Description of अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार / Anupama Ganguly Ka Chautha Pyar Book PDF Download
Name : | अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार / Anupama Ganguly Ka Chautha Pyar Book PDF Download |
Author : | |
Size : | 1.2 MB |
Pages : | 80 |
Category : | Stories |
Language : | Hindi |
Download Link: | Working |
कुल नौ कहानियों का यह संग्रह अपने आप में स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिल सच्चाइयों को समेटे हुए है। ये फँतासियों और नाटकीयता से बहुत दूर अवसाद और कुंठाओं की सहज कहानियाँ हैं। यहाँ आपको पारंपरिक वर्जनाओं और उनसे उपजे अंतर्द्वंद से जूझते ऐसे बहुत से किरदार मिलेंगे जिन पर बंधनों को तोड़ देने का फ़ितूर है और उन्हें तोड़ देने का मलाल भी। ये सभी कहानियाँ एक-दूसरे से बिल्कुल जुदा हैं। कहानियों की भाषा सरस और प्रवाहमयी है। कहानीकारा ने बेबाक विषयों को बेहद शालीनता से बुना है। एकदम नए शिल्प और शैली की ये कहानियाँ अनायास ही पाठक के भीतर गहरे उतर जाती हैं। इन कहानियों का सबसे प्रबल पक्ष यह है कि सभी कहानियों में कहीं-न-कहीं आप ख़ुद से रू-ब-रू होंगे और कमज़ोरी यह कि ये कहानियाँ आपको बेचैन और बहुत बेचैन कर सकती हैं।
Summary of book अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार / Anupama Ganguly Ka Chautha Pyar Book PDF Download
किसी भी किताब में ये दो-ढाई पन्ने संभवतः सबसे नीरस और निरर्थक पन्ने होते हैं। अमूमन लोग इन्हें फाँदकर या एक सरसरी निगाह डालकर आगे बढ़ जाते हैं। बहुत बार मैं ख़ुद यही करती हूँ कि पढ़ने जैसा यहाँ कुछ नहीं। किंतु आज ये दो-ढाई पन्ने लिखते वक़्त मैं समझ पा रही हूँ कि किसी लेखक के लिए इन पन्नों को लिखने का सुख क्या है।
कहानियों की दुनिया में अभी तलक मेरा कोई ठौर नहीं । सालों पहले हिंदी अकादमी के सौजन्य से कविताओं की एक किताब ‘ तपती रेत पर प्रकाशित हुई । जिसकी कुल पच्चीस प्रतियाँ मेरे हिस्से आईं। जिन्हें मित्रों, सहपाठियों, अध्यापकों और कुछ क़रीबी रिश्तेदारों में बाँटकर मैं तृप्त हो गई। वे सुनहरे दिन थे। पढ़ने-लिखने के दिन। उन दिनों कुछ कहानियाँ लिखीं। वे बेढब कहानियाँ जीवन की बेहतरीन कहानियाँ थीं। कच्चे मन के उन शिकस्ता मगर ईमानदार क़िस्सों को स्थानीय अख़बारों के हवाले कर मैंने मार दिया। उन अख़बारों की कतरनें कहाँ गईं, इसकी भी अब ख़बर नहीं। शायद उनके मर जाने के बाद मुझे उनसे प्यार न रहा। कुछ दिन पत्रकारिता में ज़ोर-आज़माइश के बाद एक दशक से भी मदीद समय तक कुछ करने का मन न बना। लिखने की तलब ही न हुई। वह समय जिनके हिस्से का था, उन्हें पूरी तरह सौंप दिया। जब मैंने दोबारा लिखना शुरू किया तो पाया कि मैं इसके अलावा कुछ नहीं कर सकती थी।
हिंद-युग्म को ये कहानियाँ थमाते समय किताब का शीर्षक मेरे लिए एक बड़ा सवाल था।
प्रियजनों ने कहा यह कैसा नाम है! यह नाम न रखो। ‘चौथा’ शब्द प्यार की शुचिता को निगल
रहा है। बार-बार हो जाना प्यार का दस्तूर नहीं। मगर मैंने ख़ूब सोचा और पाया कि बार-बार हो
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