फ़रवरी का महीना था, ईसवी 2012। सान्निध्य और हम अक्सर मुखर्जीनगर आकर मिलते थे। पुलिस बीट ऑफ़िस के सामने वाली पार्किंग स्पेस में तमाम तैयारी करने वाले, तैयार होने वाले और तैयार होते-होते बाल गँवाने वाले सारे लड़के यहीं मिलते थे। चाय मिल जाती थी और दिल्ली में दुर्लभ खुला आकाश।
दिल्ली में एक और चीज़ दुर्लभ है- दोस्ती। हम दोनों की दोस्ती बस जम गई थी जब से हम अपने कॉमन फ्रेंड आलोक ‘नेता जी जेएनयू वाले’ के ज़रिये मिले थे। किताबें, लड़कियाँ, क्रिकेट, संगीत और बढ़िया वार्तालाप हमारी बत्रा के प्रांगण की बौद्धिक परिचर्चाओं का हिस्सा हुआ करते थे। फ़रवरी के अंतिम दिनों की एक मुलाक़ात में सान्निध्य ने कहा कि फ़ेसबुक पर एक पेज बनाया है। पेज का नाम था ‘बकर अड्डा’। हम उसके दूसरे एडमिन बने और यह तय हुआ कि ‘बकरेश’ नाम से पोस्ट्स डाली जाएँगी। नाम न बताने का यह कारण था कि लोग नाम में लिंग, जाति, धर्म, राज्य, देश आदि खोजने लगते हैं। बहुत कम लोग हमारा नाम जानते थे और जिन्हें पता था उन्हें हिदायत थी कि कभी भी पेज पर नाम उजागर ना करें। और ऐसा ही हुआ। एक ही नाम का एक कारण और था कि हमारी लिखने की शैली इतनी मिलती थी कि कभी कभी कन्फ़्यूज़ हो जाते थे कि फ़लाँ पोस्ट किसने लिखी है!
हम भले ही बकरेश हों, पेज का नाम भले ही ‘बकर’ शब्द लिए हो पर उद्देश्य बहुत ही गंभीर था- देवनागरी में लोकरंजक साहित्य और अभिव्यक्ति के लिए एक जगह, जहाँ फूहड़ता निषिद्ध होगी।
हम फ़िल्में देखते हैं, गाने सुनते हैं, किताबें पढ़ते हैं और स्कूलों, कॉलेजों के वाद-विवाद प्रतियोगिता का हिस्सा बनते हैं लेकिन इन सबसे अलग-थलग हमारी बातचीत होती है…..
बकर पुराण | Bakar Puran PDF
बकर पुराण 'उन सभी कुंवारे लोगों की जीवनी है जो दिल्ली जैसे शहरों के लिए अपने घर छोड़कर शहर का हिस्सा बन जाते हैं। इस पुस्तक के पन्नों में हर स्नातक की कहानियां हैं जो प्यार में पड़ गए, बेवकूफी भरी बातें कीं और पड़ोस की चाय की दुकान पर भारत की विदेश नीति पर चर्चा की। 'बकर पुराण' उन कुंवारे लोगों का अतीत, वर्तमान और भविष्य है जो हमेशा एक जैसे रहेंगे । भाषा और शैली में स्नातक पैड का यथार्थवाद है। यहाँ, अभिव्यक्ति में अभिजात्यवाद की कोई माला नहीं है। जो भी है, वह सिर्फ है।