परिणय कहानी : मालती जोशी | Parinaya : Malti Joshi ki Lokpriya Kahaniyan [Online+PDF]

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Author
Malti Joshi

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Description

लौटते हुए मेरी आँखों में सीमा का कमनीय सौंदर्य तैरता रहा। घर से चलते हुए निश्चय करके चली थी कि अगर लड़की जीतू के योग्य न हुई तो साफ मना कर दूँगी। भारी-भरकम दहेज के लालच में लड़के की जिंदगी बरबाद न होने दूँगी। पता नहीं क्यों, मन में एक बात बैठ गई थी कि इतने बड़े लोग रिश्ता लेकर आए हैं तो लड़की जरूर ऐसी-वैसी होगी। पर सीमा को देखा तो देखती रह गई। खिलता चंपई रंग, तीखे नैन-नक्श, घनी केशराशि, सुडौल देहयष्टि—मीन-मेख निकालने की जरा भी तो गुंजाइश नहीं थी। लगता था, जैसे मेरी कल्पना में रची-बसी पुत्रवधू ही साक्षात् उतर आई है।
आनंद की तरंगों पर झूलते हुए मैंने कनखियों से अपने लाडले की ओर देखा, वह दत्तचित्त होकर गाड़ी चला रहा था। उसका मन कहीं रहा हो, पर नजरें इस समय सड़क पर केंद्रित थीं। और ठीक भी तो है, एम.जी. रोड पर शाम के समय गाड़ी चलाना किसी नट के खेल से कम थोड़े ही है!
घर पहुँचते ही मैं उसे कुरेदना चाहती थी, पर उसने मौका ही नहीं दिया। हमें उतारकर सीधा डिस्पेंसरी चला गया। झुँझलाई सी मैं कुछ देर गुमसुम बैठी रही। फिर मैंने उसके पापा को ही जा पकड़ा।
‘‘कहिए, लड़की पसंद आई?’’
‘‘मुझसे क्या पूछती हो, अपने लड़के से पूछो।’’
‘‘आप अपनी तो कहिए?’’
‘‘भई, लड़की तो ए-वन है। उसके बारे में तो दो राय हो ही नहीं सकती। बाकी अब उन्हें रिश्ता जँच जाए तब है।’’
‘‘अरे, वाह! रिश्ता न जँचा होता तो क्या वे दस बार हमारे दरवाजे पर आते। कोई हम तो लड़की माँगने गए नहीं थे।’’ मैंने तैश में कहा।
‘‘सो तो ठीक है, भई…’’ और वे चुप हो गए। समझ गई कि रामदासजी के वैभव की चकाचौंध से वे अब तक उबर नहीं पाए हैं। झूठ क्यों बोलूँ! विस्मित तो मैं भी हुई थी। जो सोचा था, उससे कुछ ज्यादा ही पाया था। और जो था, उसका प्रदर्शन करने की भी उन्होंने भरपूर कोशिश की थी। विशाल कोठी, बाहर पंक्तिबद्ध खड़ी तीन-तीन गाड़ियाँ, जिनके सामने हमारी मॉरिस एकदम छकड़ा लग रही थी। कीमती सूटों में सजे हुए उनके तीनों लड़के, गहनों-कपड़ों से लदी तीनों बहुएँ, दामी कालीन, महँगा फर्नीचर, वर्दीधारी नौकर, शाही नाश्ता—हर चीज में प्रदर्शन था। हर बात में प्रभावित करने की कोशिश थी।
चलने से पहले वह हमें अपना खूबसूरत लॉन और कलात्मक बगीचा दिखाते हुए काफी दूर तक ले गए। और फिर सहजभाव से एक खाली प्लॉट की ओर इशारा करते हुए उन्होंने बताया कि यह उन्होंने लड़की के लिए रख छोड़ा है। लड़कों को उन्होंने शहर के संभ्रांत इलाकों में एक-एक बँगला बनवा दिया है। क्योंकि वह जानते हैं कि देर-सवेर सबको अलग होना ही है। लेकिन लड़की को वे अपनी आँखों के सामने ही रखना चाहते हैं। इसलिए प्लॉट यहीं ले लिया है।
उन्होंने बहुत ही सहजभाव से यह सब बताया था, पर उनका उद्देश्य छिपा न रहा। उनकी संपन्नता पर, ऐश्वर्य पर विस्मय-विमुग्ध होते हुए भी मेरे भीतर बैठी अभिमानिनी माँ मुझे बार-बार जतला रही थी—‘देख, तेरे बेटे के लिए कितने बड़े घर का रिश्ता आया है।’
और तब बेटे की योग्यता के सम्मुख सारा वैभव हेय लगने लगा था।
‘‘एक बात सोच लो।’’ जीतू के पापा कह रहे थे, ‘‘यह शादी हो गई तो जीतू अपने पास नहीं रह पाएगा। वहीं बँगला बनाकर रहना पड़ेगा।’’
‘‘कोई जरूरी है!’’ मैंने तुनककर कहा, ‘‘क्या उसके घर-द्वार नहीं है, जो ससुराल में बसने जाएगा? और मेरे ही क्या दस-पाँच लड़के हैं, जो उसे भेज दूँगी?’’
‘‘फिर वह प्लॉट?’’
‘‘पड़ा रहेगा।’’ मैंने लापरवाही से कहा, ‘‘न होगा तो एक नर्सिंग होम डाल लेंगे।’’
‘‘नर्सिंग होम्स कम हैं इंदौर में!’’
‘‘बच्चों के लिए तो कोई नहीं है। अपन तो बच्चों का ही बना लेंगे, जिसमें उसने स्पेशलाइज किया है।’’
और बातों-ही-बातों में मैंने एक तिमंजिले नर्सिंग होम की रूपरेखा बना डाली। नीचे आउट-डोर और ऑपरेशन थिएटर, बीच वाली मंजिल पर जनरल वार्ड्स—और सबसे ऊपर स्पेशल कमरे। सामने खुली सी बालकनी। पूरा नक्शा मेरे मन में तैयार था। इंजीनियर होती तो कागज पर उतारकर ही दम लेती। स्तावित नर्सिंग होम के लिए कोई अच्छा सा नाम सोच ही रही थी कि गाड़ी का परिचित हॉर्न सुनाई दिया।
‘‘अपने लाडले से पूछ तो लो पहले,’’ ये बोले, ‘‘सपने बाद में बुनती रहना।’’
अपने बचपने पर झेंपती सी मैं खाना लगाने उठ गई।

खाने के समय मैं बराबर उसके चेहरे को देखकर टोह लेती रही, पर उसने जरा भी हवा न लगने दी। आखिरकार मुझसे न रहा गया। इनके उठते ही मैंने पूछ लिया, ‘‘क्यों रे, लड़की कैसी लगी?’’
‘‘बिना देखे मैं कैसे बता सकता हूँ?’’
‘‘क्या मतलब? फिर सारी शाम तू क्या करता रहा?’’
‘‘उनकी मेहमाननवाजी का लुफ्त उठाता रहा, उनकी लंबी-चौड़ी बातों से बोर होता रहा। ममा, सारी चमक-दमक देखकर यही लगता रहा कि बेकार एम.डी. किया मैंने। बस पापा एक एजेंसी ले देते तो…’’
‘‘बकवास बंद कर! पहले लड़की के बारे में बता।’’
‘‘ममा, कहा तो मैंने कि उसे ठीक से देखा ही नहीं। अव्वल तो वह इतनी देर बाद कमरे में नमूदार हुई और फिर नब्बे डिग्री का कोण बनाकर बैठ गई। न तो एक बार भी उसने ऊपर देखा, न मुँह से एक शब्द निकाला। मेरे खयाल में वह या तो भैंगी है या गूँगी है।’’
‘‘चुप भी कर, जब देखो उल्टी-सीधी बातें करेगा। लड़कियाँ क्या ऊँट की तरह मुँह उठाए सामने आती हैं?’’
‘‘तो फिर देखने के लिए बुलाने का तात्पर्य क्या है?’’ उसने जिद की।
‘‘यह हिंदुस्तान है, बेटे!’’ इन्होंने एकाएक भीतर आते हुए कहा। शायद इतनी देर तक कान लगाए हमारी नोक-झोंक सुन रहे थे। बोले, ‘‘यह हिंदुस्तान है, बेटे! भले घरों की लड़कियाँ यहाँ ऐसा ही व्यवहार करती हैं।’’
‘‘मैं भी हिंदुस्तानी हूँ पापा! दो साल अमेरिका में रहने से कोई अमेरिकन नहीं हो जाता।’’
‘‘पर बात तो ऐसी कर रहा है, जैसे वहीं पर पैदा हुआ हो।’’ इनका स्वर कुछ सख्त हो आया था। जीतू ने प्रत्युत्तर नहीं दिया, चुपचाप हाथ धोने चला गया और हाथ धोकर सीधा अपने कमरे में। शायद इस विषय पर वह अधिक बहस बढ़ाने का इच्छुक नहीं था। देखने-दिखाने की प्रथा से वह हमेशा से ही चिढ़ा हुआ था। जया की शादी के समय भी उसने दो-चार बार हमारा विरोध किया था। पर वधू पक्ष की दुहाई देकर हमने उसका मुँह बंद कर दिया था। पर अपने लिए तो इस तरह के नाटक करने से उसने साफ मना कर दिया था। कहता, ‘‘ममा, जिस दिन कोई लड़की मुझे भा जाएगी, मैं तुम्हारे सामने लाकर खड़ी कर दूँगा। तुम चिंता मत करो।’’
पर उसकी यह बात ही तो हम लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंता का कारण थी। आजकल की लड़कियों का ठिकाना थोड़े ही है। हर क्षेत्र में तो उनकी घुसपैठ है। पता नहीं कौन, कब टकरा जाए। डॉक्टर के लिए तो यह खतरा कुछ ज्यादा ही है, जिसमें जीतू जैसा सुदर्शन व्यक्तित्व तो हर कहीं प्रशंसक बटोर लेता है। इसलिए हम लोग बहुत व्यग्र थे।
जीतू के डॉक्टर होते ही रिश्ते आने शुरू हो गए थे। पर अमेरिका से लौटने के बाद तो जैसे बाढ़ सी आ गई थी। क्योंकि जीतू डॉक्टर था, इकलौता था, फॉरेन-रिटर्न्ड था। गली में सही, पर अपना दो मंजिला मकान था। पुरानी सही, पर घर में एक गाड़ी थी। पिता की अच्छी-खासी प्रैक्टिस थी। बिरादरी में ऐसे सर्वगुण-संपन्न लड़के ही कितने थे! खाता-पीता घर और डॉक्टरी पास वर लोगों के मुँह में पानी न आता तो आश्चर्य था। तभी तो रामदासजी जैसे प्रमुख व्यवसायी ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दी थी।

बड़ी मुश्किल से जीतू साथ जाने के लिए राजी हुआ था। कह रहा था, ‘पहले तुम देख आओ।’ पर लड़की वालों को बार-बार परेशान करना हमें अच्छा नहीं लगा। जया के वक्त के कुछ कड़वे-मीठे अनुभव मन में अभी ताजे ही थे, इसीलिए हम सब साथ ही वहाँ पहुँचे।
रामदासजी ने इतनी आवभगत की, उनके परिवार ने इतना प्रेम टपकाया कि बार-बार यही डर बना रहा कि लड़की अगर अच्छी न हुई तो…तो उन लोगों को किस तरह जवाब देंगे।
वह बहुत देर बाद बाहर आई। उस समय हम लोग कॉफी पी रहे थे। अपनी दोनों भाभियों के बीच चलती हुई वह कमरे में आई थी और एक अस्पष्ट सी नमस्ते के साथ सिर झुकाकर बैठ गई थी। उसकी विनम्रता पर मैं मुग्ध हो गई थी। अंग्रेजी में एम.ए. लड़की और इतनी सुशील। इतने लोगों के बीच उसका यह सहमा-सिमटा रूप एकदम स्वाभाविक लग रहा था। तब यह बात मन में उठी ही नहीं कि इस तरह जीतू तो उसे बिल्कुल नहीं देख पाया होगा। वह भी तो बड़ी शालीन सी मुद्रा में बैठा हुआ था।
सोच-समझकर आखिर एक उपाय मैंने ढूँढ़ ही लिया। जया की सालगिरह के बहाने बहन-भाइयों को एक दिन चाय पर आमंत्रित कर लिया। जया थी अपनी ससुराल में। इसलिए उपहार आदि लेकर मुझे चिंतित होने की जरूरत नहीं थी।
दो दिन तक मैं घर की सफाई में जुटी रही। फर्श धो-पोंछकर चमकाया गया। नई चादर बिछाई गई। सोफे के कुशंस बदले गए। परदे धुलवाए गए और तो और, ड्राइंगरूम के दरवाजे तक नए सिरे से पेंट कर डाले। नया सा एक कालीन लेकर वहाँ डाल दिया। फिर भी जैसे मन की तृप्ति नहीं हो रही थी। हर कोण से मैं वहाँ की सजावट को देखती और हर बार कुछ-न-कुछ सुधार कर देती। ये लोग बीच में टोक न देते तो शायद मेरा यह क्रम मेहमानों के आने तक चलता रहता।
दोनों बाप-बेटे हाथ बाँधकर बैठे हुए थे और मेरी परेशानी का मजा ले रहे थे। जब दो-तीन बार वाल-पीसेज और कलेंर्ड्स बदल चुकी तो उन्होंने कहा, ‘‘मेरा खयाल है, एक बार डिस्टेंपर हो जाता तो ठीक रहता। पाँच बजने में अभी तो बहुत टाइम है। क्यों?’’
इतना गुस्सा आया मुझे। एक तो खुद करेंगे नहीं और…मेरा फूला हुआ चेहरा देखकर ही जीतू मेरे मूड को भाँप गया तो बोला, ‘‘ममा, क्यों बेकार ही परेशान हो रही हो, लाख कोशिश करें हम, यह घर कोठी तो बनने से रहा!’’
‘‘उसे मत रोक, जीतू! अपनी होने वाली बहू को इंप्रेस करने की योजना है उसकी, ऐंड यू नो, फर्स्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन। कोठी न सही, आउट हाउस तो लगेगा न यह घर।’’
‘‘अरे, आउट हाउस भी लग जाए तो गनीमत समझो।’’ मैंने तुनककर कहा, ‘‘जाने किस दरिद्दर जगह में डाल दिया है सारा पैसा। कितना भी करो, रौनक ही नहीं आती।’’
गुस्से में ही सही, मैं अपने मन की बात कह गई थी। इतना लंबा-चौड़ा मकान बनवा तो लिया, पर गली की वजह से उसकी सारी शान पर पानी सा फिर जाता था। रामदासजी के आउट हाउसेज सचमुच इससे अच्छा शो देते थे। उस दिन प्लॉट दिखाने ले गए थे, तब उन्होंने दिखाई थी छोटे-छोटे घरों की वह लंबी कतार। उनकी संस्था के कर्मचारी उनमें रहते थे। खुली जगह में, हरियाली के समुद्र के बीच वे छोटे-छोटे द्वीपों की तरह लग रहे थे।
जीतू ठीक ही कहता है, बेकार मेहनत करने से क्या फायदा! उस वैभव से तो होड़ लेना ही असंभव है।


ठीक पाँच बजे वे लोग आए—छोटी वाली दोनों भाभियाँ, छोटा भाई और वह। मुझे अच्छा लगा। बहुत भीड़ होती तो वही उस दिन वाला किस्सा हो जाता। लगा कि लोग समझदार हैं। सीमा उस दिन की तरह गहनों से लदी नहीं थी। मेकअप भी बहुत हल्का था। इसलिए उसका सौंदर्य आज आँखों में चकाचौंध नहीं भर रहा था, बल्कि ठंडक दे रहा था। नीबू कलर की हल्के जरी के काम वाली शिफॉन उसके रंग के साथ एकाकार हो रही थी और देखने वाले की आँखों को बाँध लेती थी।
मेरी नौकरानी ने तो वहीं निर्णय सुना दिया, ‘‘लाडी घणी सुंदर छे हो। कदे म्हारी नजर नी लागि जाए।’’
वे सभी लगभग समवयस्क ही थे। उन्हें ड्राइंगरूम में छोड़कर मैं रसोई में चली आई और देर तक नाश्ता लगाती रही। नाश्ते की तैयारी भी मैंने कल से शुरू कर दी थी और अपना सारा पाक-कौशल दाँव पर लगा दिया था। उन लोगों ने हर वस्तु के साथ न्याय किया और प्रशंसा के पुल बाँध दिए। छोटी बहू ने दो-एक चीजों की विधि भी पूछी। अच्छा लगा। सीमा जरूर धीरे-धीरे चुग सा रही थी। पर मैंने ध्यान नहीं दिया। अपनी होने वाली ससुराल में कोई चबर-चबर खा सकता है भला!
खाने के बाद मैं महिलाओं को घर दिखाने में लग गई। उन दोनों बहुओं ने हर बात की प्रशंसा की—सजावट की, सामान की, कढ़ाई की, बुनाई की। सबसे अंत में मैं उन लोगों को किचन में ले गई, जो मेरा अभिमान-बिंदु था। सफेद रंग में नहाया हुआ, आधुनिक उपकरणों से सजा हुआ। अलमारी में झिलमिल करते स्टील के बरतन। चमकते पीतल के, हिंडालियम के डिब्बे, जगमग करती क्रॉकरी। मचान पर एक सी झालर से सजी अचार-मुरब्बे की बरनियाँ। जो भी देखता, प्रशंसा करता। इन लोगों ने भी की, पर सीमा यहाँ भी चुप-चुप बनी रही। इस बार मैं उतनी तटस्थ नहीं रह सकी। मन में कुछ चुभा जरूर। मुँह खोलकर तारीफ न करती, पर प्रशंसा की एक नजर तो डाल लेती। आखिर कल को यह गृहस्थी उसकी भी हो सकती है।
उनके जाते ही मैंने पूछा, ‘‘क्यों रे, आज तो ठीक से देख लिया न!’’
‘‘हाँ !’’
‘‘अच्छी है?’’
‘‘हाँ, बशर्ते बोलना जानती हो।’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘मतलब यह है, ममा, कि वह जरूर हकलाती होगी। नहीं तो दो घंटों में क्या एक बार भी मुँह नहीं खोलती।’’
आश्चर्य में भरकर मैं उसे देखती ही रह गई।

‘‘देखो, दो-दो बार तो तुम लोग लड़की देख चुके हो। और तो और, उसे घर भी बुला चुके हो! अब अगर मना कर दें, हम लोग तो क्या शराफत होगी? बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रह जाएँगे हम।’’ इन्होंने सख्ती से कहा।
‘‘और अगर वहीं से इनकार आ जाए तब!’’
‘‘उस ओर से निश्चिंत रहो। उनके मन में जरा भी शंका होती तो वे लड़की को यहाँ नहीं भेजते। मैं तो सोचता हूँ कि वे तो अपनी ओर से सब तय मानकर ही चल रहे हैं।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘याद नहीं, उस दिन जब हम लोगों को प्लॉट वगैरह दिखाने ले गए थे, तब रामदासजी के पुराने पार्टनर की लड़की मिल गई थी। तब उन्होंने जीतू का परिचय देते हुए कहा था, ‘यह तुम्हारे जीजाजी हैं’।’’
‘‘अरे, हाँ!’’ और मुझे एकदम सारी बातें याद आ गईं। उस दिन रामदासजी हमें अपना बगीचा दिखाते हुए दूर तक उस प्लॉट के पास ले गए थे, जो उन्होंने अपनी बिटिया के लिए रख छोड़ा था। हम लोग मुआयना कर ही रहे थे कि पीछे आउट-हाउस की तरफ से एक लड़की साइकिल पर आती दिखाई दी। पास आते ही साइकिल से उतरकर उसने पहले रामदासजी को और फिर हम सबको सलज्ज भाव से प्रणाम किया। लड़की बहुत सुंदर नहीं थी, वेशभूषा भी साधारण ही थी। पर कोठी के चमक-दमक भरे वातावरण के बाद उसका रूप ऐसे लगा जैसे बरसात के बाद धूप निकल आई हो।
‘‘स्कूल जा रही हो, बेटे?’’
‘‘जी।’’
‘‘माँ ठीक हैं?’’
‘‘जी। रात कुछ बुखार हो आया था। अब तो ठीक हैं।’’
‘‘बस, अब तो उन्हें ठीक होना ही है। यह तुम्हारे जीजाजी अमेरिका से डॉक्टरी पढ़कर आए हैं, सो किसके लिए?’’ रामदासजी ने कहा। फिर जीतू की ओर देखकर बोले, ‘‘बेटा जितेंद्र, यह एक ही साली है तुम्हारी, लेकिन दस के बराबर है। बचकर रहना।’’
उसने कनखियों से जीतू को देखा और शरमाकर मुसकरा दी। फिर धीरे से रामदासजी से बोली, ‘‘ताऊजी, मैं चलूँ अब?’’
‘‘हाँ, बेटे। साढ़े दस हो रहे हैं। चलो अब, नहीं तो लेट हो जाओगी।’’ उन्होंने प्यार से पीठ थपथपाकर उसे विदा किया। जाने से पहले उसने एक बार फिर हम सबको नमस्कार किया और साइकिल हाथ में लेकर चल पड़ी। कुछ दूर जाने के बाद ही वह उस पर सवार हुई।
उसकी विनम्रता पर मुग्ध हो गई मैं। पूछ ही लिया, ‘‘कौन है यह? बड़ी प्यारी लड़की है।’’
‘‘मेरे दोस्त की बेटी है। हम दोनों एक ही दफ्तर में काम करते थे। क्लर्की की बँधी-बँधाई आमदनी से तंग आकर दोनों ने साथ-ही-साथ यह बिजनेस शुरू किया था। तब कल्पना भी न थी कि यह इतना अच्छा चल निकलेगा। दुःख यही होता है कि जब अच्छे दिन आने को हुए, वह चल बसा।’’
‘‘अरे, क्या डेथ हो गई?’’
‘‘हाँ। एक स्कूटर एक्सीडेंट में वह और अनु से बड़ा लड़का, दोनों जाते रहे। तब से माँ-बेटी यहीं हैं। धंधे में जो शेयर था, उसके एवज में भाभी ने यह मकान माँग लिया है। उसी में रहती हैं। एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं। पिछले दो सालों से बीमार चल रही हैं, इसलिए उन लोगों ने अब अनु को लगा लिया है।’’
‘‘रिश्तेदार तो होंगे या कोई नहीं है?’’ मैंने सहानुभूति से पूछा।
‘‘हैं क्यों नहीं! पर बहनजी, रिश्ते सब पैसे से बँधे रहते हैं। शंभुनाथ की मृत्यु के बाद उसके पिताजी आकर बहू को, पोती को लिवा ले गए थे, पर इंश्योरेंस के पैसों को लेकर मनमुटाव हो गया। उनकी इच्छा थी कि वह पैसा शंभु की बहन की शादी में लगा दिया जाए। आखिर भाई होता तो कुछ-न-कुछ देता ही। पर अनु की माँ राजी नहीं हुई। बोली, ‘निपट कंगाल होकर मैं किस के सहारे दिन काटूँगी।’ आठ-दस हजार की मामूली रकम थी, पर एक बेसहारा औरत के लिए तो वही संबल थी, सहारा थी। घरवालों से पैसों का तकाजा भी नहीं किया जा सकता था। कल को अनु की शादी में सब लोग अँगूठा दिखा देते तो—बस तब से यहीं आ गई हैं तो लौटकर नहीं गईं। उन लोगों ने भी कोई सुधि नहीं ली। स्वाभिमानिनी ऐसी हैं कि उसके बाद से पीहर में भी पैर नहीं दिया। यहाँ भी हम लोगों के रहते वे नौकरी करें, अच्छा नहीं लगता। पर माँ-बेटी दोनों बहुत आन वाली हैं।’’
इसके बाद विषय बदल गया था। रामदासजी अपने व्यवसाय के फैलाव का वर्णन करने लगे थे। इसी कारण वे अपने कुशाग्रबुद्धि बच्चों को सरकारी नौकरी में नहीं भेज सके थे। वैसे तीनों बिजनेस मैनेजमेंट का डिप्लोमा लिये हुए थे। एक तो विदेश भी हो आया था।
उस आकर्षक बातचीत के बीच अनु दब गई थी। आज इन्होंने एकाएक याद दिला दिया तो मुझे अपने पर ही रोष हो आया। मुझे पहले ही यह खयाल क्यों न आया।
‘‘जीतू, हम लोग गलती कर गए।’’ मैंने एकाएक कहा तो वह आँखों में प्रश्न भरकर मुझे देखने लगा।
‘‘उस दिन हम लोग इतनी भीड़भाड़ इकट्ठी न करके केवल अनु को बुला लेते तो ठीक था।’’
‘‘कौन अनु!’’
‘‘तुम्हारी इकलौती साली। सीमा के साथ वह आती तो वातावरण जरा खुल जाता। भाई का थोड़ा-बहुत लिहाज करना ही पड़ता है। अनु रहती तो सीमा थोड़ी सहज हो जाती।’’
‘‘ममा, क्या दुनिया में और लड़कियाँ नहीं हैं। आखिर आप उसी के लिए इतनी व्यग्र क्यों हैं?’’
‘‘मना नहीं कर पाएँगे जीतू, हम। पापा को यह रिश्ता बहुत भा गया है।’’
‘‘पापा को भा गया है, वह प्लॉट और दहेज की संभावित राशि!’’
‘‘और लड़की? वह भी तो बुरी नहीं है। अच्छा, सच बता, क्या तुझे पसंद नहीं है?’’
उसने उत्तर नहीं दिया। केवल मेरी ओर देखा।
उसकी आँखों में सीमा का नाम साफ पढ़ा जा सकता था।

उस दिन मैं और जीतू पिक्चर देखकर लौट रहे थे। वैसे मैटिनी मैं अकसर चली जाती हूँ, पर बहुत दिनों बाद ‘गाइड’ देखने का सुयोग बना था। उसका लोभ मैं संवरण न कर सकी। पिक्चर समाप्त हुई और जैसा कि तय था, हॉल से बाहर निकलते ही मेरे सिर में दर्द होने लगा।
‘‘जीतू गाड़ी रोक तो।’’ रास्ते में एक मेडिकल स्टोर नजर आते ही मैंने कहा।
‘‘क्यों?’’
‘‘दवा लेनी है।’’
‘‘घर में दो-दो डॉक्टर हैं, पर तुम्हें केमिस्ट के यहाँ गए बिना चैन नहीं आता।’’ उसने गाड़ी रोकते हुए कहा।
‘‘घर में डॉक्टर हैं, इसीलिए तो मुसीबत है। कोई अपने मन की दवा ले ही नहीं सकता। इससे रिएक्शन होता है, इससे हार्ट पर प्रेशर बढ़ता है, और भी न जाने क्या-क्या।’’ भुनभुनाती हुई मैं उतर पड़ी। वह भी पीछे-पीछे चला आया। शायद देखना चाहता था कि मैं कौन सी गोलियाँ ले रही हूँ। हम लोग स्टोर में घुसे ही थे कि आवाज आई, ‘‘जीजाजी, नमस्ते।’’
चौंककर देखा। बड़े-बड़े नीले फूलों वाला गुलाबी सलवार-सूट पहने एक प्यारी सी, शोख सी लड़की जीतू से नमस्ते कर रही है।
‘‘आप…मैंने ठीक से पहचाना नहीं।’’ जीतू ने हकलाते हुए कहा।
‘‘अ…रे! इतनी जल्दी भूल गए। श्रीमानजी, मैं अनु हूँ।’’
‘‘ओह!’’ एकदम जैसे जीतू को सबकुछ याद आ गया।
‘‘अपनी इकलौती साली को इतनी जल्दी भूल गए? फिर मेडिकल की पढ़ाई आपने कैसे पूरी की होगी? हमने तो सुना था, आप बड़े स्कॉलर हैं।’’
‘‘मेडिकल कॉलेज में फैंसी ड्रेस थोड़े ही सिखाया जाता है। उस दिन तो आप सफेद सी साड़ी-वाड़ी पहनकर बड़ी सोबर सी लग रही थीं।’’
‘‘उस दिन स्कूल जा रही थी न! वहाँ तो भाई, सोबर बनकर ही जाना पड़ता है।’’
‘‘तो पढ़ाती भी हैं? हे भगवान्! इस देश का क्या होने वाला है।’’ जीतू भी अब मूड में आ गया था।
‘‘देश की चिंता मत कीजिए, जीजाजी! जो बच्चे आपके इलाज से बच जाएँगे, वे ही मेरे स्कूल में आएँगे।’’
मैं काउंटर पर खड़ी-खड़ी उस नोक-झोंक का मजा ले रही थी। जब बिल चुकाकर लौटने लगी तब अनु ने मुझे देखा।
‘‘नमस्ते, आंटी!’’ उसने विनम्रता से सिर झुकाकर कहा और पास आकर खड़ी हो गई।
‘‘कैसी हो, बेटे? माँ कैसी हैं?’’ मैंने औपचारिकता निभाई।
‘‘माँ का तो आंटी, चलता ही रहता है। उन्हीं की दवाइयाँ लेने तो आई हूँ।’’ उसने कंधे पर लटका बैग खोलकर दिखाते हुए कहा।
‘‘चलो, तुम्हें घर छोड़ दें।’’ मैंने दुकान से बाहर निकलते हुए कहा।
‘‘न, आंटी! मेरे पास तो अपना लौह-रथ है। पर यह बताइए, आप लोग घर कब आ रहे हैं? उस दिन ताऊजी कह रहे थे कि जीजाजी एक दिन माँ को देखने जरूर आएँगे।’’
मैंने जीतू की ओर देखा।
वह कुछ देर तक सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘अनुजी, आपके घर हम आएँगे जरूर, पर एक शर्त है।’’
‘‘फरमाइए।’’
कुछ देर वह पसोपेश में चुप रहा। फिर बोला, ‘‘ममा, तुम चलकर बैठो। मैं अभी एक मिनट में आया।’’
बच्चे इस तरह लिहाज करते हैं तो कितना अच्छा लगता है। वैसे शर्त क्या मुझसे छिपी हुई थी। सीमा को भी उसके साथ अनु के यहाँ बुलवाने की बात होगी और क्या!

पाँच-छह दिन बाद एक दोपहर का खाना खाते हुए उसने पूछा, ‘‘ममा! शाम का कोई कार्यक्रम तो नहीं है?’’
‘‘नहीं तो, क्यों?’’
‘‘अनु के यहाँ चलना है।’’
‘‘मैं चलकर क्या करूँगी, रे! यों ही तुम लोगों को असुविधा होगी।’’
‘‘हम लोगों से मतलब?’’
‘‘मतलब यही कि सीमा भी आएगी न वहाँ।’’
‘‘नहीं। उसके साथ सुबह इंदौर कॉफी में दोसा खा चुका हूँ। यही तय हुआ था।’’ उसने रूखे-रूखे अंदाज में कहा था। मैंने गौर से देखा, उसका चेहरा भी बुझा-बुझा सा था।
शाम को कुछ यों ही मूड में हम लोग रवाना हुए। अपनी कार हम लोगों ने जान-बूझकर छोड़ दी थी। हमने स्कूटर ले लिया था, जो बाहर-बाहर चलता हुआ ठीक उस घर के सामने जाकर रुका था।
वह प्रतीक्षा में द्वार पर ही खड़ी थी। हमें देखते ही उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं।
पहले कमरे में ही अनु की माँ का बिस्तर लगा हुआ था। उम्र पता नहीं क्या रही होगी, पर जीवन-संघर्षों और बीमारियों ने उस औरत को बुरी तरह थका दिया था।
कुछ औपचारिक चर्चाओं के बाद जीतू बोला, ‘‘ममा, आप लोग थोड़ी देर गपशप करो। तब तक मैं इन्हें देख लेता हूँ।’’


अनु मुझे भीतर लिवा ले गई। दो ही तो कमरे थे—बीच में आँगन और उस पार रसोई। उसने बताया कि बाहर के कमरे में रहने से माँ को अकेलापन नहीं सताता। दरवाजा भी पलंग पर बैठे-बैठे खोल लेती हैं। सुबह-शाम कोठी से कोई नौकरानी आकर चौका-बरतन, सफाई कर जाती है। पर बाकी समय तो उन्हें अकेले ही रहना पड़ता है।
आँगन में उसने कई गमले लगा रखे थे। मैं मूढ़े पर बैठे-बैठे उन खूबसूरत फूलों को देखती रही कि कुछ ही क्षणों में जीतू आ गया।
‘‘हाथ धुलवाएँगी?’’ जीतू ने कहा।
वहीं जामुन के थाले में अनु हाथ धुलवाने लगी।
‘‘कैसी हैं माँ?’’ अनु ने अधीरता से पूछा।
वह चुपचाप हाथ धोता रहा, बेमतलब देर लगाता रहा।
‘‘माँ ठीक तो हो जाएँगी न?’’ उसने दुबारा पूछा। इस बार उसकी आवाज काँप रही थी।
‘‘अनुजी, हमने तो आपका वादा पूरा कर दिया, पर आपकी बात तो अधूरी रह गई।’’
‘‘तो इसका हम क्या करें! शर्त तो सिर्फ दीदी को ले आने भर की थी। अब वह बुत बनी बैठी रहीं तो हम क्या करें।’’
‘‘हाँ, आप कर ही क्या सकती हैं। एक कप चाय तो पिला सकती हैं न!’’
‘‘ओ, श्योर!’’ एकाएक उसका चेहरा खिल उठा। माँ के बारे में पूछते हुए दो आँसू बरबस गालों पर लुढ़क आए थे। वे अब धूप में ओसकण की तरह चमकने लगे थे।
‘‘आप थोड़ी देर माँ के पास बैठिए, आंटी! मैं चाय लेकर अभी आई।’’
हम दोनों फिर से बाहर जाकर बैठ गए।
थोड़ी देर तक गुमसुम बैठने के बाद जीतू ने कहा, ‘‘चाचीजी, यहाँ आसपास आपके कोई रिश्तेदार नहीं हैं?’’
‘‘हैं क्यों नहीं, बेटा। पर अपना कहलाने लायक कोई नहीं है। चार-चार चाचा हैं अनु के, पर पिछले दस साल से किसी ने एक बार भी इधर का रुख नहीं किया है।’’
‘‘अनु के मामा तो होंगे?’’
‘‘एक हैं। और उनका अपना ही परिवार इतना बड़ा है, फिर परिस्थिति भी साधारण है। उन पर बोझ बनने की अपेक्षा अपनी ही कमाई खाना अच्छा लगा। अब तक तो ईश्वर ने आन निभा दी थी। अब दो साल से लड़की खट रही है। पर तुम क्यों पूछ रहे हो, बेटा?’’
‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही। आप बीमार चल रही हैं। अनु नौकरी करती है। कोई जिम्मेदार आदमी पास रहे तो ठीक रहता है।’’
‘‘मुझे मालूम है, बेटे, दिन-पर-दिन मैं छीजती जा रही हूँ। जिंदगी से मुझे कोई मोह भी नहीं है। पर मुझे इतना जिला लो कि अनु को अपने हाथों विदा कर सकूँ।’’ कहते हुए माँ का स्वर कातर हो आया था।
‘‘आप तो पता नहीं क्या सोच बैठीं! उसके पूछने का मतलब यह नहीं था।’’ मैंने ढाढ़स बँधाते हुए कहा, ‘‘अभी तो आपको जीना है। अनु के बच्चे खिलाना है।’’
‘‘शादी तो हो जाए पहले।’’
‘‘शादी की चिंता क्यों करती हैं आप। लड़की तो हीरा है।’’ मैंने कहा।
‘‘उससे क्या होता है, बहनजी! कोरी लड़की कौन ब्याहता है आजकल! सच है, भगवान् लड़की दे तो तिजोरी भर धन भी दे। नहीं तो व्यर्थ है सब।’’ उन्होंने उसाँस लेकर कहा।
उसी समय हाथ में ट्रे लेकर अनु ने प्रवेश किया!
‘‘माँ ने अपनी रामायण शुरू कर दी न!’’ उसने नाश्ता लगाते हुए कहा, ‘‘इसीलिए तो सब यहाँ आने से घबराते हैं। आंटी बेचारी पहली बार आई हैं। उन्हें भी बोर कर दिया तुमने।’’
माँ बेचारी खिसियाकर चुप हो गई। उनका मन रखने के लिए मुझे कुछ कहना चाहिए था, पर समय पर कुछ सूझ ही नहीं पड़ा।
उधर चाय-नाश्ते का दौर शुरू हो गया था। थोड़े समय में लड़की ने काफी कुछ तैयारी कर ली थी, पर मुझसे कुछ खाया नहीं गया। बीमार के कमरे में एक अजीब सी गंध बसी रहती है। डॉक्टर की पत्नी होने के बावजूद मैं उसकी अभ्यस्त नहीं हो पाई हूँ।
हम लोग उठने लगे तो अनु की माँ ने अनु से जीतू का टीका करने को कहा और उसके हाथ में इक्कीस रुपए रखे।
वह एकदम तमतमा गया। बोला, ‘‘आप क्या मुझे फीस दे रही हैं? मैं तो घर का आदमी बनकर यहाँ आया था, डॉक्टर बनकर नहीं।’’
अनु की माँ ने दोनों हाथ माथे से छुआते हुए गिड़गिड़ाकर कहा, ‘‘फीस नहीं है, बेटे! तुम्हारी फीस देने की सामर्थ्य नहीं है मेरी। इस घर के दामाद हो तुम। अनु और सीमा में मैंने कभी फर्क नहीं किया। तुम घर के बड़े दामाद पहली बार घर आए हो। खाली हाथ कैसे जाने दूँ? चाहिए तो था कि हम बहनजी का भी कुछ सत्कार करते। पर उतनी सामर्थ्य ही कहाँ है! बस, हाथ भर जोड़ लेते हैं।’’ इतना कहते हुए भी वे हाँफ गई थीं।
‘‘शगुन के रुपए हैं। ले लो बेटा!’’ मैंने जीतू की जेब में जबरदस्ती वे नोट ठूँसते हुए कहा। मैंने देखा, अनु की माँ की आँखें तरल हो आई हैं।
जीतू ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, पर वह गुमसुम हो आया था। सड़क तक हमें छोड़ने आई अनु ने भी इसे लक्ष्य किया। बोली, ‘‘जीजाजी, प्लीज, माँ की बातों का बुरा न मानिएगा। कभी-कभी वह बेहद भावुक हो जाती हैं। उनकी तबीयत को देखकर हर बात मान लेती हूँ मैं, आप भी…’’
‘‘नहीं अनु, मैंने किसी भी बात का बुरा नहीं माना।’’ जीतू ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘माँ लोगों की बातों का कोई बुरा मानता है भला!’’

अनु तो आश्वस्त होकर घर लौट गई, पर जीतू सारे रास्ते वैसा ही चुप-चुप रहा। मैंने समझाया भी, ‘‘इतना संकोच करने की जरूरत नहीं है। कल को तेरी शादी होगी तो मैं अनु को बीस की जगह एक सौ बीस की साड़ी पहना दूँगी। पर आज अगर रुपए लौटा दिए जाते तो दोनों माँ-बेटी यही समझतीं कि उनकी परिस्थिति का मखौल उड़ाया जा रहा है।’’
पर वह उसी तरह गंभीर बना रहा।
रात अचानक मेरे मन में एक बात कौंधी और मुझे उसके उखड़े मूड का कारण समझ में आ गया। बत्ती बुझाकर सो चुके थे हम लोग, फिर भी मैं धीरे से उठ आई और जीतू के कमरे का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खुला ही था और वह रोज की तरह बेड-लैंप जलाए पढ़ रहा था। मुझे देखते ही हड़बड़ाकर उठ बैठा और बोला, ‘‘क्या बात है, ममा? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न!’’ उसके स्वर में घबराहट थी।
‘‘मुझे कुछ नहीं हुआ है, रे!’’ पास पड़े स्टूल पर बैठते हुए मैंने कहा, ‘‘पर मुझे एक बात बता। क्या सचमुच सीमा ने आज तुझसे बात नहीं की?’’
‘‘की क्यों नहीं? कम-से-कम इतना तो साबित हो ही गया कि वह गूँगी नहीं है और हकलाती भी नहीं।’’
‘‘मजाक रहने दे। मुझे ठीक से बता। अगर सचमुच उसका व्यवहार ऐसा ही रूखा रहा है तो मैं इनसे कल ही कह दूँगी। ऐसी घमंडिन लड़की मेरे घर में नहीं चलेगी।’’
जीतू ने कोई उत्तर नहीं दिया। वैसे ही मुँह लटकाकर बैठा रहा।
‘‘और इस जरा सी बात के लिए तू क्यों मन खराब कर रहा है? दुनिया में क्या और लड़कियाँ नहीं हैं।’’
‘‘ममा, अगर मैं उदास हूँ तो सीमा के लिए नहीं। सारी शाम मैं सिर्फ अनु की माँ के लिए सोचता रहा हूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘उनकी हालत बहुत खराब है, ममा! हार्ट एकदम डेमेज्ड है। किसी भी समय कुछ भी हो है, पेरलेसिस का एक अटैक उन्हें हो चुका है। दूसरा किसी भी समय हो सकता है और वह इतना आसान नहीं होगा।’’
‘‘पेरलेसिस! पर उनकी उम्र तो इतनी ज्यादा नहीं लगती।’’
‘‘उम्र से क्या होता है! ब्लड-प्रेशर तो है, डायबिटीज तो है। शुगर का पर्सेंटेज कितना हाई जा रहा है। उनका चार्ट देखतीं तो तुम्हें गश आ जाता। कोई जिम्मेदार आदमी घर में होता तो मैं स्थिति की गंभीरता से उसे परिचित कराता। पर ले-देकर बस वही एक लड़की है घर में। उससे कोई क्या कहे, कैसे कहे!’’
सच ही तो कह रहा था वह।

जया सगाई से चार-पाँच दिन पहले ही आ गई थी। आते ही वह शुरू हो गई, ‘‘ममा, लड़की खूब सुंदर है न! नहीं तो मैं कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाऊँगी।’’
‘‘अब जैसी भी है, देख लेना।’’ मैंने चुटकी लेते हुए कहा।
‘‘नहीं, ममा, ऐसा गजब न करना। अपने यहाँ इतने रिश्ते मैं लौटा चुकी हूँ। सबसे कह रखा है, एक ही बहू आएगी घर में तो वह ऐसी-वैसी नहीं चलेगी। अब जो यह लड़की सुंदर न हुई तो लोग मेरा मजाक बना डालेंगे। मेरी जिठानी तो अभी से कह रही हैं कि देखें कौन सी अप्सरा आएगी। उनकी भतीजी के लिए मना करके मैंने उन्हें खूब नाराज कर दिया है न।’’
‘‘यहाँ भी तो वही हाल है।’’ मैंने कहा, ‘‘लोग-बाग अपनी लड़की देखते नहीं और मुँह उठाए चले आते हैं। और मना कर दो तो हमेशा के लिए मुँह फुला लेंगे। जब से बात पक्की हुई है, बस यही चर्चा है कि हमने बस पैसे का मुँह देखकर ही ‘हाँ’ की है। अब तो बस यही लगता है कि कब शादी हो, कब बहू घर में आए। एक बार उसे देख लेंगे तो अपने आप सबके मुँह बंद हो जाएँगे।’’
मेरी बात से जया की उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँच गई। मैंने भी उसे ज्यादा प्रतीक्षा कराना उचित नहीं समझा। दूसरे ही दिन सीमा को बुलवा भेजा। सगाई की साड़ी खरीदने का बहाना था ही। वैसे भी मैं अब तक जया के लिए रुकी हुई थी। सोचा, लड़कियों की पसंद से ही खरीदना ठीक रहेगा। रोज-रोज कोई इतनी महँगी साड़ी तो खरीदता नहीं।
रामदासजी स्वयं बेटी को लेकर उपस्थित हुए। हाथ जोड़कर बोले, ‘‘आपका आदेश टाला नहीं जा सकता था, इसीलिए ले आया हूँ। वैसे उसकी अपनी कोई पसंद नहीं है। आप जो भी पहनाएँगी, पहन लेगी।’’
मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि ‘‘खरीदारी का तो बहाना है। दरअसल, जया उसे देखना चाहती थी।’’ मेरी बात से उनका सारा संकोच दूर हो गया। बार-बार यह कहकर कि ‘‘लड़की अब आपकी है। जब चाहें बुलवा लीजिएगा।’’ वह वापस लौट गए।
मैं जान-बूझकर उन लोगों के साथ बाजार नहीं गई। सीमा के साथ अनु आई थी। मैंने जया के साथ जीतू को कर दिया। सोचा, सब बराबर उम्र वाले साथ रहेंगे तो ठीक रहेगा। मेरी वजह से बेचारे यों ही संकोच में पड़ जाएँगे।
अनु और जीतू की नोक-झोंक तो रामदासजी के जाते ही शुरू हो गई थी। बोली, ‘‘जीजाजी, आज तो ताऊजी का लिहाज करके चली आई। पर यह मत जानिएगा कि हर बार इसी तरह दीदी के साथ घिसटती चली जाऊँगी। भविष्य में बाकायदा निमंत्रण भेजना पड़ेगा। आखिर हमारी भी कोई प्रेस्टिज है।’’
‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं! आपकी प्रेस्टिज का तो हमें खयाल सबसे पहले रखना है। हमारी वकील तो आप ही हैं।’’ जीतू ने कृत्रिम गंभीरता से कहा और डायरी निकालते हुए बोला, ‘‘लाइए, जरा अपना पता तो लिखवाइए। मैं तो अनु के आगे कुछ भी नहीं जानता। अनुराधा, अनुपमा या कि पौराणिक अनसूइया।’’
‘‘गलत! लगता है नामों के बारे मैं आपका ज्ञान बहुत सीमित है। श्रीमानजी, मेरा नाम अनुप्रीता है।’’
‘‘ओह, ह्वाट ए लवली नेम!’’
‘‘बस। हाय जीजाजी, आप कवि न हुए। नहीं तो कहते—वाह, जैसी आप हैं, वैसा ही सुंदर आपका नाम है।’’
‘‘मुझे दुःख है अनुजी कि मैं डॉक्टर हूँ। सच बात कहता हूँ, जो अकसर कड़वी होती है।’’
‘‘कहिए तो।’’
‘‘कहना चाह रहा था कि काश! आप भी उतनी सुंदर होतीं जैसा आपका नाम है।’’
‘‘हाँ, ठीक तो है। अब तो आपकी नजरों में एक ही व्यक्ति सुंदर रह गया है।’’ कहते हुए उसने होंठ भींच लिये। पलकों के किनारे भीग गए। मैंने जीतू को डाँटकर चुप कराया तो बोला, ‘‘बस! इतने में ही रो दीं। और आपके ताऊजी कह रहे थे। एक ही साली है, पर दस के बराबर है। हमने तो सिर्फ बानगी पेश की थी और आपके छक्के छूट गए।’’
उनकी इस जुगलबंदी का हम सभी मजा ले रहे थे। जीतू की आखिरी बात पर तो सब लोग ठठाकर हँस पड़े। अनु भी बहादुरी के साथ मुसकरा दी। इसी हँसी-खुशी के वातावरण में सब लोग घर से विदा हुए।
और उन लोगों के चले जाने के बाद मुझे याद आया कि इस सारे शोर-शराबे के बीच सीमा एकदम गुमसुम बैठी हुई थी। बोलना तो दूर, वह एक बार मुसकराई तक नहीं। शर्मीली बहुत लड़कियाँ देखी हैं मैंने, पर उनके अधमुंदे होंठों से, नत पलकों से हँसी की किरणें निरंतर फूटती रहती हैं।
सीमा शर्मीली नहीं, घुन्नी लड़की है। जीतू जैसे हँसमुख लड़के के साथ उसका निबाह कैसे हो सकेगा! या उसे भी अपनी तरह मनहूस बनाकर रख देगी। जब से यह शादी तय हुई है, मैं इसी चिंता में घुली जाती हूँ। इनसे तो कुछ कहना ही बेकार है। एक बार मुँह खोलने का प्रयास किया था तो बुरी तरह डाँट खानी पड़ी थी। बोले, ‘‘तुम तो जीतू को अभी दुधमुँहा बच्चा ही समझती हो। वह तुम्हारे सामने नाटक करता है और बाहर उसे लेकर होटलों में घूमा करता है।’’
‘‘होटल में सिर्फ एक बार गया था, जी। तभी तो… ’’
‘‘एक बार या सौ बार, उससे क्या फर्क पड़ता है! अपने लाड़ले को समझा दो, यह हिंदुस्तान है, अमेरिका नहीं है। यहाँ की लड़कियाँ ऐरे-गैरे के साथ होटलों में नहीं जाया करतीं।’’
और बात फिर दब गई थी।
पर जितनी बार सीमा को देखा है, यही लगा है कि इस लड़की से मेरा या जीतू का निर्वाह कैसे होगा! कोई और लड़की होती तो इतने दिनों में घर से एक आत्मिक संबंध स्थापित कर लेती। पर यह आज भी उतनी ही पराई लगती है। बाजार से लौटी जया तो भरी हुई थी। साड़ी का डिब्बा मेरे सामने पटककर बोली, ‘‘लो, देख लो। पूरे सात सौ की साड़ी है। पर महारानी ऐसे मुँह बनाती थीं, जैसे उनके लिए छींट खरीदी हो।’’
मैंने डिब्बा खोलकर देखा—रानी कलर की बनारसी रेशम जरी की बूटियों से झिलमिल कर रही थी।
‘‘उसे पसंद नहीं आई?’’ मैंने अधीर होकर पूछा।
‘‘अरे, मुँह खोलकर कहे तब न! मूर्ति की तरह कोने में बैठी रही। हाथ लगाना तो दूर, एक बार आँख उठाकर नहीं देखी। वह तो वह सिलबिल थी साथ में तो ठीक रहा। उसी की मदद से चुनाव कर डाला।’’
मेरा मन एकदम बुझ गया। माना कि बड़े घर की लड़की है, बनारसी साड़ी उसके लिए अनोखी चीज नहीं है, पर सगाई की साड़ी के साथ तो एक भावात्मक संबंध होता है। मुँह से कुछ न कहे कोई, तो आँखों से ही बहुत कुछ कहा जा सकता है। कम-से-कम जया का मन तो रह जाता। वह तो इतनी आहत होकर लौटी है कि बहू की रूप-चर्चा उसके सामने व्यर्थ ही है।
‘‘मुझे यही तो डर लगता है, रे!’’ मैंने कहा, ‘‘अजीब घुन्नी लड़की है। जीतू के साथ पता नहीं कैसे निभेगी!’’
‘‘घुन्नी नहीं है, ममा, घमंडी है। तुम तो अब अपनी चिंता करो। जीतू के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। उनकी तो खूब घुट रही है। अभी आते-आते भी उसने एक चिट्ठी चुपके से पकड़ाई है। मैंने साफ देखा है।’’
जया की बात ने सचमुच चौंका दिया मुझे। सोचा, ये ठीक ही कहते हैं। जीतू यों ही मेरे सामने नाटक करता होगा। मैं भी तो पागलों की तरह उसके पीछे पड़ जाती हूँ—सीमा ने क्या बात की? कैसे की? बेचारा जवाब दे भी तो क्या?
कुछ भी हो, मन से एक बोझ तो उतर ही गया।


सारी तैयारी करते-कराते रात के बारह बज गए।
दूसरे दिन ये लोग ओली डालते जा रहे थे। इतने बड़े घर में संबंध होने जा रहा था। पहली बार हम लोग कुछ लेकर जा रहे थे, पर जैसे सारी चिंता मेरे ही सिर थी। और कोई मेरा हाथ बँटाने नहीं आ रहा था। जीतू का तो खैर प्रश्न ही नहीं था। जया मुँह फुलाकर बैठ गई थी। उसे सीमा जरा भी अच्छी नहीं लगी थी। कल जीतू ने चिढ़ा दिया था कि सीमा के आ जाने से दीदी का सौंदर्य-तेज थोड़ा फीका पड़ जाएगा। इसी से वह नाराज है। बात हँसी-मजाक में ही टल जानी थी, पर जया बहुत बुरा मान गई थी। उसकी ओर से किसी सहायता की आशा करना ही व्यर्थ था। सबसे ज्यादा रोष तो मुझे उसके पापा पर आ रहा था। एक बार भी उन्होंने सारा सामान नहीं देखा, न पूछ-ताछ की।
मैं बिस्तर पर गई तब वे बड़े मजे से खर्राटे भर रहे थे। इतना ताव आया मुझे। उन्हें झकझोरकर जगाया मैंने और पूछा, ‘‘सुनो, सुबह जमाई साहब को लेने स्टेशन कौन जा रहा है? ठीक से तय कर लो, नहीं तो समय पर कोई नहीं पहुँचेगा।’’
‘‘कोई नहीं जा रहा।’’ उन्होंने अलसाए स्वर में कहा।
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि वे नहीं आ रहे।’’
‘‘क्यों? आपको कैसे पता चला?’’
‘‘क्योंकि मैंने ही उन्हें फोन पर मना किया है।’’
‘‘अरे! क्यों?’’
‘‘क्योंकि कल का प्रोग्राम कैंसल हो गया है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘रामदासजी को हार्ट अटैक हो गया है।’’
‘‘हाय राम! क्यों?’’
‘‘क्योंकि उनकी लड़की अपने फुफेरे भाई के साथ भाग गई है।’’
‘‘क्यों…?’’
वह एकदम झल्लाकर उठ बैठे, ‘‘तुम्हारी इस ‘क्यों’ का कहीं अंत भी होगा। लड़कियाँ किसी के साथ क्यों भाग जाती हैं, क्या यह भी मुझे बताना होगा!’’
खिसियाकर चुप हो गई मैं। सच तो, पागलों की तरह प्रश्न-पर-प्रश्न किए जा रही हूँ। कम-से-कम इनकी मनःस्थिति का तो खयाल किया होता। शाम से अनमने हैं बेचारे पर मुझे अपनी व्यस्तता के बीच ध्यान ही न आया। इस कांड की तो मैंने कल्पना भी न की थी। मन इतना बौखला गया था कि अनचाहे मुँह से निकल गया—अब?’’
‘‘अब क्या, मिठाई बाँटो।’’ वह गुर्राए, ‘‘तुम दोनों माँ-बेटे तो शुरू से ही मीन-मेख निकाल रहे थे न। अब तुम्हारे मन की हो गई। घर आई लक्ष्मी दरवाजे से ही लौट गई। खूब आनंद मनाओ अब।’’
क्षोभ उनके हर शब्द से टपका पड़ रहा था। रामदासजी के घर समधी बनकर जाने का सबसे ज्यादा चाव उन्हीं को था। इसीलिए सबसे ज्यादा निराशा भी उन्हें ही झेलनी पड़ी।
इसके बाद चुप रहने में ही मैंने अपनी खैरियत समझी। पर रातभर मुझे नींद नहीं आई। बार-बार सीमा का रूखा व्यवहार याद आता रहा। उसे हम लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं थी तो वह स्वाभाविक ही था। पर घर के लोग कैसे हैं? क्या उन्हें भी अंदाजा न हुआ होगा!…लेकिन लगता है, वे लोग सब जान गए थे। तभी तो हाथ धोकर पीछे पड़ गए थे। जिस दिन से रिश्ता लेकर आए थे, उन्होंने हमें साँस नहीं लेने दी थी।
यह तो ईश्वर की कृपा थी, जो समय रहते सारा रहस्य खुल गया।

मुझे कमरे में आते हुए उसने दर्पण में देख लिया था। वहीं से बोला, ‘‘तुम परेशान क्यों हो रही हो, ममा! मैं अभी शेव बनाकर वहीं आ तो रहा था।’’
‘‘मैं तो यों ही चली आई थी, रे!’’ चाय की ट्रे गोल मेज पर रखते हुए मैंने कहा, ‘‘सोचा, साथ-साथ चाय भी पी लेंगे और…एक बात भी कहनी थी।’’
‘‘समथिंग इंपोर्टेंट?’’ उसने अपना काम जारी रखते हुए पूछा।
‘‘हाँ, ऐसा ही समझ लो। वह जो सीमा है न… ’’
वह इस बुरी तरह से चौंका कि रेजर हाथ से फिसल ही गया। गीले तौलिए से गाल को सहलाते हुए वह मेरे सामने आकर बैठ गया और अधीर स्वर में बोला, ‘‘सीमा का क्या कह रही थीं तुम, क्या किया है उसने?’’
‘‘वह अपने फुफेरे भाई के साथ भाग गई है।’’ मैंने सपाट स्वर में आखिर कह ही डाला।
‘‘ओह, ममा!’’ उसने एक दीर्घ उसाँस छोड़ी, ‘‘तुमने तो मुझे डरा ही दिया था। उतनी सी देर में मैं पता नहीं क्या-क्या सोच गया था।’’
‘‘क्या सोच गया था?’’ मैंने हैरत से पूछा।
‘‘दरअसल ममा, मैं एक पागलपन कर बैठा था।’’ उसने खिसियाए स्वर में कहा। इससे पहले कि मैं कुछ पूछूँ, वह उठा और दराज में से एक कागज का पुर्जा निकाल लाया और बोला, ‘‘लो, पढ़ो।’’
पढ़ने को था ही क्या, बस दो पंक्तियाँ ही थीं—
‘‘अगर आप शादी से इनकार नहीं करेंगे तो मुझे मजबूरन कुछ खा लेना पड़ेगा।’’
‘‘कब मिली यह चिट्ठी तुझे?’’ मैंने काँपते स्वर में पूछा।
‘‘उसी दिन जब हम लोग साड़ी खरीदने गए थे।’’
‘‘तो पगले, मुझे बताया क्यों नहीं? कैसा सर्वनाश हो जाता अभी!’’
‘‘एक जिद सी सवार हो गई थी, ममा! मैं भी जया की तरह सोचने लगा था। लगता था यह लड़की हमें बहुत छोटा करके देखती है, इसके दर्प को तोड़ना होगा। इसे ब्याह कर घर लाना ही है, भले ही दूसरे दिन उसे छोड़ आना पड़े। उसकी बेरुखी का और भी कोई कारण हो सकता है, इस ओर ध्यान ही नहीं गया।’’
‘‘और अगर वह सचमुच कुछ खा लेती तो?’’ मैंने कप में चाय डालते हुए पूछा।
इसीलिए तो, तुमने जब एकाएक उसका नाम लिया तो मैं डर गया। मुझे तो हैरत होती है, ममा, पढ़ी-लिखी होकर भी ये लड़कियाँ इतनी बुजदिल कैसे होती हैं! अपने मन की बात मुँह खोलकर कहतीं क्यों नहीं! बस गूँगी गाय की तरह हर किसी खूँटे से चुपचाप बँध जाती हैं।’’
‘‘अब तो उसने अपने तेवर दिखला दिए न!’’ मैंने कड़वाहट भरे स्वर में कहा।
‘‘हाँ, यह तो मानना पड़ेगा। उसने काफी दिलेरी से काम लिया। पता मालूम हो तो मेरी ओर से बधाई का तार भेज देना। मैं तो इसी बात के लिए शुक्रगुजार हूँ कि वह काफी समझदारी से पेश आई। शादी की रात तक इंतजार नहीं किया…नहीं तो अपनी जिंदगी में भी फिल्म स्टोरी बन जाती।’’
वह उठकर पुनः आईने के सामने खड़ा हो गया था। मैं उसे गौर से देखती रही। पर साबुन के झाग से भरे उस चेहरे पर कुछ भी पढ़ना असंभव था। ईश्वर से यही मनाती रही कि हताशा का यह ज्वार जो मुझे मथ रहा है, उसे अछूता ही छोड़ दे। वह वास्तव में उतना ही निर्लिप्त बना रहे, जितना कि वह दिखा रहा है।

सीमा के अपने घर में जो भी कहर बरपा हुआ हो, पर इस घर की भी रौनक कुछ दिनों के लिए छिन सी गई थी। बच्चों के पापा का मूड तो उसी दिन ऑफ हो गया था। मेरा मन भी बुझ गया था। जया भी इतने दिनों बाद इंदौर आई थी। पर सहेलियों से मिलने का, रिश्तेदारों के यहाँ जाने का उसमें जरा भी उत्साह नहीं रह गया था। जहाँ भी जाओ, वही प्रश्न, वही कौतूहल, वही शंकाएँ—खीझ सी होने लगती थी।
हम सबके बीच जीतू बिल्कुल सरल-स्वाभाविक बना हुआ था। पर माँ थी, इसीलिए जानती थी कि वह भीतर-ही-भीतर हिल गया है। उसके ठहाके बेजान होते जा रहे हैं। दीदी के साथ उसकी नोक-झोंक में कोई दम नहीं रहा। जया के बच्चों के साथ चल रही उसकी छेड़खानी भी मात्र एक दिखावा है।
और फिर जया ने एकदम घर लौटने का फैसला कर लिया। उसे रोकने में कोई तुक भी नहीं था। भारी मन से मैंने विदा की तैयारियाँ शुरू कर दीं। कैसे उत्साह से आई थी बेचारी और अब कैसी मनःस्थिति में लौट रही है। पर लड़की बहुत समझदार है। बोली, ‘‘ममा, हम तो सबको यही बताएँगे कि लड़की के पिता अचानक बीमार हो गए थे। इसी से काम रुक गया है। आप लोग अपने से कुछ लिखना नहीं।’’
उसकी सूझ-बूझ देखकर दंग रह गई मैं। सच, लड़कियों को मैके की प्रतिष्ठा का कितना खयाल रहता है।
कुलियों के सिर पर सामान लदवाकर हमने प्लेटफार्म पर पैर दिया ही था कि आवाज आई, ‘‘नमस्ते दीदी, नमस्ते आंटी, नमस्ते जी…’’
मैंने चौंककर देखा, यूनीफॉर्म की साड़ी पहने बच्चों के एक झुंड से घिरी अनु खड़ी है।
‘‘आज जा रही हैं, दीदी?’’ उसने पूछा।
पर उत्तर की कौन कहे, दोनों भाई-बहनों ने उसकी ओर देखा तक नहीं। सीधे मुँह उठाए थ्री-ह्वीलर की तरफ चले गए। बेचारी का इतना सा मुँह निकल आया।
मुझे दया हो आई। वैसे भी पीछे ही घिसट रही थी मैं। पास जाकर पूछा, ‘‘कैसी हो, अनु? माँ ठीक हैं?’’
‘‘माँ ठीक नहीं हैं, आंटी! परसों से बुखार में पड़ी हैं।’’ उसने उदास स्वर में कहा।
‘‘तो छुट्टी क्यों नहीं ले लेती?’’
‘‘रोज-रोज छुट्टी कौन देता है, आंटी! फिर यह तो जनवरी का महीना है। रोज ही बच्चों को लेकर किसी-न-किसी स्कूल में जाना पड़ता है। प्रतियोगिताएँ जो चल रही हैं। आज भी महू जा रही हूँ। घर पर महरी को बिठाकर आई हूँ।’’
ट्रेन ने शायद सिग्नल दे दिया था। प्लेटफॉर्म पर गहमा-गहमी एकदम बढ़ गई। उसी शोर-शराबे में अनु की आवाज भी खो गई और अनु भी। जया को ढूँढ़ते हुए मैं भीड़ को चीरती चल पड़ी।
लौटते समय मैंने जीतू से पूछा, ‘‘अनु से बात क्यों नहीं की तूने? उस बेचारी का क्या दोष है?’’
‘‘दोष किसी का भी हो, ममा! सजा तो सभी को भुगतनी पड़ती है।’’
उसके स्वर से चौंककर मैंने देखा, व्यथा से या कि रोष से उसका चेहरा काला पड़ गया था।
मैंने ठीक ही समझा था।
लड़का भीतर-ही-भीतर हिल गया था।
और फिर एक बार रिश्तों की बाढ़ सी आ गई।
खबर फैलते देर ही कितनी लगती है। फिर शुरू हो गई बरसात फोटो और जन्म-कुंडलियों की। सुबह-शाम दरवाजे पर परिचित-अपरिचित चेहरों की भीड़ जुटने लगी। बढ़-चढ़कर दहेज के आकर्षक प्रस्ताव सामने आने लगे।
एक समय था, जब इन सारी बातों से मुझे बड़ी खुशी होती थी। लड़के की माँ होने का गौरव जैसे मन में समाता नहीं था। पर अब तो जैसे कोफ्त सी होने लगी है। लगता, जैसे मेरा लड़का नीलाम पर चढ़ रहा है। जिसकी बोली सबसे ऊँची लगेगी उसी को मिलेगा।
लाख बार समझाया कि अभी हम लोग कुछ कहने-सुनने की स्थिति में नहीं हैं। हमें कुछ सँभलने का मौका दीजिए। पर लोग इसे भी वर-पक्ष की एक अदा ही समझते। फिर से मनुहार शुरू हो जाती।
हम लोग तो जैसे-तैसे मान भी जाते। पर जीतू को लड़की दिखाने ले जाना एक टेढ़ी खीर थी। जनता के पास इस समस्या का भी हल था। लोग किसी-न-किसी बहाने लड़कियों को लेकर घर आने लगे। बाजार में, मंदिर में या सिनेमा हॉल में योजनाबद्ध तरीकों से लड़कियों का प्रदर्शन होने लगा। जीतू तो एकदम बौखला गया। बोला, ‘‘ममा, तुम सब लोग मिलकर मुझे पागल बना दोगे। भगवान् के लिए मेरा पीछा छोड़ दो। जिस दिन कोई लड़की मन की मिल जाएगी, मैं तुम्हारे सामने लाकर खड़ी कर दूँगा। बस!’’
अब लड़कियाँ क्या सड़कों पर पड़ी मिल जाती हैं। पर उससे उलझे कौन! गोमती भाभी के चाचाजी एक बहुत अच्छा प्रस्ताव लेकर आए थे। अच्छा खानदान था। खाते-पीते लोग थे। लड़की सुंदर थी और डॉक्टर थी। जीतू मेडिको पत्नी के पक्ष में कभी भी नहीं था। पर लड़की के पिता ने कहा, ‘‘डिग्री ले ली है। आप चाहेंगे तो नौकरी करेगी, नहीं तो घर-गृहस्थी में भी उसे बहुत रुचि है। जितेंद्रजी चाहेंगे तो घर पर ही छोटी-मोटी डिस्पेंसरी खोल लेगी। वैसे उसका कोई आग्रह नहीं है। आप लोग जैसा चाहेंगे।’’
मैंने भी सोचा, ठीक तो है। कल को जीतू की प्रैक्टिस अच्छी चल निकली तो डॉक्टर-पत्नी वरदान ही सिद्ध होगी। हुनर तो तिजोरी में रखे धन की तरह होता है। जब चाहा, काम में ले लिया।
उन दिनों वह यशवंतराव अस्पताल में हाउस जॉब कर रही थी। तय हुआ कि उस वहीं चलकर देखा जाए। जीतू से तो साफ-साफ कहना व्यर्थ ही था। मैंने बहाना बनाया, ‘‘छठी मंजिल पर अमुक चाची बीमार पड़ी हैं। उनका मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ है। तू साथ चला चलेगा तो थोड़ी लिफ्ट की सुविधा मिल जगागी।’’ वह मना नहीं कर सकेगा, जानती थी।
अस्पताल के विशाल पोर्ट में स्कूटर टिकाया ही था कि देखा सीढ़ियों पर एक परिचित आकृति हथेलियों में चेहरा छिपाए सिसक रही है।
‘‘अनु! क्या हुआ?’’ हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला। उसने अपना आँसुओं से भीगा चेहरा उठाकर हमारी ओर देखा और पास चली आई। बोली, ‘‘जीजाजी, माँ बहुत बीमार हैं।’’
उस दिन स्टेशन पर जीजाजी कहते हुए उसकी जबान लड़खड़ा गई थी। पर आज उसे इसका होश नहीं रहा था। उसकी माँ सचमुच बीमार थी।
‘‘क्या हुआ माँ को?’’
‘‘पता नहीं। परसों से यहाँ ले आए हैं, तब से उन्होंने एक बार भी आँख नहीं खोली है।’’
‘‘कौन से नंबर में हैं? चलो, देखते हैं।’’
‘‘यहीं इंटेसिव में हैं। पर वहाँ किसी को भीतर जाने थोड़े ही दे रहे हैं। ताईजी, भाई साहब, मामाजी—सब बाहर ही बेंचों पर बैठे हैं। मुझसे तो वहाँ बैठा नहीं जाता। रुलाई सी छूटने लगती है। जीजाजी, आप तो डॉक्टर हैं। आपको तो जाने देंगे न?’’ उसने अधीरता से पूछा।
‘‘मामाजी आए हैं?’’ जीतू ने पूछा।
‘‘हाँ, कल शाम ही आए हैं। उन्हें तार दे दिया था न।’’
‘‘अच्छा अनु, तुम अंदर चलो। मैं डॉक्टर परिहार को लेकर अभी आ रहा हूँ।’’ जीतू ने अधिकारपूर्ण लहजे में कहा। एक बार हम लोगों की ओर करुण दृष्टि से देखते हुए अनु भारी कदमों से भीतर चली गई।
उसके जाते ही जीतू मेरे सामने तनकर खड़ा गया और पास से गुजरती बेतहाशा भीड़ को अनदेखा करके बोला, ‘‘ममा, क्या तुम इस लड़की को बहू के रूप में स्वीकार कर सकोगी?’’
मैं हतप्रभ हो उसे देखती ही रह गई।
‘‘यह मत सोचना, ममा कि मैं भावावेश में आकर इतनी बड़ी बात कह बैठा हूँ। पिछले कई दिनों से यह बात मेरे मन में घुमड़ रही है। पर मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा था। पर अब तो सोच-विचार के लिए समय ही न रहा। बोलो न, ममा, प्लीज!’’
‘‘पर बेटे, ये बातें हड़बड़ी में तय नहीं की जातीं।’’ मैंने कहना चाहा तो वह फौरन मेरी बात काटकर बोला, ‘‘कहा न मैंने, अब सोच-विचार के लिए समय नहीं रहा। मुझे मालूम है, अपने इकलौते बेटे की शादी के लिए तुम्हारे मन में ढेर सारे अरमान हैं। पर ममा, भीतर जो दम तोड़ रही है, वह भी एक माँ है। उसने भी अपनी इकलौती बेटी के लिए कई सपने सँजोए होंगे। उन सपनों के लिए वह जिंदगी भर अपनों से, परिस्थितियों से लोहा लेती रही। अब तो शायद वह कुछ भी कहने-सुनने के परे चली गई है। पर अगर एक क्षण को भी उनकी चेतना लौट आए तो मैं उन्हें आश्वस्त करना चाहता हूँ। मैं उन्हें यहाँ से खाली हाथ नहीं जाने दूँगा। पर ममा, इसके लिए मुझे तुम्हारी आज्ञा चाहिए। दोगी न?’’
उसकी बात पूरी न हो पाई थी कि अनु बदहवास सी दौड़ती आई और बोली, ‘‘जीजाजी, जल्दी चलिए न, प्लीज! माँ को देखिए, वे लोग क्या कह रहे हैं?’’
पलभर को हम दोनों जैसे काठ हो गए।
मैंने ही किसी तरह अपने को समेटा और कहा, ‘‘जीतू, तुम अंदर जाकर देखो। अनु की चिंता मत करो। वह मेरे पास है; हमेशा रहेगी।’’
और सुबकती हुई अनु को मैंने अपने अंक में भर लिया।

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