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टोपी शुक्ला ‘आधा गाँव’ के ख्यातिप्राप्त रचनाकार की यह एक अत्यन्त प्रभावपूर्ण और मर्म पर चोट करने वाली कहानी है। टोपी शुक्ला ऐसे हिन्दुस्तानी नागरिक का प्रतीक है जो मुस्लिम लीग की दो राष्ट्रवाली थ्योरी और भारत विभाजन के बावजूद आज भी अपने को विशुद्ध भारतीय समझता है – हिन्दू-मुस्लिम या शुक्ला, गुप्त, मिश्रा जैसे संकुचित अभिधानों को वह नहीं मानता। ऐसे स्वजनों से उसे घृणा है जो वेश्यावृत्ति करते हुए ब्राह्मणपना बचाकर रखते हैं, पर स्वयं उससे इसलिए घृणा करते हैं कि वह मुस्लिम मित्रों का समर्थक और हामी है। अन्त में टोपी शुक्ला ऐसे ही लोगों से कम्प्रोमाइज नहीं कर पाता और आत्महत्या कर लेता है। व्यंग्य-प्रधान शैली में लिखा गया यह उपन्यास आज के हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों को पूरी सच्चाई के साथ पेश करते हुए हमारे आज के बुद्धिजीवियों के सामने एक प्रश्नचिद्द खड़ा करता है।
“…भाई देखी आपने धर्म में पॉलिटिक्स ?” टोपी ने अपनी बात ख़त्म की।
“न ।” इफ्फन ने कहा । टोपी जब अपना थीसिस सुना रहा था तो इफ्फन कहीं और था । बात
यह है कि धर्म और पॉलिटिक्स से अलग भी कुछ बिल्कुल ही घरेलू समस्याएँ होती हैं। और इन
समस्याओं पर सोचने का समय जभी मिलता है जब कोई मित्र भाषण दे रहा हो और आप अकेले
उसकी ‘ठाठे मारते हुए सागर’ जैसी भीड़ हों।
इफ्फ़न के जवाब ने टोपी का मुँह लटका दिया।
“फिर दिखला दो।” इपफन ने उसे मकारा।
“यह जो धर्म समाज कॉलिज है न?”
“हाँ, है।”
“यह अगरवाल बनियों का है।”
“है।” इफ्फन ने हुंकारी भरी।
“और बारासेनी बारहसेनियों का।”
“हाँ।”
“इन बारासेनियों की एक अलग कहानी है।”
“वह भी सुना डालो।”
“इनका शुद्ध नाम दुवादस श्रेणी है। भाई लोगों ने देखा कि यह संस्कृत नहीं चलती तो झट से इसे हिन्दी में ट्रान्स्लेट कर दिया । और दुवादस श्रेणी के बनिये बारहसेनी बनिये बन गए । और अब इन्हें यह याद भी न होगा कि मुग़ल काल में इन्होंने अपना क्या नाम रखा था।”
“मगर श्रेणी की सेनी बनाकर तो लोगों ने कोई तीर नहीं मारा।” इफ्फ़न ने कहा। “यह तो बिलकुल ही ग़लत ट्रान्स्लेशन हुआ।”
“यह अनुवाद किसी प्रोफेसर, या किसी महा महा उपाध्याय या किसी समसुलउलमा ने नहीं किया था ।”
टोपी जल गया, “साधारण लोगों ने किया था । और साधारण मनुष्य ग्रामर की समस्याओं पर विचार नहीं करता। वह तो अपनी भाषा के नाम पर शब्दों को काट-छाँट लेता है।”
टोपी ने कहा।