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अंकिता जैन की लघु कहानियों का संग्रह
“कौन थी? तेरी क्या लगती थी? कहाँ की थी? कोई फोटो? कोई पहचान? कहाँ जा सकती
है? कबसे ग़ायब है?” सवाल पूछने के बाद थानेदार ने अपनी निगाहें मुझ पर टिका दी हैं
और मैंने अपनी चप्पलों पर। किसी की सवालिया नज़रों से बचने का इससे सरल उपाय मुझे
आज तक नहीं सूझा।
“अरे टाइम खोटी मत कर लड़के, नाम बता उसका,” जब थानेदार ने फटकारते हुए
कहा, तो मेरा दिमाग़ याददाश्त की वो परतें खरोंचने लगा जिनके नीचे दबा है मालिन भौजी
का असली नाम, जो मैंने सिर्फ एक बार पूछा था, वो भी किराएदार बनने के शुरुआती दिनों
में। घर से कुछ सामान मँगाना था। पते के ‘केयर ऑफ़’ में उसका नाम लिखने के लिए जब
मैंने पूछा, तो हमेशा हाथ में रहने वाले मीठी सुपारी के पैकेट से एक दाना मुँह में डालते हुए,
अपनी आँखें तरेरते हुए वो बोली थी, “नाम तो हमारा बैजंती है, दिखने में भी हम बैजंती
माला से कम नहीं, लेकिन शादी के बाद से हमने भी हमारा नाम नहीं सुना… पति माली था
हमारा, चौक वाले मंदिर में… क़िस्मत उसे तो ले गई, बस हमें ये नाम दे गई- मालिन भौजी…
तुम अपनी चिट्ठी पे भी यही लिखवा दो, डाकिया बैजंती के नाम से तुम्हारी चिट्ठी वापस न ले
जाए.. यहाँ कोई हमें बैजंती के नाम से नहीं जानता।” अपनी बात ख़त्म करके जब वो
ठिलठिलाकर हँसी थी, तो मैं समझ नहीं पाया था कि डाकिए की नासमझी पर हँस रही थी,
अपनी क़िस्मत पर या इस छोटे-से शहर के उन लोगों पर जिन्होंने बैजंती को नहीं सिर्फ़
मालिन भौजी को जाना। आज के ज़माने में ये भौजी शब्द जुबान को थोड़ा अजीब लगता है,
इसलिए मैंने शुरुआत में उसे भाभी पुकारा, फिर धीरे-धीरे सबके साथ मैं भी भौजी पर आ
गया। उसे भी भौजी ही अच्छा लगता है। वह कहती है, “भाभी पराया लगता है।” वैसे
मोहल्ले की औरतों के बीच वह फॉल-पीकू वाली के नाम से भी जानी जाती है। अपने इन…
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