Bimalda : Gulzaar ki kahaniya
उसे लोग जोग स्नान का दिन कहते हैं। इलाहाबाद में, त्रिवेणी के संगम पर, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। कहा जाता है कि उस दिन, उस संगम पर कोई स्नान करे तो उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, सारे पाप कट जाते हैं, और उस शख़्स की उम्र सौ साल की हो जाती है।
मैंने बिमलदा से पूछा “क्या आप मानते हैं?”
बिमलदा मुस्करा दिए “विश्वास की बात है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है।”
एस्ट्रोनॉमी के मुताबिक ये दिन हर बारह साल के बाद आता है, जब सूरज के गिर्द घूमते हुए नौ के नौ ग्रह एक लाइन में आ जाते हैं, और इस दिन सूरज उदय होता है तो उसकी पहली किरण इस संगम पर पड़ती है। उस दिन के लिए यहां कुंभ का मेला लगता है। जिसकी तैयारी महीनों पहले से शुरू हो जाती है, क्योंकि यहाँ आने वाले यात्रियों की गिनती करोड़ों में पहुँच जाती है। इलाहाबाद से लेकर प्रयाग शहर तक कंधे से कंधा छिलता है, आसपास के बीसों गाँव में पाँव रखने को जगह नहीं मिलती। इसे पूर्ण कुंभ का मेला भी कहते हैं। मेला तो बहुत दिन रहता है आख़िरी नौ दिन ख़ास गिने जाते हैं, जिसमें नौंवा दिन जोग-स्नान का दिन होता है।
1952 की बात है, इस मेले में एक स्टैम्पेड का हादसा हो गया था, जिसमें क़रीब एक लाख लोग मारे गये थे। आज तक उस हादसे की सही वजह मालूम नहीं हो सकी। बहुत सी इन्क्वायरी कमेटियों ने बहुत सी वजह दऱियाफ़्त कीं। कुछ लोगों का कहना है कि नागा साधुओं के हाथी बिगड़ गये थे जिससे लोगों में भगदड़ शुरू हो गई। उस भगदड़ से, होमगार्ड्स और मिलिट्री के बनाए हुए लकड़ी के कच्चे पुल गिर पड़े। लोग बदहवासी की हालत में भागे, दौड़े, गिरे, कुचले गये। हज़ार कश्तियाँ गंगा में उलट गईं, कुंभ मेले की तारीख में इसमें बड़ा सानिहा कभी नहीं गुज़रा।
समरीश बसु ने इस हादसे के पस मंज़र में एक नॉवेल लिखा था, “अमृत कुंभ की खोज” और बिमल राय, जिन्हें सब बिमलदा कहके बुलाते थे, उस नॉवेल पर फ़िल्म बना रहे थे।
मैं बिमलदा के साथ असिस्टेंट था। कभी-कभी उनकी फ़िल्म में कोई गाना भी लिख लेता था और पहली बार उनके साथ इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिख रहा था। बिमलदा को शायद किसी ऐसे राइटर की ज़रूरत थी, जो किसी भी वक़्त उनकी फुरसत के मुताबिक़, उनके साथ बैठ सके, डिस्कस कर सके, और मनाज़र दर्ज़ कर सके। दूसरी वजह शायद यह थी कि मैं बंगाली और हिन्दी दोनों ज़बानें जानता था। नॉवेल बंगला में था और स्क्रिप्ट हिन्दी में लिख़ी जा रही थी। अपने फुरसत के औकात में वो मुसलसल उस नॉवेल पर काम करते रहते थे। नॉवेल के हाशियों पर इतने हवाले और नोट्स दर्ज थे कि उनकी किताब देखकर लगता था, नॉवेल की सतरों में एक और नॉवेल लिखा हुआ है। जगह-जगह काग़ज़ों पर लिखे हुए नोट्स भी किताब के सफ़्फहों पर ‘पिन’ से मुन्सिलक किये हुए थे। एक तो वैसे ही काफ़ी ज़खीम नॉवेल था, इस पर इन ठूंसे हुए काग़जों से लगता था कि किताब का पेट उभर गया है नॉवेल, एक और नॉवेल से हामला है। जिल्द उखड़ी पड़ रही थी। हर किरदार की तफ़सील, कुछ यूँ हिफ़्ज़ थी बिमलदा को लगता था कि “कुंभ” उनकी रगों में बह रहा है। किसी ने उनके सिस्टम में उंडेल दिया हो।
“ये नॉवेल आपने कब पढ़ा,” मैंने एक बार पूछा था।
1955 ई. में। जब पहली बार किस्तवार शाया होना शुरू हुआ था।”
“कहाँ?”
कहाँ?”
कलकत्ता का अख़बार था आनन्द बाज़ार। समरीश उन दिनों उन्हीं के अदारे में काम करता था।”
“आप जानते थे समरीश को?”
हूँ-बिमलदा बहुत इहर-ठहर के बात करते थे, और उनकी ‘हूँ’ तो कमाल की थी। एक ‘हूँ’ हज़ार मतलब। इस बार मैंने समझा वह बहुत आगे नहीं बढ़ना चाहते। आदतनं बहुत कम बोलते थे। लेकिन सिगरेट के दो एक कश लेने के बाद, खुद ही बात को जारी रखा।
“Originally ”। समरीश ने नॉवेल अपने नाम से नहीं छापा था। एक फर्ज़ी नाम से था ‘काल कोट’।
हूँ-मैंने कुछ इन्तज़ार किया।
वो फिर बोले “दस पन्द्रह किस्तों के बाद नॉवेल में वक्फा आ गया था। मैं कुछ बेचैन हो गया, मैंने आनंद बाज़ार को ख़त लिखा तो समरीश का जवाब आया। तब पता चला कि….” इस बार वे खांसते-खांसते कुर्सी से उठे और सिगरेट फेंकने बालकनी तक चले गये।
नॉवेल में प्लॉट नहीं था, लेकिन उसके किरदार बड़े जिन्दा थे और ख़ास तौर पर वह राइटर जिसकी नज़र से वो कहानी कही गई थी। उसकी डायरी के हिस्से बिमलदा बार-बार मुझसे पढ़वाया करते थे। नॉवेल के आग़ाज़ में लोगों से खचाखच भरी हुई एक ट्रेन “प्रयाग” स्टेशन से निकल कर इलाहाबाद की तरफ रवाना होती है। बस कुछ मिनटों का सफ़र बाक़ी है। लोग जोश में आकर भजन गाना शुरू कर देते हैं। ट्रेन की छत पर बैठे हुए लोग छत पीट-पीटकर नारे लगाने लगते हैं। ट्रेन रेंगते-रेंगते इलाहाबाद के प्लेटफार्म में दाख़िल होती है और मुसाफ़िरों की भीड़ इस तरह बाहर निकलने के लिए बढ़ती है जैसे किसी ब्लैक होल से निकल रही हो। इस भीड़ में तपेदिक का एक मरीज़ बलराम, जो अपना रोग छुडाने, सौ साल की उम्र मांगने, जोग स्नान के लिए जा रहा था, लोगों के पैरों तले कुचला गया, मर गया।
बिमलदा को एतराज़ था “ये मौत समरीश ने बहुत जल्दी करा दी।”
बड़े एहतराम से मैंने राय दी, “दादा, ये अकेली मौत, कहीं नॉवेल के अंजाम की तरफ इशारा करती है और तवाज़न भी देती है।”
“हूँ-लेकिन फिल्म के लिए ज़रा सा जल्दी है। ख़ैर बाद में देंखेंगे तुम आगे चलो, तुम आगे चलो।”
आगे चलते-चलते इस स्क्रिप्ट को तीन साल और लगे। यह 1962 की बात थी। इस दौरान बिमलदा ने दो फ़िल्में और बनाईं। “बन्दनी” और “काबुली वाला” लेकिन अमृत कुंभ पर काम चलता रहा। छोटे-छोटे कुछ हिस्से फ़िल्माए भी जो खुसूसन ‘आउट डोर’ के हिस्से थे, मेले के वो हिस्से, जो मसनूई तौर पर तख़लीक़ नहीं किए जा सकते थे हम उनकी शूटिंग दूसरे मेलों में जाकर करने लगे। इलाहबाद में संगम पर एक और मेला लगता है। हर साल माघ का मेला 1962 की सर्दियों में हम उसे फ़िल्माने की तैयारियाँ करने लगे, क्योंकि उसके दो साल बाद ही फिर पूर्ण कुंभ का मेला आने वाला था।
माघ मेले की तैयारियां करते-करते ही बिमलदा की तबियत कुछ डांवाडोल होने लगी। कुछ रोज़ बुख़ार में भी ऑफ़िस आते रहे। ऑफ़िस में बैठे ब़गैर उन्हें चैन नहीं आता था। बिमलदा के लिए कहा जाता था कि वे फ़िल्म से ब्याहे गये हैं। उनके तकियों में फ़िल्म की रीलें भर दो तो बड़े चैन की नींद सोयेंगे।
फिर कुछ रोज़ दफ्तर नहीं आये तो हमें तशवीस हुई। मैं उनके घर पहुँचा मेरे साथ हमारे सीनियर कैमरामैन भी थे कमल बोस। बिमलदा बाहर बरामदे में बैठे थे। सामने चाय रखी थी और चैस्टरफील्ड सिगरेट का पैकेट। हमेशा की तरह सिगरेट उंगलियों के सुलग रहा था।
हमने तबियत पूछी तो जवाब दिया “मैं इलाहाबाद नहीं जा सकूंगा। तुम लोग जाओ। मेले में शॉट्स ले आओ और उसके बाद एक घंटे तक हमें शॉट बताते रहे, शॉट्स के ज़ाविये समझाते रहे। “कुंभ” की स्क्रिप्ट तक़रीबन ज़बानी याद थी उन्हें। की तफ़सील के बीच में सिगरेट के कश लेते थे। खांसते थे। और चाय के घूंट सुड़कते रहे।
कमलदा ने एक बार बंगाली में कहा भी कि आप सिगरेट मत पीजिए या कम कर दीजिए लेकिन हर बार “हूं” कह के स्क्रिप्ट की बात करने लगते।
इलाहबाद जाते-जाते घटक बाबू से पता चला कि बिमलदा को कैंसर हो गया है।
“बिमलदा जानते हैं?”
“नहीं।”
गले की पता नहीं कौन सी ट्यूब या पाइप बताई घटक बाबू ने। कमलदा ने कहा “लेकिन उसके लिए तो सिगरेट बहुत मुज़िर है।”
“हाँ, लेकिन बिमल मानता नहीं। उसे क्या समझाऊँ? कह दू कि तुझे कैंसर है। तू कल मर जायेगा। वो बहुत डरपोक है। सुधीश घटक हमारे मैनेजर भी थे, और बिमलदा के न्यू थिएटर्स के ज़माने के दोस्त भी।
इलाहबाद में शूटिंग करते हुए एक अजीब बेदिली का एहसास हुआ। काम ठीक हो रहा था, लेकिन अनमना सा। हमेशा की तरह जोश नहीं था। कमलदा अभी चुप थे। मैं भी। कोई बात थी जो हम कहना चाहते थे, लेकिन बोल नहीं रहे थे। दिमाग़ के पीछे बिमलदा के कैंसर का ख़ौफ छाया हुआ था और जे़हन की किसी एक सतह पर ये बात नक़्श हो रही थी कि ये शूटिंग बेकार है। ये फ़िल्म नहीं बन सकेगी। बिमलदा अब ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह सकेंगे लेकिन ये बात मुंह से कहना मुश्किल था।
कमलदा ने एक शाम शूटिंग से वापस आकर पूछा “ये फिल्म क्यों बना रहे हैं बिमलदा,”
“मैंने पूछा था एक बार।
“तो? क्या कहा?”
मैंने उस सिटिंग (नाशिस्त) की बात सुनाई जब बिमलदा ने क़हा था— “वो जो राइटर है ना, जिसकी नज़र से ये कहानी कही गई है, जो अमृत की खोज में गया है, मुझे लगता था, वो मैं हूँ। वो जिस तरह अमृत की तलाश में गया है, जिससे आदमी की उम्र सौ साल की हो जाती है।” वो सिगरेट के धुएँ में खांसे, चहेरा लाल सुर्ख़ हो गया, फिर जब दम वापस आया तो बोले “मुझे भी इस अमृत की तलाश है।”
कुछ समझते हुए, कुछ न समझते हुए मैंने पूछा था “क्या सचमुच सौ साल की उम्र चाहते हैं आप?”
“हूँ”
उस रोज़ बात वहीं ख़त्म हो गई थी। अगले एक मौक़े पर कहने लगे “सौ साल से मतलब गिनती के सौ साल नहीं होते। इसका मतलब है आदमी अमर हो जाता है, इस अमृत से।”
“वो कौन सा अमृत है?” बहुत देर, बहुत दूर देखा बिमलदा ने।
अब सोचता हूँ तो लगता है वो शायद जानते थे उन्हें कैंसर है। बोले “तहज़ीब। संस्कृति! मैं इस ज़मीन की तहज़ीब का हिस्सा बन जाना चाहता हूँ ताकि….” कहना चाहते थे, ताकि ज़िन्दा रहूँ लाफ़ानी हो जाऊं, पर कहा नहीं।
बम्बई वापस आये तो बिमलदा की बीमारी बढ़ गई थी। और वह अंथक फ़िल्मकार, एक और फ़िल्म शुरू करने का प्रोग्राम बना चुका था, जिसका नाम उस वक्त “सहारा” सोचा गया था।
“और अमृत कुंभ?” मैंने पूछा।
वो तो बनती रहेगी। 1964 में बारह साल पूरे होंगे “पूर्ण कुंभ” का मेला फिर लगेगा। उसके बाद वह फ़िल्म मुकम्मिल करेंगे।
1964 में अभी देर थी। और ऐसा लग रहा था बिमलदा के पास ज्यादा वक़्त नहीं है। ‘सहारा’ शुरू हुई। तीन चार रोज़ की शूटिंग हुई और एक दिन सेट छोड़कर गए बिमलदा तो फिर कभी स्टूडियो नहीं लौटे। अचानक कैंसर के बढ़ने में तेज़ी आ गई, और उनके सिगरेट़ छूट गए। वो जान गए उन्हें क्या बीमारी है। कुछ अस्पतालों में टेस्ट हुए फिर इलाज के लिए लंदन ले जाये गए, लेकिन बहुत जल्दी मायूस होकर वापस आ गए।
“मैं अपने घर पे मरना चाहता हूँ।” उन्होंने किसी से कहा था। इस सख़्त जानी और जद्दो-जहद में साल से कुछ ज़्यादा वक़्त निकल गया। दफ़्तर अंक्सर बंद रहने लगा। यूनिट ने एक फ़िल्म शुरू भी की। “दो दूनी चार” के नाम से लेकिन बस यूँ ही-उखड़ी, उखड़ी सी। एक अजब सा माहौल था। सब जानते थे, किसी भी वक्त बिमलदा कीं मौत की ख़बर आ जाएगी। ये ख़ौफ भी था और इन्तज़ार भी। एक अजीब बेबसी का एहसास था।
एक़ रोज़ बिमलदा ने मुझे बुलाया और पूछा “तुम अमृत कुंभ की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हो या नहीं?”
मेरी समझ में नहीं आया मैं क्या कहूँ? उनकी तरफ देखता तो रोना आ जाता। जिस्मानी तौर पर बिमलदा छटाँक जितने रह गए थे। सोफ़े के एक कोने में कुशन जैसे रखे हुए। उठाओ तो हथेली में आ जाये।
नाराज़ हो गए— “तुमसे कहा था। बलराम की मौत बहुत जल्दी है। वह मंज़र वहाँ से हटाके मेले में ले आओ। जब नौ दिन की पूजा शुरू होगी तो पहले दिन उसकी मौत होती है।”
मैं चुप रहा, वो फिर बोले “कल से रोज़ शाम को हम स्क्रिप्ट पर बैठेंगे। इस साल ‘पूर्ण कुंभ’ का मेला है “दिसम्बर में शुरू होगा—”
मैंने कहा जी हाँ, 31 दिसम्बर से नौ दिन की पूजा शुरू होगी। जोग स्नान का दिन 8 जनवरी 1965 को होगा—”
“हूँ— “कह के चुप हो गए।
मंजर की तबदीली के बाद मैं अगले रोज़ फिर पहुँचा। स्क्रिप्ट अब तक बिमलदा को हिफ्ज् थी। अपनी किताब मंगवाई। जिल्द अब उखड़ चुकी थी। सफाहात फटे जा रहे थे। कुछ और मनाज़िर का तज़किरा हुआ और फिर वही बलराम—
“बलराम की मौत और आगे ले जाओ। ये भी जल्दी है—”
मैंने बहस भी की तो सिर्फ उनका दिल रखने के लिए।
“असल में राइटर और श्यामा के बिछड़ने के बाद ये मौत करा दो। पूजा के पांचवे दिन। और जब मेले में शूटिंग करेंगे तो याद रखना कि….”
स्क्रिप्ट फाइनल करने के साथ-साथ बिमलदा शूटिंग की तैयारियां भी करते जाते थे। घटक बाबू को बहुत सी हिदायत दी जाती थी और वो बड़ी फ़रमाबरदारी से दर्ज़ भी करते रहते थे।
दो-तीन रोज़ के बाद बलराम की मौत फिर तबदील हुई। स्क्रिप्ट की इब्तेदा से हट के अब वो स्क्रिप्ट के आखिरी सीक्वेन्स तक पहुँच गई थी लेकिन बिमलदा को किसी तरह तसल्ली न हुई, दो तीन महीने के मुबाहसे में बलराम कभी दो दिन पहले गुज़र जाता कभी चार पांच दिन की और सांस मिल जाती उसे। लेकिन धीरे-धीरे ये मौत आगे खिसक रही थी। अचानक एक रोज़ मैं गया तो बहुत खुश होकर बोले अब सही जगह मिली उस सीन की। जोग स्नान का दिन सुबह पौ फटते ही, जब सूरज की पहली किरण संगम पर पड़ती है, तब….” जोश में वह थोड़ा सा खांसे उनका सारा जिस्म खड़खड़ा गया “तब, तब बलराम की मौत होती है। ये पहली मौत क्लाइमेक्स के स्टेम्पेड को तवाज़न देगी। बलराम जोग स्नान के दिन मरेगा।”
मैंने भी हामी भरी, घटक बाबू ने भी। बिमलदा बहुत जोश में लगे “सुधीश एक सिगरेट दो।”
क्यूं, क्या हुआ अचानक?”
वो बंगाली में बात कर रहे थे “अरे देना।”
“नहीं नहीं सिगरेट नहीं मिलेगा।”
क्यूं? उससे क्या होगा?”
“कहा ना मना है। डॉक्टर ने मना किया है।”
बिमलदा की धँसी हुई आँखों में दफन आँसू, न बाहर निकल सके, न अन्दर गए। वहीं पड़े कांपते रहे। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं बहाना करके उठ आया। और फिर नहीं गया। मुझसे उनकी हालत अब बर्दाश्त नहीं होती थी। मेरी हालत भी सबकी सी हो गई थी। एक ख़ौफ़। एक इन्तज़ार।
1964 तेज़ी से खत्म हो रहा था। और बिमलदा भी। उनका बिस्तर से उठना-बैठना बन्द हो गया था। घटक बाबू आख़िर तक उनके साथ रहे। रात भर उसी कमरे में सोते थे, एक दराज़ आराम कुर्सी में।
जिस रात गुज़रे घटक बाबू ने बताया— “मैं खांसी की आवाज सुनकर उठ गया देखा तो बिमल अपने बिस्तर पर बैठे सिगरेट पी रहा था। मैंने पूछा ये क्या कर रहा है? तो साफ़ जवाब दिया ‘सिगरेट पी रहा हूँ’ मैंने उठने की कोशिश नहीं की वहीं से मना किया तो बोला “क्या होगा। जब न पीने से कुछ नहीं हुआ तो पीने से क्या हो जाएगा?” उसे फिर खांसी आई दम रुक गया। फिर सांस आई। मैंने फिर कहा बिमल बस कर, फेंक दे, मत पी।
क्यूं कोई पहला दिन है? मैं तो कई दिन से पी रहा हूँ। आज तेरी आँख खुल गई तो धौंस दिखा रहा है? “बिमल ने आराम से सिगरेट पी और सो गया। हमेशा के लिए फिर नहीं उठा।”
मुझे सुबह ख़बर मिली तो जैसे इतने दिनों से सर पर ख़ौफ की लटकी हुई तलवार हट गई और सांस आते ही आँसू निकल पड़े। वो तारीख़ 1965 की 8 जनवरी की, और वो दिन था “जोग स्नान का दिन।”
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