जुहू चौपाटी | Juhu Chowpatty Hindi PDF

दुनिया से अलग होने की क़ीमत चुकानी ही पड़ती है। ऐसी ही एक क़ीमत मीरा ने भी चुकाई। मीरा अपने सपनों की तलाश में शिमला से दिल्ली आती है, जहाँ से उसका अभिनेत्री बनने का सफ़र शुरू होता है, जो उसे मुंबई तक ले जाता है। उसे नाम, शोहरत, पैसा, प्यार सब मिलता है। अचानक उसके साथ एक हादसा हो जाता है, जो उसकी पूरी ज़िंदगी बदल देता है। एक दिन वह ख़ुद को अपने ही अपार्टमेंट में मरा हुआ पाती है। उसे ख़ुद को इस तरह देखकर विश्वास ही नहीं होता। उसका दिमाग़ भी काम करना बंद कर देता है। उसे यह भी याद नहीं आता कि यह कैसे हुआ, क्यों हुआ, किसने किया। ‘जुहू चौपाटी’ साधना जैन की पहली किताब है। इन्होंने अपने लिखने की शुरुआत दिव्य प्रकाश दुबे के राइटर्स रूम से की, जहाँ इन्होंने जल्द ही रिलीज हो रही एक 'Audible Series' के लिए तीन कहानियाँ भी लिखी हैं। बचपन से ही इन्हें पढ़ने का शौक था, लेकिन जब आर्थराइटिस नामक रोग ने कम उम्र में ही इनकी ज़िंदगी में अपना स्थाई घर बना लिया तो पढ़ना इनकी ज़रूरत बन गया। किताबों में इन्होंने अपने अकेलेपन को खोकर एकांत को खोजा, जिसने इन्हें मानसिक रूप से सबल बनाए रखा। इनका मानना है कि किताबों को पढ़ा जाना चाहिए, भाषा चाहे कोई भी हो। लेकिन, अगर आपको एक से ज़्यादा भाषाओं का ज्ञान है तो हर भाषा में पढ़ना चाहिए, क्योंकि हर भाषा के पास आपसे बाँटने के लिए कुछ-न-कुछ ख़ास होता है। इनकी पढ़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय से हुई है। अब इनका सारा समय सिर्फ़ कहानियों की दुनिया में खोए हुए बीतता है।.
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4.2/5 Votes: 522
Author
Sadhna Jain
Size
2.75 MB
Pages
128
Language
Hindi

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Description

दुनिया से तो भागा जा सकता है, ख़ुद से नहीं। शाम के 4:30 बजे के आसपास की बात है। एक लड़की बांद्रा स्थित अपने अपार्टमेंट से सफ़ेद रंग की नाइटी पहने हुए निकली और बिना रुके बस बेतहाशा-सी भागी जा रही है। जिस दिशा में वह जा रही है वह रास्ता जुहू चौपाटी की तरफ़ जाता है। लड़की की हालत देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई बहुत ही भयानक-सी चीज़ उसने देख ली हो, जिससे वह बहुत दूर चली जाना चाहती हो।
दूर कहीं टीवी पर…
अभी-अभी ख़बर आ रही है कि मशहूर अभिनेत्री मीरा अपने ही घर में मृत पाई गई हैं। उनकी मौत की वजह क्या है, यह अभी ठीक से कुछ कहा नहीं जा सकता। यह ख़बर सचमुच चौंका देने वाली है। ग़ौरतलब है कि उनकी उम्र अभी सिर्फ़ चालीस साल थी…

डूबती शाम
कई बार हम ऐसा कुछ कर जाते हैं जिसे करने के बाद हमें ख़ुद हैरानी होती है। कुछ ऐसा जो हम कब का करना छोड़ चुके होते हैं या वह हमने अपनी ज़िंदगी में कभी किया ही नहीं होता। फिर अचानक ऐसा कुछ घट जाता है जिसके बाद हम वह काम इस तरह से कर जाते हैं, मानो ये प्यास लगने पर पानी पीने जैसी आम बात हो। मैं भी यहाँ आना सालों पहले छोड़ चुकी थी। लेकिन मैं आज यहाँ ऐसे आ गई जैसे आदमी हर शाम थका-हारा लौटकर घर जाता है। मैंने कभी यहाँ दोबारा आने का सोचा नहीं था। मुंबई का ये जुहू चौपाटी और इससे लगता ये गहरा विशाल समुद्र। आज सिर्फ़ यही एक हादसा मेरे साथ नहीं हुआ। आज डूबता हुआ सूरज भी मुझे बहुत अपना-सा लग रहा है। और ये भी मेरे लिए किसी हादसे से कम नहीं। पहले मैं जब भी इसे देखती थी एक अजीब-सा ख़ालीपन मेरे मन में उतर जाता था। अजीब इसलिए कि यह ऐसा ख़ालीपन नहीं था जो किसी के न होने पर महसूस होता है। या जो हमारी किसी बहुत प्यारी चीज़ के टूट जाने पर या जो अपने घर से बहुत दिनों तक दूर रहने पर हमारे अंदर घर कर लेता है। ये ऐसा ख़ालीपन था जो तब महसूस होता है जब हमें लगता है कि हमारी ज़िंदगी में सब सही है। हम ख़ुश हैं। लेकिन आज इसे देखकर कोई ख़ालीपन नहीं, कोई उदासी नहीं और न ही कोई सवाल है मन में। आज जैसे हम दोनों ही समझ रहे हैं कि हमारा मिलना पहले से ही तय था। अक्सर सबसे ज़्यादा सुकून हमें वहीं मिलता है जहाँ से हम बहुत दूर भाग जाना चाहते हैं।
इससे दूर रहने की एक और वजह थी। मुझे कोई भी जाती हुई चीज़ अच्छी नहीं लगती थी। किसी को भी जाते हुए देखकर मेरा मन बहुत उदास हो जाता है। साथ ही एक अजीब-सी बेचैनी भी होने लगती है, क्योंकि जब भी मैं किसी को जाते हुए देखती हूँ तो मेरे मन में यही ख़याल आता कि कहीं ये हमारी आख़िरी मुलाक़ात तो नहीं? अगली मुलाक़ात से पहले मुझे कुछ हो गया तो? या फिर उसे कुछ हो गया तो? या फिर कहीं कुछ ऐसा घट गया जिसकी वजह से हम एक-दूसरे से मिलना ही न चाहें तो? या फिर हमारी अगली मुलाक़ात तक इतना वक़्त बीत चुका हो कि हम इतना बदल जाएँ कि दोबारा से शुरू करना मुमकिन ही न हो तो?

हम हर पल में नये होते रहते हैं। हमारी सोच, हमारे विचार, हमारी भावनाएँ, हमारी पसंद सब वक़्त के साथ बदल जाते हैं। और ये बदलाव पलक झपकते ही नहीं हो जाता। ये प्रक्रिया हर सेकंड चालू रहती है जिसका हमें पता भी नहीं चलता। और एक दिन हम पाते हैं हम वह रहे ही नहीं जो कल थे। इस बात का पता हमें तब चलता है जब हम अपने बीते हुए कल से टकराते हैं और वह कल हमें अजनबी-सा लगने लगता है। जैसे हम उससे आज पहली बार मिल रहे हों। हमारा वर्तमान हमारे अतीत का अपग्रेड वर्ज़न ही तो है। हम चाहें भी तो अपने ओल्डसेल्फ़ में वापस नहीं जा सकते। जिस तरह मुँह से निकले हुए हमारे शब्द पराए हो जाते हैं, उसी तरह हमारा जिया हुआ कल हमारे आज से अजनबी होता जाता है। ये सब मैंने कहीं पढ़ा था। अब याद नहीं कहाँ पढ़ा था। इस बात को मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं मानती क्योंकि इसे मैंने कहीं पढ़ा था। इस बात का अनुभव मैंने अपनी अब तक कुल-मिलाकर गुज़ारी चालीस साल की ज़िंदगी में कई बार किया है। मेरी ज़िंदगी को छोड़कर अब तक बहुत से लोग जा चुके हैं। इसलिए मैंने लोगों को अपनी आदत ही बनाना छोड़ दिया था ताकि वो जाएँ भी तो मैं उनकी यादों में क़ैद होकर ख़ुद को न खो दूँ।
मैं किताबें बहुत पढ़ती हूँ। लेकिन मेरी कोई पसंदीदा किताब नहीं है। वैसे पसंदीदा तो मेरा कुछ भी नहीं है। मेरा ये मानना है कि जैसे ही हमें कोई या कुछ बहुत पसंद आने लगता है उसके साथ हम अनजाने ही एक अनाम-सा रिश्ता बना लेते हैं। रिश्ते चाहे जैसे भी हों, वह हमें बाँधते ही हैं। रिश्ता बनते ही हमें उस कोई या कुछ के खोने का डर सताने लगता है। ये डर हमें चैन से जीने भी नहीं देता। हमारे जीने की आज़ादी उस डर में क़ैद होकर रह जाती है। फिर धीरे-धीरे हमें उस आज़ादी की इच्छा से भी डर लगने लगता है, क्योंकि हमें अपनी पसंद से जुड़े रहने की इतनी आदत हो जाती है कि उससे अलग हम अपनी ज़िंदगी को सोच भी नहीं पाते हैं। दुनिया ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। शायद रिश्ते बचे भी ऐसे ही लोगों की वजह से है। इन्हीं लोगों की वजह से शायद अब तक दुनिया में प्यार, दोस्ती, और परिवार जैसे शब्द अपना वजूद बनाए हुए हैं। वह अलग बात है उनके मायने उन्होंने अपने हिसाब से एडजस्ट कर लिए है। मेरे लिए किसी भी भावना को नाम देने का मतलब है उन्हें ख़ुद को नियंत्रण करने की पावर थाली में सजाकर दे देना। मुझे तो अपनी आज़ादी बहुत पसंद है।

मैं भी क्या सोचते-सोचते क्या ही सोचने लगी? कैसे हम कुछ सोचते-सोचते कुछ और ही सोचने लगते हैं? इसीलिए शायद अँग्रेज़ी में इस तरह के सोचने को Train of Thoughts कहा जाता है। मुझे सोचना पसंद है, ठीक वैसे ही जैसे मुझे सफ़र में रहना पसंद है। सोचना भी तो एक सफ़र जैसा ही होता है। इस सफ़र में जाने कितनी नयी सोच हमारी हमसफ़र बनती हैं, फिर उस सफ़र में ही बिछड़ भी जाती हैं और हम फिर से अपने सफ़र पर चल पड़ते हैं।
आज समुद्र कितना शांत है! बिलकुल मेरे मन के विपरीत। एक लहर भी नहीं जो किनारे के साथ छेड़खानी कर रही हो। किनारा भी कैसे बुझा-बुझा नज़र आ रहा है। हालाँकि यहाँ बहुत से लोग हैं, लेकिन किनारे को तो जैसे सिर्फ़ लहरों का ही इंतज़ार है। किनारे को भी तो लहर की आदत-सी हो गई होगी। इसीलिए मैं ख़ुद को किसी भी आदत की आदी नहीं होने देती। एक भी दिन आदत के अनुसार न गुज़रे तो मन भी बुझ जाता है। और बुझी हुई चीज़ें सिर्फ़ अँधेरा करती हैं।
मेरे यहाँ न आने की वजह मेरी इस जगह से या समुद्र से कोई नाराज़गी नहीं थी। बल्कि पूरे शहर में यही एक जगह थी जो मुझे मेरे परिवार-सा सुख देती थी। ऐसा इसलिए नहीं होता था क्योंकि यहाँ समुद्र है। मेरे लिए ये किसी भी दूसरी जगह की तरह ही है। इसके बारे में जाने कितने लेखकों ने अपनी कहानियों में, शायरों ने अपनी शायरी में और फ़िल्मकारों ने अपनी फ़िल्मों में कितना कुछ कहा है। उन्होंने इंसान की भावनाओं को इसके साथ इस तरह जोड़ा है कि वह अपनी भावनाओं को इससे अलग देख ही नहीं पाता। मैं ये नहीं कहती उन्होंने जो कुछ लिखा या दिखाया सब झूठ है। होता होगा हल्का मन यहाँ आकर रोने से। लगती होंगी छोटी परेशानियाँ इसे देखकर। लगता होगा रूमानी यहाँ हाथ में हाथ डालकर टहलने से या लहरों के साथ खेलते हुए एक-दूसरे को छूने में। लेकिन क्या ये हम सही में महसूस करते हैं? या सिर्फ़ हमें ऐसा लगता है कि हमें ऐसा महसूस हो रहा है, क्योंकि हमने किसी फ़लानी किताब में पढ़ा था या किसी फ़लानी फ़िल्म में देखा था। या जैसे आजकल हर चीज़ रेडीमेड मिलती है वैसे ही ये सोच भी हम रेडीमेड ले आए हैं जिसे ख़ासकर हमारे लिए ही तैयार किया जाता है, ताकि हम ख़ुद कुछ सोच ही न पाएँ। और ये सिर्फ़ समुद्र के बारे में ही नहीं है। दुनिया की दुनियादारी आजकल चल ही ऐसी रही है। वह हर चीज़ हमारे आगे रेडीमेड तैयार कर देते हैं ताकि हम ख़ुद सोचना बंद कर दें और धीरे-धीरे उनकी सोच के ग़ुलाम होते जाएँ और वह हम पर राज कर सकें।
न ही मुझे समुद्र से कोई बैर है न ही मुझे लोगों के यहाँ आकर बैठने, सुस्ताने या टहलने से कोई दिक़्क़त। बस लोग कहीं भी जाए पर अपनी ही कोई वजह ढूँढ़कर जाए ताकि उन्हें उस जगह से वह मिल सके जिस वजह से वह उस जगह जाना चाहते थे।
मैं यहाँ इसलिए आती थी क्योंकि ये जगह मुझे मेरे बचपन के घर जैसा महसूस करवाती थी। वैसे तो मैं शिमला की गोद में पली-बढ़ी हूँ। पर एक बार मैं अपने माँ-बाबा और दादी के साथ मुंबई घूमने आई थी। हमने एक पूरा दिन इस जुहू चौपाटी पर हँसते-खेलते साथ गुज़ारा था। वह आख़िरी बार था जब हम चारों एक साथ ख़ुश थे। मैं जब भी इस शहर में ख़ुद को अकेला पाती थी यहाँ आ जाती। यहाँ आकर मैं कुछ देर के लिए सब कुछ भूल जाती। मुझे याद रहती तो बस वह याद जब इस जगह पर हम चारों साथ थे। हमारी वह याद भी तो इस जगह की याद्दाश्त का एक हिस्सा होगी? शायद ऐसा हिस्सा जिसे इसने यहीं अपनी इस रेत में, यहाँ चलने वाली हवा में, समुद्र के पानी में इस तरह घोला कि वह भी रेत, हवा, पानी हो गया। जितना चैन मुझे यहाँ आकर मिलता उतनी ही मेरी बेचैनी भी बढ़ने लगती थी। क्योंकि इस जगह के हाथों मैं अपने चैन और सुकून को महसूस करने की आज़ादी हार चुकी थी। यह जगह मेरे ख़ुश रहने के अधिकार को नियंत्रित करने लगी थी, जिसे सोचकर मेरा दिल टूटता था। मेरे साथ कुछ भी अच्छा या बुरा होता, मेरा मन यहाँ आने को करता। इसीलिए मैंने यहाँ आना ही बंद कर दिया था।
लेकिन हमेशा वैसा होता ही कहाँ है जैसा हम सोचते हैं! अक्सर जो हम चाहते हैं और जो होना चाहिए और जो होता है वह कभी एक-सा नहीं होता। जितना दूर हम किसी चीज़ से जाते हैं उतने ही नज़दीक हम उस चीज़ के होते हैं।

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