह से एजेंट बनना पड़ा। शेषनाग धारा की फाइल क्लोज होने के बाद वह मेरे साथ इस सफर पर निकली थी।
हम बातें ही कर रहे थे कि तभी किसी ने हमें पीछे से इसोइटाइन का गैस सुंघा कर बेहोश कर दिया। जब हमारी आंखें खुली तो हम दोनों ने खुद को एक छोटे कमरे में बंधा पाया। बहुत प्रयास करने के बाद हमनें खुद को रस्सी से आजाद कर लिया। हमारा सब सामान और पैसे सब वैसे के वैसे ही थे, बस वह कलश ही गायब था। उस जगह पर एक खंभा का अवशेष भी रखा था जिसमें उस कलश से मिलते जुलते कुछ निशान भी थे। मानसी ने उसके कुछ फोटो खींच कर वहां से निकलने को कहा।
हम उन निशानों को फॉलो करते हुए एक पुराने मंदिर में पहुंचे वहां पर हमें एक तहखाना मिला, जो कि मंदिर के पीछे पहाड़ी में था। उस तहखाने में ओड़िशा के राजा भुवनेश्वर के खजाने का कुछ हिस्सा रखा था।
सरकार ने हमें उस खजाने में से दस प्रतिशत की पेशकश की लेकिन हमने मनाह कर दिया। हम दोनों एक होटल में उसके परिवार वालों के साथ खाना खाने गए थे। वहां पर उसके पापा ने उसकी शादी की घोषणा अपने दोस्त के बेटे से की। मानसी बहुत ही खुश दिख रही थी, उसने और उसके परिवार वालों ने मुझे भी उसकी शादी में शामिल होने के लिए कहा। मैंने हामी भरी और किसी जरूरी काम का बहाना बना कर वहां से निकल आया। वो रात अपुन दो बजे तक पीया।
सुबह जब मेरी आंख खुली तब मेरे सामने एक चिट्ठी रखी थी। होटल वालों से पूछने पर उन्होंने कुछ पता होने से इंकार कर दिया। उस चिट्ठी में मुझे उसी मंदिर के पास बुलाया गया था जिसके पास हमें खजाना मिला था। पिछली बार मैं उस मंदिर में रखे मूर्ति के दर्शन नहीं कर पाया था, सोचा इस बार कर लुंगा।
मैं उस जगह खड़ा था। एक दो पुजारी वहां घूम रहे थे। सीढ़ियों के पास एक छोटा सा कुंड बना था। उस कुंड में चट्टान से पानी रिस कर आ रहा था। मेरे पीछे कोई खड़ा था, पीछे मुड़ने पर वहां एक साधु था। उसने अपने झोले से कुछ निकाल कर मुझे दिया। वह वही कलश था जो चोरी हो गया था। मैं कुछ कह पाता इससे पहले उस साधु ने मुझे सीढ़ी चढ़कर ऊपर मंदिर तक जाने के लिए कहा।
मैं उस कलश को लेकर ऊपर मंदिर में पहुंचा। वहां पर सात देवियां थीं। जिनमें से मैं केवल बीच वाली देवी को पहचानता था। वे देवियां एक एक कर कुछ बोलने लगीं। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था और मैं थोड़ा घबराया हुआ भी था। कुछ देर बाद मैंने एक अनजान जगह में खुद को खड़ा पाया। ये एक बड़ा गुफा था, जिसके अंदर पानी का एक बड़ा कुंड था। यह कुंड ठीक उसी कुंड की आकृति का था जो कि उस मंदिर के बाहर बना था। मैं उस कुंड के किनारे चलते हुए गुफा के दूसरे छोर कि ओर जाने लगा। दूसरे छोर से निकलने के पहले मैंने उस कलश में उस कुंड का पानी भर लिया था।
बाहर पहुंचने पर मैंने समुद्र को देखा। मैं जिस बड़े चट्टान में खड़ा था उसके नीचे खाई में समुद्र का जल स्तर बहुत ज्यादा था। मैं अचानक उस खाई में गिरने लगा। समुद्र की गहराई तक पहुंच कर मैंने महसूस किया कि मैं वहां पर बिना किसी कठिनाई के सांस ले सकता हूं। मैंने आंखें खोली तो सामने मुझे एक और छोटी सी गुफा दिखने लगी। अब मुझे फिर से उन्ही देवियों की आवाजें सुनाई देने लगीं। लेकिन इस बार मुझे सब साफ साफ समझ में आ रहा था।
मैं उस गुफा में घुस गया। उस गुफा के अंदर बहुत बड़ा जगह था। वहां पर मुझे मां समलेश्वरी की बहुत बड़ी दिव्य मूर्ति दिखी। मुझे गुफा के बाहर मिले उन निर्देशों के अनुसार मैंने उस कलश के जल से मां का अभिषेक किया। मां की दिव्य मूर्ति बहुत चमकने लगी और मैं वहां से सीधे उसी मंदिर पर पहुंच गया जहां से यहां आया था।
वहां पहुंचकर मैंने उसी साधु से बात की। उसने मुझे बताया इस सब का नाता शेषनाग धारा से है। हर बारह हजार साल में एक बार शेषनाग द्वारा प्रभु शिव को धरती पर कुछ समय के लिए शेषनाग कुंड में लाया जाता है। प्रभु शिव के दिव्य शिवलिंग से पवित्रता और दिव्यता प्राप्त उस कुंड का पानी एक दूसरे कुंड तक पहुंचता है और वहीं कहीं पर मौजूद मां की दिव्य मूर्ति को उसी जल से अभिषेक करवाने से इस ब्रह्मांड को चलने की शक्ति प्राप्त होती है। उस जगह और मां के दर्शन केवल उसी व्यक्ति को हो सकते हैं जिसका जन्म मां के कुल में हुआ हो, और वह व्यक्ति तुम हो।
मैं सब समझ गया, क्यों मुझे शेषनाग धारा के रहस्य को जानने के लिए हम्पी के उस कुंड के नीचे बने रास्ते के बारे में बताया गया और क्यों उस खजाने को ढूंढने के लिए ऐसी व्यवस्था की गई ताकि मानसी इस सब से दूर रहे, क्योंकि मानसी मेरे साथ रहती तो मैं उस जगह नहीं जा सकता था।
मुझे मानसी से दूर होने का थोड़ा दुःख तो हुआ लेकिन मैं इस कार्य को कर के भी खुश था। मैं इतने बड़े सफर में पहले अकेले निकला था, फिर मेरी मुलाकात मानसी से हुई और अब मैं फिर से अकेले था। मैंने उस मंदिर पर पूजा की, कुछ देर वहीं रुक गया और फिर मानसी की शादी में शामिल होने निकल पड़ा।
समाप्त
लेखक – नवीन धनवर