Satyanweshi (Inquisitor) : Byomkesh Bakshi ki Jasoosi Kahani pdf download
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ब्योमकेश से मेरी पहली मुलाकात सन् 1925 की वसंत ऋतु में हुई थी। मैं युनिवर्सिटी से पढ़कर निकला था। मुझे नौकरी वगैरह की कोई चिंता नहीं थी। अपना खर्च आसानी से चलाने के लिए मेरे पिता ने बैंक में एक बड़ी रकम जमा कर दी थी, जिसका ब्याज मेरे कलकत्ता में रहने के लिए पर्याप्त था। इसमें बोर्डिंग हाउस में रहना, खाना-पीना आसानी से हो जाता था। इसलिए मैंने शादी वगैरह के बंधन में न बँधकर साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने को समर्पित करने का निर्णय लिया। युवावस्था की ललक थी कि मैं साहित्य और कला के क्षेत्र में कुछ ऐसा कर दिखाऊँ,जो बंगाल के साहित्य में कायापलट कर सके। युवावस्था के इस दौर में बंगाल के युवाओं में ऐसी अभिलाषा का होना कोई आश्चर्य नहीं माना जाता, पर अकसर होता यह है कि इस दिवास्वप्न को टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता।
जो भी हो, मैं ब्योमकेश से अपनी पहली भेंट की कहानी को ही आगे बढ़ाता हूँ।
कलकत्ता को भरपूर जानने वाले भी शायद यह नहीं जानते होंगे कि कलकत्ता के केंद्रस्थल में एक ऐसा भी इलाका है, जिसके एक ओर अबंगालियों की अभावग्रस्त बस्ती है, दूसरी ओर एक और गंदी बस्ती और तीसरी ओर पीत वर्ग के चीनियों की कोठरियाँ हैं। इस त्रिकोण के बीचोबीच त्रिभुजाकार जमीन का टुकड़ा है, जो दिन में तो और स्थानों की तरह सामान्य दिखाई देता है, किंतु शाम होने के बाद उसकी पूरी कायापलट हो जाती है। आठ बजते-बजते सभी व्यापारिक प्रतिष्ठानों के शटर गिर जाते हैं। दुकानें बंद हो जाती हैं और रात का सन्नाटा पसर जाता है। कुछेक पान-सिगरेट की दुकानों को छोड़कर सभी कुछ अंधकार में विलीन हो जाता है। सड़कों पर केवल छाया और परछाइयाँ यदा-कदा दिखाई दे जाती हैं। यदि कोई आगंतुक इस ओर आ भी जाता है तो कोशिश करता है कि जल्द-से-जल्द इस इलाके को पार कर ले।
मैं ऐसे इलाके के पड़ोस में स्थित बोर्डिंग हाऊस में कैसे आया, यह बताने का कोई फायदा नहीं। इतना कहना काफी है कि दिन के उजाले में मुझे ऐसा किसी प्रकार का संदेह नहीं हुआ। दूसरे, मुझे मेस के ग्राउंड फ्लोर में एक बड़ा हवादार कमरा उचित किराए पर मिल रहा था, इसलिए मैंने तुरंत ले लिया।
यह तो मुझे बाद में पता लगा कि उन सड़कों पर हर महीने दो-तीन कटी-फटी लाशों का मिलना आम बात है और यह कि सप्ताह में कम-से-कम एक बार पास-पड़ोस में पुलिस का छापा पड़ना कोई विस्मय की बात नहीं है; लेकिन तब तक रहते हुए मुझे अपने कमरे से एक प्रकार का लगाव हो गया था और अब बोरिया-बिस्तर लेकर कहीं और जाने की मेरी इच्छा नहीं थी। दिन छिपे अकसर मैं कमरे में ही रहकर अपनी साहित्यिक गतिविधियों में तल्लीन रहता, इसलिए मुझे व्यक्तिगत रूप से भय का कोई कारण दिखाई नहीं देता था।
मेस के प्रथम तल में कुल मिलाकर पाँच कमरे थे। प्रत्येक में केवल एक व्यक्ति था। ये पाँचों महानुभाव मध्य वय के थे, जिनके परिवार कलकत्ता से बाहर गाँव या अन्य नगरों में थे। वे कलकत्ता में नौकरी करते थे। हर शनिवार की शाम को वे अपने घरों के लिए प्रस्थान कर जाया करते और सोमवार को अपने दफ्तर जाने के लिए हाजिर हो जाते। ये लोग एक लंबे अरसे से इस मेस में ही रहते आए थे। हाल ही में उनमें एक सज्जन नौकरी से रिटायर होकर घर चले गए तो वह खाली कमरा मुझे मिल गया। दफ्तर से आने के बाद ये सभी सज्जन एक जगह एकत्र होकर जब ब्रिज या पोकर खेलते तो उनकी ऊँची आवाजों से मेस गूँजने लगता। अश्विनी बाबू ब्रिज में माहिर थे और उनके जोड़ीदार घनश्याम बाबू जब-जब बाजी हार जाते, तब हंगामा खड़ा कर देते। ठीक नौ बजे महाराज खाने का ऐलान करता तो सब खेल की बाजी भूलकर शांति से खाने की मेज पर बैठ जाते और खाने के बाद सभी अपने-अपने कमरों के लिए प्रस्थान कर जाते। मेस का यह क्रम बिना किसी परिवर्तन के बड़े आराम से चलता रहता था। मैं भी इस जीवन-क्रम का एक भाग बन गया था।
मकान मालिक अनुकूल बाबू का कमरा भी ग्राउंड फ्लोर पर था। वे पेशे से होमियोपैथ डॉक्टर थे। व्यवहार में सीधे-सादे और मिलनसार सज्जन थे। संभवतः वे भी कुँआरे थे, क्योंकि उस घर में कोई परिवार था ही नहीं। वे किराएदारों की जरूरतों की देखभाल करते और दोनों समय खाने और नाश्ते का प्रबंध करते थे। यह सब वे बड़ी मुस्तैदी से पूरा करते थे। किसी तरह की कोई शिकायत की गुंजाइश नहीं थी। महीने की पहली तारीख को पच्चीस रुपए के भुगतान के बाद महीने भर किसी को किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं रह जाती थी।
डॉक्टर गरीब रोगियों में अपनी दवा के लिए काफी मशहूर थे। रोजाना सुबह और शाम उनके कमरे के बाहर मरीजों की कतार लग जाती थी। वे अपनी दवा के लिए बहुत ही मामूली फीस लेते थे। रोगी को देखने के लिए वे बहुत कम ही जाते थे और जाते भी थे तो उसकी फीस नहीं लेते थे।
जल्दी ही मैं भी उनका प्रशंसक बन गया। रोजाना लगभग दस बजे मेस के सभी सज्जन अपने दफ्तर चले जाते और पूरे मेस में हम दो ही रह जाते। अकसर हम लोग दोपहर का खाना एक साथ ही खाते और सारी दोपहर समाचार-पत्रों की हेडलाइंस पर चर्चा करने में बीत जाती। यद्यपि डॉक्टर सादे व्यवहारवाले व्यक्ति थे, किंतु उनमें एक विशेषता थी। उनकी आयु चालीस से ज्यादा नहीं थी और नाम के आगे कोई डिग्री वगैरह भी नहीं थी, किंतु उनका ज्ञान अपार था। किसी भी विषय में उनकी जानकारी और अपरिमित ज्ञान को देखकर मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता था और मैं चकित होकर उनकी बातों को सुनता रहता था। मैं जब उनकी प्रशंसा में कुछ कहता तो शरमाकर इतना ही कहते, ‘दिन भर करने को तो कुछ है नहीं, इसलिए घर पर ही रहकर पढ़ता रहता हूँ। मुझे सारा ज्ञान इन पुस्तकों से ही मिला है।’
मुझे रहते हुए कुछ महीने ही हुए थे। एक दिन सुबह करीब दस बजे मैं अनुकूल बाबू के कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। अश्विनी बाबू मुँह में पान दबाकर अपने काम पर निकल गए थे। उसके बाद घनश्याम बाबू गए। जाने से पहले उन्होंने डॉक्टर से दाँतों के दर्द के लिए दवा ली और चले गए। शेष दो सज्जन भी समय होते-होते प्रस्थान कर गए। मेस दिन भर के लिए खाली हो गया।
कुछ रोगी अब भी डॉक्टर के इंतजार में खड़े थे, जिन्हें दवा देकर डॉक्टर ने अपना चश्मा माथे पर चढ़ाया और बोले,‘‘आज अखबार में कोई खास समाचार है क्या?’’
‘‘हमारे पड़ोस में कल रात फिर से पुलिस ने छापा मारा है।’’
‘‘यह तो रोजाना का किस्सा है।’’ अनुकूल मुसकराकर बोले।
‘‘बिल्कुल पड़ोस में, मकान नं. 36 किसी शेख अब्दुल गफ्फूर के घर में।’’
‘‘अच्छा! मैं जानता हूँ उस व्यक्ति को, वह अकसर इलाज के लिए मेरे पास आता है। क्या खबर में है कि किस चीज के लिए छापा मारा गया?’’
‘‘कोकेन! यह रहा, पढ़ लीजिए।’’ मैंने अखबार ‘दैनिक कालकेतु’ उन्हें पकड़ा दिया। अनुकूल बाबू ने माथे पर अटके चश्मे को नीचा करके पढ़ना शुरू किया, ‘‘गत रात पुलिस ने स्ट्रीट स्थित मकान नं. 36, शेख अब्दुल गफ्फूर के घर पर छापा मारा। हालाँकि छापे में कोई गैरकानूनी चीज नहीं पाई गई, तथापि पुलिस को यकीन है कि इस इलाके में कोई गुप्त स्थान है, जहाँ कोकेन का गैर-कानूनी धंधा चलता है और उसकी सप्लाई पास-पड़ोस तथा अन्य स्थानों में की जाती है। काफी समय से यह अनैतिक गैंग बड़ी चालाकी से इस गैर-कानूनी धंधे को चला रहा है। यह शर्म और खेद की बात है कि अब तक इस गुप्त अड्डे का पर्दाफाश नहीं हो पाया है और अड्डे का नेता रहस्य में छुपा बैठा है।’’
अनुकूल बाबू कुछ सोचने के बाद बोले, ‘‘यह सही है। मुझे भी लगता है कि इस इलाके में गैर-कानूनी नशीली चीजों का कोई बड़ा गुप्त वितरण केंद्र है। मुझे कभी-कभी इसके चिह्न भी दिखाई दे जाते हैं। जानते हैं कैसे? इतने मरीज जो मेरे पास आते हैं, उनमें से नशेड़ी चाहे जो भी करे, वह डॉक्टर से कोकेन का नशा नहीं छुपा सकता। लेकिन यह अब्दुल गफ्फूर, मुझे नहीं लगता कोकेन का नशा करता है। मैं जानता भी हूँ कि नशा करता है पर अफीम का, यह उसने खुद मुझे बताया है।’’
‘‘अनुकूल बाबू, पड़ोस में इतनी हत्याएँ होती हैं, क्या आप सोच सकते हैं, इसकी वजह क्या हो सकती है?’’ मैंने पूछा।
‘‘इसका बहुत ही आसान स्पष्टीकरण है। जो लोग गैर-कानूनी नशीली चीजों का व्यापार करते हैं, उन्हें हमेशा भय रहता है कि वे पकड़े न जाएँ। इसलिए कोई भी व्यक्ति यदि उनके रहस्य को जान लेता है तो उनके पास उसे खत्म करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रहता। इसे ऐसे समझने की कोशिश करें, मान लो कि मैं कोकेन का अवैध धंधा करता हूँ और तुम यह जान लेते हो तो मेरे लिए तुम्हारा जिंदा रहना क्या मुझे सुरक्षा दे पाएगा? अगर तुमने पुलिस के सामने अपना मुँह खोला तो न सिर्फ मुझे जेल जाना होगा, बल्कि मेरा इतना बड़ा व्यापार डूब जाएगा। करोड़ों रुपए का माल जब्त हो जाएगा। क्या मैं यह सब होने दूँगा?’’ और वे हँसने लगे।
मैंने कहा, ‘‘लगता है, आपने अपराध मनोविज्ञान पर गहन अध्ययन किया है।’’
‘‘हाँ, यह मेरी दिलचस्पी का एक विषय है।’’ उन्होंने अँगड़ाई ली और उठ खड़े हुए। मैं भी उठने का सोच ही रहा था कि कमरे में एक व्यक्ति ने प्रवेश किया। उसकी अवस्था लगभग तेईस-चौबीस वर्ष होगी। देखने-सुनने में वह पढ़ा- लिखा नौजवान दिखाई देता था। उसका रंग साफ था, अच्छी कद-काठी और देखने में आकर्षक तथा बुद्धिमान लग रहा था। लेकिन उसे देखकर लगता था कि वह बुरे समय से गुजर रहा है। उसके कपड़े अस्त-व्यस्त और उलझे बाल थे, जैसे उनमें कई दिनों से कंघी नहीं की गई हो। उसके जूते भी गर्द से लिपटे हुए थे। उसके मुँह पर आतुरता झलक रही थी। उसने मुझे देखा, फिर अनुकूल बाबू की ओर देखकर बोला,‘‘मुझे पता लगा है कि यह बोर्डिंग हाऊस है। यहाँ क्या कोई रूम खाली है?’’
हम दोनों ने उसकी ओर कुछ आश्चर्य से देखा। अनुकूल बाबू ने सिर हिलाया और कहा ‘‘नहीं! आप काम क्या करते हैं श्रीमान?’’
वह नौजवान थका होने के कारण मरीजों की बेंच पर बैठ गया और बोला, ‘‘फिलहाल तो मैं अपने आप को जीवित रखने के जुगाड़ में लगा हूँ। नौकरी के लिए एप्लाई कर रहा हूँ और सिर छुपाने की जगह ढूँढ़ रहा हूँ, लेकिन इस अभागे शहर में एक अच्छा बोर्डिंग हाऊस ढूँढ़ना भी असंभव है। सब जगह हाउसफुल है।’’
सहानुभूतिपूर्वक अनुकूल बाबू ने कहा, ‘‘सीजन के बीच में कोई जगह मिल पाना मुश्किल होता है, आपका नाम क्या है श्रीमान?’’
‘‘अतुल चंद्र मित्र! जब से मैं कलकत्ता आया हूँ, मैं नौकरी के लिए भटक रहा हूँ। जो छोटी सी रकम मैं अपने गाँव में सबकुछ बेचकर लाया था, वह भी अब समाप्त होने को है। मेरे पास मात्र पच्चीस-तीस रुपए ही बचे हैं, जो यदि मुझे दोनों वक्त खाना पड़े तो ज्यादा दिन चलने वाले नहीं हैं। इसलिए मैं एक अच्छे मेस को ढूँढ़ रहा हूँ, ज्यादा दिन के लिए नहीं, बस यही कोई महीना-बीस दिन के लिए। यदि मुझे दोनों वक्त खाना मिल जाए और रहने के लिए जगह तो मैं अपने आप को सँभाल लूँगा।’’
अनुकूल बाबू ने कहा, ‘‘मुझे अत्यंत दुःख है अतुल बाबू, मेरे सभी कमरे लगे हुए हैं।’’
अतुल ने एक निश्श्वास छोड़ते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है, क्या किया जा सकता है? मुझे जाना होगा। कोशिश करता हूँ, यदि पड़ोस की उड़िया बस्ती में कुछ मिल जाए! मेरी एक ही चिंता है, रात में मेरे पैसे कहीं चोरी न हो जाएँ! क्या मुझे एक गिलास पानी मिलेगा?’’
डॉक्टर पानी लाने अंदर चले गए। मुझे उस निस्सहाय नौजवान पर दया आ रही थी। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद मैंने कहा, ‘‘मेरा कमरा काफी बड़ा है। उसमें आसानी से दो व्यक्ति रह सकते हैं, यदि आपको कोई आपत्ति न हो तो?’’
अतुल उछल पड़ा और बोला,‘‘आपत्ति? क्या कह रहे हैं श्रीमान! यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात होगी।’’ उसने तुरंत पॉकेट से नोटों का बंडल निकाल लिया और बोला, ‘‘मुझे कितना देना होगा, आप बताएँ? आपकी बड़ी दया होगी यदि आप मेरा किराया पहले ही जमा कर लें। देखिए, मैं कोई…’’ उसकी आतुरता देखकर मुझे हँसी आ गई, मैंने कहा, ‘‘सब ठीक है, आप किराया बाद में दे सकते हैं। कोई जल्दी नहीं है।’’ अनुकूल बाबू पानी लेकर आ गए तो मैंने उनसे कहा, ‘‘यह नौजवान परेशानी में है। यहाँ फिलहाल मेरे साथ रह सकता है। मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।’’
आभार से अनुगृहीत होकर अतुल ने कहा, ‘‘इन्होंने बड़ी दया दिखाई है, लेकिन मैं आपको अधिक समय के लिए कष्ट नहीं दूँगा। इसी बीच यदि मैं कहीं और व्यवस्था कर पाया तो मैं तुरंत चला जाऊँगा।’’ उसने पानी का गिलास खत्म करके मेज पर रख दिया। अनुकूल बाबू ने विस्मत होकर मुझे देखा और बोले, ‘‘आपके कमरे में? यह भी ठीक है। यदि आपको कोई आपत्ति नहीं तो मुझे क्या कहना है? आपके लिए भी ठीक ही रहेगा। रूम का भाड़ा आधा-आधा बँट जाएगा।’’
मैंने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘नहीं, यह कारण नहीं है? बात दरअसल यह है कि यह नौजवान लगता है परेशानी में है?’’
डॉक्टर हँसा और बोला, ‘‘हाँ, ऐसा लगता है। तब ठीक है, अतुल बाबू! जाइए, अपना सामान ले आइए, आपका यहाँ स्वागत है।’’
‘‘जी हाँ, अवश्य! मेरे पास अधिक सामान नहीं है। बस एक बेडिंग और एक कैनवास बैग। मैं दोनों को होटल में दरबान के पास छोड़कर आया हूँ। मैं अभी जाकर ले आता हूँ।’’
मैंने कहा, ‘‘ठीक है, जाइए और लौटकर लंच हमारे साथ ही लीजिए।’’
‘‘यह तो बहुत ही बढ़िया सुझाव है।’’ अतुल ने अपनी दृष्टि से मुझे आभार प्रकट करते हुए कहा और चला गया।
उसके प्रस्थान के बाद कुछ मिनट तक हम चुपचाप रहे। अनुकूल बाबू गिलास धोने में जैसे खो गए तो मैंने पूछ लिया,‘‘क्या सोच रहे हैं, अनुकूल बाबू?’’
उन्होंने सजग होकर कहा, ‘‘नहीं, कुछ नहीं! किसी की परेशानी में उसकी मदद करना अच्छा काम है। आपने जो किया, ठीक किया। लेकिन जैसाकि आप भी वह कहावत जानते होंगे कि जाने-सुने बिना किसी को अपने यहाँ रख लेना… जो भी हो, मैं समझता हूँ, हमारे लिए कोई दिक्कत नहीं होगी।’’ वे उठे और कमरे से बाहर चले गए।
अतुल मित्र ने मेरे कमरे में रहना शुरू कर दिया। अनुकूल बाबू ने उसके लिए एक चारपाई मेरे कमरे में लगवा दी। अतुल दिन में कुछ ही समय के लिए दिखाई देता। अधिकतर वह बाहर ही रहता। वह सुबह ही नौकरी की तलाश में निकल जाता और देर रात ग्यारह बजे के आस-पास लौटता। लंच के बाद भी वह बाहर चला जाता। लेकिन जितना अल्प समय भी वह मेस में बिताता, वह उसके लिए सभी लोगों से दोस्ती करने के लिए पर्याप्त था। शाम को ‘कॉमन रूम’ में रोजाना उसका बेसब्री से इंतजार होता। लेकिन चूँकि उसको ताश खेलना नहीं आता था, वह थोड़ी देर बाद चुपचाप नीचे डॉक्टर से गप्प मारने चला जाता। उससे मेरी दोस्ती जल्दी ही हो गई; क्योंकि हम दोनों हमउम्र थे, इसलिए जल्दी ही हमारे बीच में औपचारिकताएँ खत्म हो गईं।
अतुल के आने के बाद एक सप्ताह सबकुछ शांति से बीता, लेकिन उसके बाद मेस में कुछ अजीब घटनाएँ होने लगीं।
एक दिन शाम को मैं और अतुल अनुकूल बाबू से बातचीत कर रहे थे। मरीजों की भीड़ घटकर कम रह गई थी। इक्का-दुक्का रोगी अब भी आ रहे थे। अनुकूल बाबू उनको दवा दे रहे थे। साथ-साथ ‘कैश बॉक्स’ सँभालते हुए हम लोगों से बातें भी कर रहे थे। इलाके में कुछ गरमा-गरमी थी और अफवाहों का बाजार गरम था, क्योंकि पिछली रात हमारे मेस के सामने के मैदान में हत्या हो गई थी और लाश सुबह मिली थी। अफवाहें इसलिए भी गरम थीं, क्योंकि लाश की पहचान में वह व्यक्ति गरीब तबके का अबंगाली प्रतीत होता था, किंतु उसकी धोती के फेंटे से सौ- सौ के नोटों की गड्डी बरामद हुई थी।
डॉक्टर का कहना था, ‘‘यह सब कोकेन की तस्करी से ताल्लुक रखता है, क्योंकि यदि हत्या पैसों के लिए की गई होती तो मरनेवाले के फेंटे से एक हजार के नोटों का बंडल कैसे बरामद होता? मेरा मानना है कि वह व्यक्ति कोकेन खरीदने आया था और इसी दौरान उसे स्मगलर के अड्डे के कुछ रहस्य पता लग गए। हो सकता है, उसने पुलिस में जाने की या फिर ‘ब्लैकमेल’ करने की धमकी दी हो तो उसके बाद…’’
अतुल ने कहा, ‘‘मैं यह सब नहीं जानता, सर! मैं तो डर गया हूँ। आप लोग कैसे इस इलाके में रहते हैं? मुझे यदि पहले पता होता तो…’’ डॉक्टर ने हँसकर कहा, ‘‘तब क्या करते? ज्यादा-से-ज्यादा पड़ोस के उड़िया बस्ती में जाते, हैं न? लेकिन देखिए, हमें कोई डर नहीं लगता! मैं इस इलाके में पिछले लगभग दस वर्षों से रह रहा हूँ। मैंने कभी किसी के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया है। मुझे आज तक कोई दिक्कत या परेशानी नहीं हुई है।’’
अतुल ने आहिस्ता से कहा, ‘‘अनुकूल बाबू, मुझे यकीन है, आपको भी कुछ रहस्य की जानकारी होगी, है न?’’
एकाएक हमें एक आवाज सुनाई दी। हमने पीछे घूमकर देखा कि अश्विनी बाबू दरवाजों से झाँककर हमारी बातें सुन रहे हैं। उनके चेहरे का रंग पीला पड़ गया था। मैंने पूछा, ‘‘क्या बात हैं अश्विनी बाबू! आप यहाँ नीचे? इस समय क्या कर रहे हैं?’’
अश्विनी घबरा गए और बड़बड़ाए, ‘‘नहीं, कुछ नहीं, मैं तो…मुझे बीड़ी चाहिए थी’’ और बड़बड़ाते हुए ऊपर सीढ़ी चढ़ गए।
हम सबने बारी-बारी से एक-दूसरे को देखा। हम सभी में बुजुर्ग अश्विनी बाबू के लिए काफी सम्मान था; किंतु वे नीचे आकर, चुपचाप हमारी बातें सुन रहे थे?’’
हम लोग जब रात के खाने पर बैठे तो पता चला कि अश्विनी बाबू पहले ही खा चुके हैं। खाने के बाद मैंने रोज की तरह अपना चरूट सुलगाया और अपने कमरे में जाने के लिए उठ गया। कमरे में मैंने देखा, अतुल जमीन पर केवल तकिया लगाए लेटा है। मुझे कुछ आश्चर्य हुआ, क्योंकि अभी इतनी गरमी नहीं पड़ी थी कि फर्श पर सोया जाए। कमरे में अंधकार था और अतुल भी चुपचाप लेटा था। मुझे लगा, वह थककर सो गया है। लाइट जलाने से अतुल जाग जाएगा, इसलिए, पढ़ना या लिखना तो हो नहीं सकता। उसकी कमी को मैं कमरे में चलकर ही पूरी करना चाहता था। इतने में मुझे अश्विनी बाबू का खयाल आया। मुझे लगा, मुझे जाकर देखना चाहिए। हो सकता है, उनकी तबीयत ठीक न हो! उनका कमरा मेरे कमरे से दो कमरे छोड़कर था। कमरा खुला हुआ था और मेरे आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं मिला तो उत्सुकतावश मैं कमरे में घुसा। लाइट का स्विच दरवाजे के पीछे था। मैंने लाइट जलाकर देखा, कमरा खाली है। मैंने खिड़की के बाहर झाँककर देखा तो कुछ भी नहीं दिखाई दिया।
तो वास्तव में वे इतनी रात में गए तो गए कहाँ? एकाएक याद आया। हो सकता है, वे नीचे डॉक्टर से दवा लेने गए हों? यह सोचकर मैं तेजी से नीचे गया। डॉक्टर का दरवाजा अंदर से बंद था। वे शायद सो गए थे। मैं दरवाजे के बाहर कुछ मिनट असमंजस में खड़ा रहा। मैं वापस जा ही रहा था कि मुझे कमरे के भीतर कुछ आवाजें सुनाई दीं। अश्विनी बाबू ऊँची आवाज में कुछ कह रहे थे।
पहले तो मुझे लगा, मैं उनकी बातें सुनूँ, फिर अपने पर नियंत्रण करके सोचा, अश्विनी बाबू शायद अपनी बीमारी डॉक्टर को बता रहे हैं। मुझे नहीं सुनना चाहिए और मैं चुपचाप सीढ़ी चढ़कर अपने कमरे में आ गया। देखा, अतुल ज्यों-की-ज्यों वैसे ही फर्श पर लेटा है। मेरे अंदर आते ही उसने गरदन उठाकर मुझसे पूछा, ‘‘अश्विनी बाबू अपने कमरे में नहीं हैं, है न?’’
मैं उसकी बात से चौंक गया, ‘‘नहीं, पर क्या तुम सोए नहीं हो?’’
‘‘हाँ, अश्विनी बाबू नीचे डॉक्टर के पास हैं।’’
‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’
‘‘इसके लिए बस एक काम करने की जरूरत है, फर्श पर लेट जाओ और अपने कानों को तकिए से लगा दो।’’
‘‘क्या? तुम पागल हो गए क्या?’’
‘‘मैं पागल नहीं, ठीक हूँ! जरा तुम यह कोशिश करो।’’
उत्सुकतावश मैंने भी फर्श पर लेटकर तकिए पर कान लगाए। कुछ क्षण बाद मुझे दोनों की आवाजें साफ-साफ सुनाई देने लग गईं और तब मुझे अनुकूल बाबू की तेज आवाज सुनाई दी। वे कह रहे थे,‘‘लगता है, आप उत्सुकता में ज्यादा व्याकुल हो गए हैं। यह कुछ नहीं, यह केवल आपके मस्तिष्क का भ्रम है। गहरी नींद में ऐसा अकसर हो जाता है। मैं आपको दवा दे रहा हूँ। उसे खाकर सोने चले जाएँ। सुबह उठकर भी यदि आपको ऐसा कुछ लगे तो आप चाहे जो कर लीजिएगा।’’
अनुकूल बाबू का उत्तर जरा अस्पष्ट था। नीचे से कुरसी सरकाने की आवाजों से लगा कि दोनों उठ गए हैं। मैं यह कहते हुए फर्श से उठ गया,‘‘मैं तो यह भूल ही गया था कि डॉक्टर का कमरा हमारे कमरे के ठीक नीचे है। लेकिन आप क्या सोचते हैं, मामला क्या है? अश्विनी बाबू को हुआ क्या है?’’
अतुल ने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘कौन जाने? बहुत रात हो गई। चलो सोते हैं।’’
संदेह को मिटाने के लिए मैंने पूछ लिया, ‘‘आप फर्श पर क्यों लेटे थे?’’
अतुल बोला, ‘‘दिनभर सड़कों को नापते-नापते मैं बहुत थक गया था और मुझे फर्श ठंडा लगा। इसलिए मैं लेट गया, लेकिन आपके आने से पहले इनकी आवाजें कान में पड़ने लगीं और मैं जाग गया।’’
मुझे अश्विनी बाबू के सीढ़ियों पर चढ़ने की पदचाप सुनाई दी। वे अपने कमरे में घुसे और दरवाजा बंद की आवाज हुई। मैंने अपनी घड़ी देखी, ग्यारह बज रहे थे। अतुल भी सो चुका था और मेस में सब शांत हो गया था। मैं लेटे हुए अश्विनी बाबू के बारे में सोचता रहा और कुछ देर बाद सो गया।
सुबह होते ही अतुल ने मुझे जगाया। सात बजे थे, ‘‘ऐ भाई उठो। यहाँ कुछ गोलमाल है।’’
‘‘क्यों? क्या हुआ है?’’
‘‘अश्विनी बाबू कमरा नहीं खोल रहे हैं। वे आवाज देने पर उत्तर भी नहीं दे रहे हैं।’’
‘‘क्या हुआ है उन्हें?’’
‘‘कोई नहीं जानता। आओ चलकर देखें।’’ और तेजी से वह कमरे से निकल गया। मैं उसके पीछे-पीछे गया तो सभी अश्विनी बाबू के कमरे के सामने एकत्र थे। जोर-जोर की आवाजों में तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे थे और दरवाजा पीटा जा रहा था। अनुकूल बाबू भी नीचे से आ गए थे। सभी लोग बहुत उत्सुक दिखाई दे रहे थे, क्योंकि अश्विनी बाबू को इतनी देर तक सोने की आदत नहीं थी और यदि सो भी रहे थे तो क्या दरवाजे को इतना भड़भड़ाने पर भी उनकी नींद नहीं खुली थी?
अतुल ने अनुकूल बाबू के पास जाकर कहा, ‘‘देखिए, हम लोग दरवाजा तोड़ देते हैं। मुझे दाल में कुछ काला दिखाई दे रहा है।’’
अनुकूल बाबू ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘‘हाँ-हाँ, और कोई चारा नहीं है। संभव है, वे बेहोश हों, अन्यथा क्यों नहीं उत्तर दे रहे? हमें अधिक देर नहीं करनी चाहिए। कृपया सब मिलकर दरवाजा तोड़ डालिए।’’
दरवाजा लकड़ी का था। मोटाई लगभग डेढ़ इंच रही होगी और उसमें येल ताला लगा था। लेकिन जब अतुल के साथ-साथ कई लोगों ने जोर का धक्का मारा तो ब्रिटिश ताला एक आवाज के साथ दरवाजे के साथ टूटकर गिर गया। दरवाजा गिरते ही जो दृश्य हमारे सामने आया, उसे देखकर भय और दहशत से हमारी साँसें थम गईं। अश्विनी बाबू कमरे के अंदर पीठ के बल लेटे हुए थे। उनका गला एक ओर से दूसरी ओर तक कटा हुआ। खून की धार फर्श पर उनके सिर के नीचे से होते हुए कंधे के नीचे जमकर लाल मखमल के टुकड़े जैसी दिखाई दे रही थी। उनके दाहिने हाथ की उँगलियों के नीचे खून से लथ-पथ रेजर ब्लेड एक दुष्ट की तरह हमारी नजरों का मजाक उड़ा रहा था।
हम सब जड़ गए जैसे उसी स्थान पर खड़े रह गए। उसके बाद अतुल बाबू और अनुकूल बाबू, दोनों ने एक साथ कमरे में प्रवेश किया।
अनुकूल बाबू ने घृणा मिश्रित चिंता से लाश को देखा और उखड़ी आवाज में बड़बड़ाए, ‘‘ओ बाबा! क्या भयानक! अश्विनी बाबू ने अपना जीवन अपने आप ही ले लिया!’’
लेकिन अतुल की दृष्टि लाश पर नहीं थी। उसकी नजर कमरे की प्रत्येक वस्तु और कमरे के हरेक कोने पर तेज कटार की तरह घूम रही थी। उसने पहले चारपाई को देखा। सड़क पर खुलने वाली खिड़की से झाँककर देखा और हम लोगों के पास आकर धीरे से कहा,‘‘आत्महत्या नहीं, हत्या है। एक जघन्य हत्या है। मैं पुलिस को बताने जा रहा हूँ। कृपया कोई भी किसी चीज को हाथ न लगाए।’’
अनुकूल बाबू बोले, ‘‘क्या बात कर रहे हैं, अतुल बाबू, हत्या? लेकिन दरवाजा तो अंदर से बंद था और फिर वह देखिए।’’, उन्होंने खून से लथ-पथ हथियार की ओर इशारा किया।
अतुल ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘यह जो भी हो, लेकिन यह हत्या है। आप सब लोग यहीं रहें, मैं अभी पुलिस को बुलाकर लाता हूँ।’’ वह तेजी से बाहर चला गया।
अनुकूल बाबू हाथों में अपना सिर पकड़कर बैठ गए, ‘‘हे भगवान्! यह सब मेरे ही घर में होना था!’’
पुलिस ने हम सभी से पूछताछ की, जिसमें नौकर और महाराज भी शामिल थे। लेकिन अश्विनी बाबू की मृत्यु पर किसी के बयान से यह पता नहीं लग पाया कि उनकी हत्या क्यों हुई?
अश्विनी बाबू एक सीधे-सादे सज्जन थे, जिनके मेस तथा दफ्तर के अलावा और कोई दोस्त नहीं थे। वे प्रत्येक शनिवार को अपने घर जाया करते थे। इस साप्ताहिक क्रम में पिछले दस-बारह वर्षों से कभी चूक नहीं हुई थी। पिछले कुछ समय से वे डायबिटीज रोग से ग्रस्त थे। ऐसी कुछ ही बातों का पता चल पाया।
डॉक्टर ने अपना बयान दिया। जो कुछ उसने कहा, उसने अश्विनी बाबू की मृत्यु को और गूढ़ बना दिया, ‘‘अश्विनी बाबू मेरे मेस में पिछले बारह वर्षों से रह रहे थे। उनका घर बर्दवान जिले के हरिहरपुर ग्राम में है। वे एक मर्केंटाइल फर्म में नौकरी करते थे, जहाँ उनका वेतन एक सौ तीस रुपया था। इतनी कम आय में कलकत्ता में सपरिवार रहना संभव नहीं था, इसलिए वे अकेले ही मेस में रहते थे।
‘‘जहाँ तक मैं जानता हूँ, अश्विनी बाबू एक सीधे-सादे और जिम्मेदार सज्जन थे। वे उधार लेने पर विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उन पर कोई कर्ज वगैरह नहीं था। जहाँ तक मैं जानता हूँ, उनमें नशे आदि का कोई ऐब नहीं था। इस मेस का हर व्यक्ति इस बात की तसदीक कर सकता है।
‘‘उनके पूरे प्रवास में मैंने उनमें कभी कोई संदिग्ध आचरण नहीं पाया। पिछले कुछ महीने से उन्हें डायबिटीज की शिकायत थी, इसलिए मैं उनका उपचार कर रहा था, लेकिन मैंने कभी उनमें कोई मानसिक विकार का संकेत नहीं पाया। कल पहली बार मैंने उनका व्यवहार कुछ असामान्य पाया।
‘‘कल सुबह लगभग नौ बजकर पैंतालीस मिनट पर मैं अपने कमरे में बैठा था, जब एकाएक अश्विनी बाबू अंदर आए और बोले, ‘डॉक्टर, मैं प्राइवेट में आपसे कुछ विमर्श करना चाहता हूँ।’ मैंने कुछ आश्चर्य से उन्हें देखा। वे काफी परेशान दिखाई दे रहे थे। मैंने पूछा, ‘क्या बात है?’ उन्होंने चारों तरफ देखा और आहिस्ता से बोले, ‘अभी नहीं, फिर कभी!’ और जल्दबाजी में अपने दफ्तर के लिए निकल गए।
‘‘शाम को अजित बाबू, अतुल बाबू और मैं बात कर रहे थे, तब अजित बाबू ने पीछे मुड़कर देखा कि अश्विनी बाबू दरवाजे के पीछे छुपकर हमारी बातें सुन रहे हैं। जब हमने उन्हें पुकारा तो कुछ बहाना बनाते हुए तेजी से चले गए। हम सभी आश्चर्यचकित थे कि उन्हें क्या हुआ है?
‘‘तब लगभग दस बजे वे मेरे कमरे में आए। उनके चेहरे से यह स्पष्ट हो रहा था कि उनके दिमाग में कुछ उथल-पुथल हो रही है। उन्होंने घुसते ही दरवाजा बंद कर लिया और कुछ देर तक कुछ बड़बड़ाते रहे। पहले तो बोले कि उन्हें भयंकर सपने आ रहे हैं और फिर बोले, उन्हें कुछ भयानक रहस्यों का पता लगा है। मैंने उन्हें शांत करने के लिए प्रयास किया, किंतु वे उत्तेजना में बोलते गए। आखिरकर मैंने उन्हें सोने की दवा देकर कहा कि आज की रात वे इसे खाकर सो जाएँ। मैं कल सुबह आपकी बातें सुनूँगा। वे दवा लेकर ऊपर अपने कमरे में चले गए।
‘‘यह अंतिम बार था, जब मैंने उन्हें देखा था और फिर सुबह यह हो गया। मुझे उनके मानसिक संतुलन के बारे में शक जरूर हुआ था, किंतु मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह क्षणिक व्याकुलता उन्हें अपना ही जीवन लेने पर मजबूर कर देगी।’’
जब अनुकूल ने अपना बयान समाप्त कर दिया, तब इंस्पेक्टर ने पूछा, ‘‘तो आपका मत यह है कि यह आत्महत्या है?’’
अनुकूल बाबू ने उत्तर दिया, ‘‘और क्या हो सकता है? फिर भी अतुल बाबू का कहना है कि यह आत्महत्या नहीं है, यह कुछ और है। इस विषय पर शायद वे मुझसे ज्यादा जानते हैं। वे ही बताएँगे अपने विचार।’’
इंस्पेक्टर ने अतुल बाबू की ओर मुड़कर कहा, ‘‘अतुल बाबू, आप ही हैं न? क्या आपके पास कोई कारण है, जिसके आधार पर आपकी धारणा है कि यह आत्महत्या नहीं है?’’
‘‘जी हाँ! कोई भी व्यक्ति अपना गला इतने वीभत्स तरीके से नहीं काट सकता। आपने लाश देखी है। जरा सोचिए, यह असंभव है।’’
इंस्पेक्टर कुछ क्षण तक सोचता रहा। फिर उसने प्रश्न किया,‘‘क्या आपको कोई आइडिया है कि हत्यारा कौन हो सकता है?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्या आप सोच सकते हैं कि हत्या के पीछे उद्देश्य क्या हो सकता है?’’
अतुल ने खिड़की की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह खिड़की ही हत्या का कारण है।’’
इंस्पेक्टर ने एकाएक चौंककर पूछा, ‘‘खिड़की हत्या का कारण है? आपका मतलब हत्यारा इस खिड़की से अंदर आया?’’
‘‘नहीं, हत्यारा तो दरवाजे से ही अंदर घुसा।’’
इंस्पेक्टर ने अपनी हँसी रोकते हुए कहा, ‘‘शायद आपको याद नहीं है कि दरवाजा अंदर से बंद था?’’
‘‘मुझे याद है।’’
थोड़ा मजाकिया अंदाज में इंस्पेक्टर बोला, ‘‘तो क्या अश्विनी बाबू ने हत्या के बाद दरवाजा बंद कर दिया?’’
‘‘जी नहीं, हत्यारे ने हत्या के बाद कमरे से बाहर आकर दरवाजा लॉक कर दिया।
‘‘यह कैसे संभव है?’’
अतुल बाबू मुसकराकर बोले, ‘‘बड़ा आसान है। जरा तसल्ली से सोचिए तो आपको समझ में आ जाएगा।’’
इस सबके बीच अनुकूल बाबू ने दरवाजे को आगे-पीछे से देखा और बोले, ‘‘यह सही है। बिल्कुल सही है। दरवाजा आसानी से अंदर और बाहर दोनों ओर से बंद हो सकता है। हम लोगों ने ध्यान नहीं दिया। देखिए, यह इसमें ‘येल लॉक’ लगा है।’’
अतुल ने कहा, ‘‘दरवाजे में लॉक लग जाता है, यदि आप बाहर से लॉक लगा दें। तब अंदर से खोले बिना वह खुल नहीं सकता।’’
इंस्पेक्टर अनुभवी व्यक्ति था। गहन सोच में अपनी ठोढ़ी को अंगुली से ठोंकते हुए बोला,‘‘यह मुमकिन है। लेकिन एक बात अभी भी उलझी हुई है। क्या इसका कोई सबूत है कि अश्विनी बाबू ने रात को दरवाजा खुला ही छोड़ दिया था?’’
अतुल बोला, ‘‘नहीं, सच्चाई यह है कि उन्होंने दरवाजा लॉक कर दिया था। इसका सबूत है।’’ मैंने इस बात के सबूत रूप में कहा, ‘‘यह सही है, क्योंकि मैंने दरवाजा बंद करने की आवाज सुनी थी।’’
इंस्पेक्टर बोला, ‘‘तो ठीक है। तब यह मुमकिन नहीं लगता कि अश्विनी बाबू उठकर अपने हत्यारे के लिए दरवाजा खोलेंगे। है कि नहीं?’’
अतुल ने कहा, ‘‘नहीं, लेकिन संभवतः आपको याद हो कि अश्विनी बाबू पिछले कुछ महीनों से एक बीमारी से ग्रस्त थे।’’
‘‘बीमारी? ओह, आप ठीक कह रहे हैं? अतुल बाबू यह बात तो मेरे दिमाग से निकल ही गई।’’ और फिर बड़े इत्मीनान से इंस्पेक्टर उसकी ओर मुड़कर बोला, ‘‘मैं देख रहा हूँ, आप काफी बुद्धिमान व्यक्ति हैं। क्यों नहीं पुलिस में भरती हो जाते। पुलिस में काफी आगे बढ़ जाएँगे। लेकिन मामला अब भी उलझा पड़ा है और उलझता ही जा रहा है। यदि यह वास्तव में हत्या ही है, तब यह स्पष्ट है कि हत्यारा बहुत ही शातिर है। क्या आप लोगों को यहाँ किसी पर संदेह है?’’ उसने सभी को बारी-बारी से देखना शुरू कर दिया।
हम सभी ने अपनी गरदन हिलाकर इनकार कर दिया। अनुकूल बाबू ने कहा, ‘‘देखिए सर! आप शायद जानते होंगे, इस इलाके में आए दिन हत्या होना बड़ी बात नहीं है। अभी परसों ही एक हत्या इस घर के ठीक सामने हुई थी। मेरा मानना है कि यह सारी हत्याएँ एक-दूसरे से जुड़ी हैं। यदि एक का पता लग जाए तो सभी का रहस्य उजागर हो जाएगा। और यह तभी हो सकता है, जब हम वास्तव में अश्विनी बाबू की मृत्यु को हत्या मानकर चलें।’’
इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘यह बात सही है, लेकिन यदि हम इसके साथ दूसरी हत्याओं को सुलझाना चाहेंगे तो मुझे लगता है यह जाँच कभी खत्म ही न होगी।’’
अतुल बोला, ‘‘यदि आप इस हत्या की तह में जाना चाहते हैं तो केवल इस खिड़की पर ध्यान केंद्रित कीजिए।’’
थके शब्दों में इंस्पेक्टर ने उत्तर दिया, ‘‘हमें एक नहीं, सभी पहलुओं पर विचार करना होगा अतुल बाबू! मुझे अब आप लोगों के कमरों की तलाशी लेनी है।’’
सभी ऊपर-नीचे के कमरों की पूरी छानबीन की गई, किंतु कहीं से हत्या की गुत्थी सुलझने का कोई सुराग नहीं मिल पाया। अश्विनी बाबू के कमरे की भी जाँच हुई, किंतु उसमें भी कुछ साधारण पत्रों के अलावा कुछ नहीं मिला। रेजर की खाली डिबिया पलंग के नीचे पड़ी मिली। हम सभी लोग जानते थे कि अश्विनी बाबू अपनी दाढ़ी स्वयं बनाते थे और इसलिए इसे उस डिबिया को पहचानने में मुश्किल नहीं हुई। लाश को पहले ही उठा लिया गया था। उसके बाद उनके रूम को बंद करके सील कर दिया गया। अपना काम करके इंस्पेक्टर दोपहर लगभग डेढ़ बजे चला गया।
अश्विनी बाबू के परिवार को तार द्वारा खबर कर दी गई थी। शाम तक उनका बेटा निकट संबंधियों सहित आ गया। वे सभी इस दुर्घटना से हतप्रभ थे। यद्यपि हम लोगों का अश्विनी बाबू से कोई रिश्ता नहीं था, फिर भी हममें से प्रत्येक सदस्य इस घटना से शोक संतप्त था। इसके अतिरिक्त हम लोग भी जान के खतरे से सहमे हुए थे। यदि यह घटना हमारे साथी के साथ हो गई है तो हमारे साथ भी हो सकती है। पूरा दिन इसी उधेड़बुन में व्यतीत हो गया।
रात में सोने से पहले मैं डॉक्टर के पास गया। उनके चेहरे पर अब भी गंभीरता छाई हुई थी। पूरे दिन की घटनाओं से उनके शांत और स्थिर चेहरे पर क्लांति और चिंता की रेखाएँ उभर आई थीं। मैं उनके पास बैठ गया और बोला, ‘‘मेरे खयाल से प्रत्येक सदस्य किसी दूसरी जगह जाने के बारे में सोच रहा है।’’
अनुकूल बाबू ने एक हारी मुसकान के साथ कहा, ‘‘इनका इसमें क्या दोष है, अजित बाबू? कौन चाहेगा ऐसी जगह रहना, जहाँ ऐसी दुर्घटना होती हो? लेकिन मैं अब तक यही सोच रहा हूँ कि यह वास्तव में हत्या है या नहीं, क्योंकि यह तय बात है कि कोई बाहर का व्यक्ति तो यह कर नहीं सकता, जो कुछ हुआ है, उसको देखकर तो यही लगता है, क्योंकि हत्यारा प्रथम तल तक पहुँचेगा कैसे? आप सभी जानते हैं कि मेस का दरवाजा रात को अंदर से बंद कर दिया जाता है, इसलिए बाहर का आदमी, अंदर आकर सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता। फिर अगर मान भी लिया जाए कि हत्यारा असंभव को संभव बनाने में सफल हो भी गया, तो उसे अश्विनी बाबू के कमरे में रेजर ब्लेड कैसे मिल गया? क्या ऐसा नहीं लगता है कि संभावना को ज्यादा ही महत्त्व दिया जा रहा है? यह सब साबित करता है कि अपराध में बाहरी व्यक्ति का हाथ नहीं है। ऐसी स्थिति में यह काम मेस में रहनेवालों को छोड़कर और किसका हो सकता है? हम लोगों में से कौन हो सकता है, जो अश्विनी बाबू की जान लेना चाहेगा? अलबत्ता, अतुल बाबू जरूर नए हैं, जिनके बारे में हम लोग ज्यादा जानते नहीं हैं।’’
मैं चौंक गया और मुँह से निकल गया, ‘‘अतुल? अरे नहीं-नहीं, यह मुमकिन नहीं। भला अतुल बाबू क्यों अश्विनी बाबू की जान लेंगे?’’
डॉक्टर ने कहा, ‘‘यही तो! आपकी प्रतिक्रिया से और भी स्पष्ट हो जाता है कि यह काम मेस के किसी व्यक्ति का नहीं हो सकता। तो केवल एक ही संभावना बचती है कि उन्होंने स्वयं ही अपनी जान ली हो, है न?’’
‘‘लेकिन आत्महत्या का भी तो कोई कारण होना चाहिए?’’
‘‘मैं भी यह सोचता रहा हूँ। आपको याद है, मैंने कुछ दिन पहले आपसे कहा था कि इस इलाके में कोकेन स्मगलिंग का कोई गुप्त अड्डा है, कोई नहीं जानता कि उसका मुखिया कौन है?’’
डॉक्टर ने आहिस्ता से कहा, ‘‘अब सोचिए कि अश्विनी बाबू उस अड्डे के मुखिया थे?’’
मैंने आश्चर्यमिश्रित उदासी से कहा, ‘‘क्या? यह कैसे हो सकता है?’’
डॉक्टर ने उत्तर दिया, ‘‘दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। इसके विपरीत इस संदेह में मेरा विश्वास और गहन हो जाता है, यदि मैं अश्विनी बाबू की बातों पर ध्यान देता हूँ, जो कल वे रात मुझसे कर रहे थे। वे अपने से ही घबराए हुए लग रहे थे। जब व्यक्ति खुद ही दहशत में होता है तो अकसर अपना मानसिक संतुलन खो देता है। क्या पता इस सबके कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली! जरा सोचने का प्रयास कीजिए, क्या यह सब कारण का स्पष्टीकरण नहीं करती?’’
मेरा मस्तिष्क इन दलीलों को सुन-सुनकर चकरा गया था। इसलिए मैंने कहा, ‘‘मैं नहीं जानता अनुकूल बाबू! मैं इन सब बातों से कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ। मेरे विचार से आपको अपने संदेहों की चर्चा पुलिस से करनी चाहिए।’’
डॉक्टर उठकर बोले, ‘‘मैं कल करूँगा। जब तक मामला सुलझ नहीं जाता, मुझे चैन नहीं मिलेगा।’’
उसके बाद दो-तीन दिन गुजर गए। इस दौरान बार-बार पुलिस और सी.आई.डी. के विभिन्न अफसरों के आने और बार-बार पूछताछ करने से हम लोगों के पहले ही से चल रहे परेशान दिनों ने जीवन ही दूभर कर दिया। मेस का प्रत्येक सदस्य जल्द-से-जल्द अपने सामान के साथ मेस छोड़ने के लिए तैयार बैठा था, लेकिन पहल करने से डर रहा था। यह सभी के मन में था कि मेस को जल्दी छोड़ना पुलिस की नजर में शंका पैदा कर सकता था।
अब तक यह स्पष्ट होता जा रहा था कि संदेह की सूई मेस के एक व्यक्ति की ओर झुक रही थी, लेकिन हम लोगों को यह अंदाज नहीं हो पा रहा था कि वह व्यक्ति कौन हो सकता है? कभी-कभी क्षणिक भय से दिल की धड़कनें तेज हो जाती थीं कि कहीं वह व्यक्ति मैं तो नहीं हूँ!
एक दिन सुबह मैं और अतुल डॉक्टर के दफ्तर में अखबार पढ़ रहे थे। अनुकूल बाबू के लिए कुछ दवाएँ एक बड़े पैकेट में आई थीं। वे उन्हें खोलकर बड़े यत्न से अपने शेल्फ पर लगा रहे थे। पैकेट में अमेरिकन स्टैंप लगे थे। डॉक्टर कभी देशी दवाओं का प्रयोग नहीं करते थे। जब कभी उन्हें जरूरत होती, वे अमेरिका या जर्मनी से मँगाते थे। लगभग हर माह उनके लिए पानी के जहाज से दवा के पैकेट आते थे।
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अतुल ने अखबार पढ़कर रख दिया और बोला, ‘‘अनुकूल बाबू, आप दवाएँ विदेशों से ही क्यों मँगाते हैं? क्या देशी दवाएँ अच्छी नहीं होतीं? उसने शुगर मिल्क की एक बड़ी बोतल उठाकर दवा निर्माता का नाम पढ़ा ‘ऐरिक एंड हेवल’ क्या यह मार्केट में सर्वोत्कृष्ट है?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘अच्छा बताएँ, क्या होमियोपैथी वाकई बीमारी का इलाज करती है? मुझे कुछ संदेह होता है। कैसे पानी की एक बूँद इलाज कर सकती है?’’
डॉक्टर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तो क्या मैं समझूँ कि ये सब लोग जो दवा लेने आते हैं, बीमारी का नाटक करते हैं?’’
अतुल ने उत्तर दिया, ‘‘संभवतः इलाज प्राकृतिक रूप से होता है, किंतु उसका श्रेय दवा को दिया जाता है। विश्वास अपने आप में ही इलाज है।’’
डॉक्टर केवल मुसकराकर रह गए। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर बाद उन्होंने प्रश्न किया, ‘‘अखबार में हमारे इस घर का कहीं नाम आया है?’’
‘‘नाम है!’’ मैंने जोर से पढ़ना शुरू किया, ‘‘श्री अश्विनी चौधरी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या का रहस्य अभी तक पता नहीं लग पाया है। अब सी.आई.डी. ने केस को अपने जिम्मे ले लिया है। बताया जाता है कि कुछ तथ्यों का पता चला है। अनुमान है कि अपराधी को जल्दी ही पकड़ लिया जाएगा।’’
‘‘मेरी जूती! यह लोग जब तक चाहें उम्मीद की आस लगाए बैठे रहें!’’ डॉक्टर ने मुड़कर देखा और बोले, ‘‘ओह इंस्पेक्टर साहेब!’’
इंस्पेक्टर ने कमरे में प्रवेश किया। पीछे-पीछे दो सिपाही थे। वही पुराना इंस्पेक्टर था। बिना किसी बातचीत के वह सीधे अतुल के पास गया और बोला, ‘‘आपके नाम वारंट है। आपको हमारे साथ पुलिस चौकी चलना होगा। कृपया कोई व्यवधान न डालें। कोई भी प्रयास व्यर्थ होगा। रामधनी सिंह हथकड़ी लगाओ।’’ एक सिपाही आगे बढ़ा और उसने अपने काम को बड़ी दक्षता से पूरा कर दिया।
हम सभी भय और आतंक से खड़े हो गए। अतुल चिल्लाया, ‘‘क्या है यह सब?’’
इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘यह रहा! अतुल चंद्र मित्र को अश्विनी चौधरी की हत्या के अपराध के लिए गिरफ्तार किया जाता है। क्या आप दोनों पहचान सकते हैं कि अतुल चंद्र मित्र यही सज्जन हैं?’’
दहशत से त्रस्त हम दोनों ने अपना सिर हिला दिया।
अतुल ने थोड़ा हँसकर कहा, ‘‘तो आपका संदेह अंततः मेरे ऊपर ही हुआ। तो ठीक है, मैं आपके साथ पुलिस थाने चलता हूँ। अजित घबराना नहीं, मैं निर्दोष हूँ।’’
एक पुलिस वैन आकर मेस के दरवाजे पर रुक गई। सिपाही लोगों ने अतुल को ले जाकर वैन में बिठाया और चले गए। डॉक्टर के दहशत से हुए पीले चेहरे से निकला, ‘‘तो वह अतुल बाबू निकले! कितना अजीब है? चेहरा देखकर किसी की प्रकृति का पता लगाना असंभव है।’’
मेरे जैसे शब्द ही खो गए थे। अतुल…हत्यारा! इतने दिन साथ रहते हुए मेरे अतुल से संबंधों में एक लगाव हो गया था। उसके मृदुल स्वभाव से मैं काफी प्रभावित था और वही अतुल एक हत्यारा! मुझे सच में बड़ा झटका लगा था।
अनुकूल बाबू ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसीलिए यह कहा जाता है कि किसी अजनबी को शरण देते समय दो बार सोचना चाहिए, लेकिन कौन कह सकता था कि वह व्यक्ति इतना…’’
मेरा मन बहुत अशांत हो रहा था। मैं तुरंत कुरसी से उठकर अपने रूम में गया और जोर से दरवाजा बंद करके लेट गया। मेरा मन नहाने या खाने को नहीं हुआ। अतुल की चीजें दूसरी तरफ रखी हुई थीं। उन्हें देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। यह अहसास था कि वह कितना मेरे नजदीक आ गया था।
जाते समय वह बोला था कि वह निर्दोष है। क्या पुलिस से गलती हुई है? मैं उठकर बैठ गया और अश्विनी बाबू की हत्या की रात से एक-एक घटना को विस्तार से सोचने लगा। अतुल फर्श में लेटकर अश्विनी बाबू और डॉक्टर की बातचीत सुन रहा था। वह यह क्यों कर रहा था? उसका क्या प्रयोजन था? यह सोचते-सोचते लगभग ग्यारह बजे मैं भी सो गया था और मेरी आँख सुबह ही खुली थी। क्या पता इसी अवधि में अतुल ने…
लेकिन वह अतुल ही था, जो शुरू से ही यह कहता रहा है कि यह हत्या है, न कि आत्महत्या। यदि हत्या उसी ने की थी, तो क्या वह ऐसा कहकर खुद ही अपने गले में फंदा लगाता? और क्या यह संभव है कि उसने अपने को संदेह से दूर रखने के लिए जान-बूझकर यह कहा हो और पुलिस यह सोचे कि चूँकि उसने खुद ही हत्या की बात पर जोर दिया है, इसलिए हत्यारा वह नहीं हो सकता?
मैं अपने बिस्तर पर करवटें बदल-बदलकर अपने मस्तिष्क को हर तरह से दौड़ाता रहा। उठकर तेज कदमों से इधर-उधर चलकर विचारों में मग्न रहा। अब दोपहर हो गई। घड़ी ने तीन बजाए। मुझे विचार सूझा, क्यों न मैं किसी वकील से राय लूँ? मैं समझ नहीं पा रहा था कि ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए? न ही मैं किसी वकील को जानता था। जो भी हो, मैंने सोचा कि वकील ढूँढ़ना उतना मुश्किल नहीं है। मैं कपड़े बदलने लगा। इतने में दरवाजे पर आहट सुनाई दी। कोई बुला रहा था। मैंने दरवाजा खोला तो देखा अतुल खड़ा है।
‘‘अतुल तुम हो!’’ मैंने खुशी से उसे बाँहों में भर लिया। सारी दुविधाएँ कि वह अपराधी है या नहीं, सब मेरे दिमाग से हट गईं जैसे कभी आई न हों।
उसके बाल उलझे थे और चेहरे पर थकान थी। वह मुसकराकर बोला, ‘‘हाँ अजित, मैं हूँ अतुल! उन्होंने मुझे बड़ा हैरान किया। बड़ी मुश्किल से मुझे एक सज्जन मिले, जिन्होंने मेरी बेल कराई, अन्यथा आज मुझे जेल जाना पड़ता। तुम कहीं जाने के लिए निकल रहे थे?’’
जरा संकोच से मैं बोला, ‘‘वकील के पास।’’
अतुल ने मेरे हाथों को प्यार से दबाकर कहा, ‘‘मेरे लिए? यदि ऐसा है तो अब आवश्यकता नहीं है। जो भी हो, इसके लिए धन्यवाद! मुझे फिलहाल अस्थायी बेल मिल गई है।’’
हम लोग वापस कमरे में आकर बैठ गए। अपनी कमीज उतारते हुए अतुल बोला, ‘‘उफ! मेरा सिर चकरा रहा है। मैंने दिनभर से कुछ नहीं खाया है। लगता है, तुमने भी नहीं खाया है, तो चलो जल्दी से नहा लें और चलकर खाना खाएँ। मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं।’’
मैं अपने संदेह को समाप्त करना चाहता था, इसलिए मुँह से निकल गया, ‘‘अतुल तुमने क्या…?’’
‘‘तुमने क्या? अश्विनी बाबू की हत्या की है या नहीं?’’ अतुल फीकी हँसी हँसकर बोला, ‘‘यह बहस हम लोग बाद में करेंगे। इस समय हमें जरूरी है खाना। मुझे चक्कर आ रहे हैं। लेकिन इस समय नहाने से अधिक और कुछ जरूरी नहीं है।’’
डॉक्टर कमरे में आ गए। अतुल ने उन्हें देखकर कहा, ‘‘अनुकूल बाबू! कहावत के अनुसार विलक्षण प्रतिभा की तरह मैं लौट आया हूँ। अंग्रेजी में एक कहावत है, खोटा सिक्का नहीं चलता। मेरी स्थिति बिल्कुल वैसी ही है। पुलिस ने भी बैरंग वापस कर दिया।’’
गंभीर मुखमुद्रा में डॉक्टर ने कहा, ‘‘अतुल बाबू! यह जानकर खुशी हुई कि आप वापस लौट आए हैं। शायद पुलिस ने भी आपको निर्दोष पाया हो और छोड़ दिया हो। लेकिन आप अब यहाँ और नहीं…मैं समझता हूँ, आप समझ गए होंगे, मेरा मंतव्य क्या है? यह पूरे मेस का सवाल है। सभी चाहते हैं जाना, देखिए मुझे अन्यथा न लीजिए। मुझे आपके खिलाफ व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं है, पर…’’
अतुल ने तुरंत जवाब दिया, ‘‘ओह, मैं समझ गया। निश्चित रूप से। मुझ पर तो अपराधी का बिल्ला लग चुका है। मुझे शरण देकर आप क्यों मुसीबत में पड़ना चाहेंगे? क्या पता पुलिस आपके विरूद्ध भी अपराध उकसाने या मदद करने का चार्ज ला सकती है, कैसे कहा जाए? तो क्या आप चाहते हैं कि मैं आज ही मेस छोड़ दूँ?’’
डॉक्टर कुछ देर तो चुप रहा, फिर अनिच्छा से बोला, ‘‘ठीक है, आज रात रह जाइए, किंतु कल सवेरे।’’ अतुल बोला, ‘‘जरूर, मैं कल आपको कष्ट नहीं दूँगा। कल मैं अपनी जगह तलाश कर लूँगा। जहाँ भी हो, कुछ न मिला तो अंततः पड़ोस में उड़िया होटल तो मिल ही जाएगा।’’ और वह हँस दिया।
अनुकूल बाबू ने पुलिस स्टेशन में हुई बातों को पूछना चाहा, जिसके उत्तर में अतुल दो-एक मामूली बातें बताकर नहाने चला गया। डॉक्टर ने मुझसे कहा, ‘‘मुझे लग रहा है कि मैंने अतुल बाबू को नाराज कर दिया, लेकिन मेरे पास कोई दूसरा उपाय नहीं है। मेस पहले ही बदनाम हो चुका है। यदि मैं उसमें किसी अपराधी को और शरण दूँ तो सुरक्षा की दृष्टि से क्या सही होगा, आप ही कहिए?’’
सच्चाई यह थी कि सुरक्षा और अपने को बचाए रखने के एहतियात के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मैंने उदासी से सिर हिलाकर हाँ में हाँ मिलाई और कहा, ‘‘देखिए आप मेस के स्वामी हैं। इसलिए आप जो ठीक समझते हैं, वह आपको करना पड़ेगा।’’
मैंने भी कंधे पर तौलिया डाला और बाथरूम की तरफ बढ़ गया। डॉक्टर पश्चात्ताप की मुद्रा में चुपचाप अकेले बैठे रह गए।
मैं और अतुल लंच के बाद अपने कमरे में आ रहे थे कि देखा, घनश्याम बाबू दफ्तर से आ रहे हैं। उन्होंने जैसे ही अतुल को देखा तो चेहरा सफेद हो गया। चिल्लाकर बोले, ‘‘अतुल बाबू आप? क्या वाकई में…’’
अतुल थोड़ा मुसकराया और बोला, ‘‘हाँ, मैं अतुल ही हूँ, घनश्याम बाबू, क्या आप दृष्टिदोष समझ रहे हैं?’’
घनश्याम बाबू बोले, ‘‘लेकिन मैने सोचा, पुलिस ने…’’ उन्होंने दो बार थूक को गले में निगला और तेजी से अपने कमरे में चले गए।
अतुल ने खुशी में आँखें नचाकर धीरे से कहा, ‘‘एक बार का अपराधी सदा ही अपराधी रहता है, है न? लगता है, घनश्याम बाबू मुझे देखकर चौंककर घबरा गए।’’
उसी शाम अतुल बाबू ने बताया, ‘‘ऐ भाई! हमारे दरवाजे में जो लॉक लगा है, लगता है वह टूट गया है।’’
मैंने भी देखा, हमारे दरवाजे का विदेशी ताला काम नहीं कर रहा था। हमने अनुकूल बाबू को बताया। उन्होंने भी आकर देखा और बोले, विदेश के तालों में यही समस्या है। जब तक ठीक हैं, तब तक बढ़िया काम करते हैं, पर जब खराब हो जाएँ तो इंजीनियर को छोड़कर कोई बना ही नहीं सकता। हमारे देशी ताले इससे कहीं अच्छे हैं। जो भी हो, मैं कल सुबह पहला काम इसे ठीक कराऊँगा।’’ और वे सीढ़ियों से वापस उतर गए।
रात को सोने से पहले अतुल ने कहा, ‘‘अजित, सिर दर्द से फटा जा रहा है, क्या तुम कुछ सुझा सकते हो?’’
मैंने कहा, ‘‘तुम अनुकूल बाबू से दवा क्यों नहीं ले लेते?’’
अतुल बोला, ‘‘होमियोपैथी? क्या उससे कुछ होगा? चलो ठीक है, देखा जाए! पानी की बूँदें क्या कुछ कर सकती हैं?’’
मैंने कहा, ‘‘मैं भी चलता हूँ तुम्हारे साथ। मुझे भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।’’
डॉक्टर अपनी दुकान बंद करने जा रहे थे। हमें देखते ही उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। अतुल बोला, ‘‘हम लोग आपकी दवा चखने आए हैं। मुझे बड़े जोरों का सिरदर्द हो रहा है। क्या आप मदद कर सकते हैं?’’
डॉक्टर ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, ‘‘अवश्य, मैं जरूर आपको राहत दिला सकता हूँ। यह और कुछ नहीं, थोड़ी सी बदहजमी है, जो आपको परेशान कर रही है। इसी से सिरदर्द है। बैठिए, मैं अभी एक डोज देता हूँ।’’ उन्होंने कुछ ताजी दवाई शेल्फ से निकाली। एक पुड़िया बनाकर दी और बोले, ‘‘जाइए, इसे खाकर सो जाइए। आप को याद भी नहीं रहेगा कि आपको सिरदर्द था भी या नहीं। अजित बाबू! आप भी कुछ बुझे-बुझे लग रहे हैं। उत्तेजना के बाद आप भी थकान से पस्त दिखाई देते हैं, क्यों, है न यही बात? तो क्यों न मैं आपको भी दवा दे दूँ, ताकि सुबह आप भी स्वस्थ और ताजा महसूस करें?’’
हम दवा लेकर वापस जा ही रहे थे कि अतुल ने अनुकूल बाबू से पूछा, ‘‘क्या आप ब्योमकेश बक्शी नामक किसी व्यक्ति को जानते हैं?’’
थोड़ा चौंककर अनुकूल बाबू बोले, ‘‘नहीं तो, ये कौन हैं?’’
अतुल ने कहा, ‘‘मैं भी नहीं जानता। मैंने इनका नाम आज पुलिस स्टेशन में सुना। मुझे लगता है, वे ही इस केस के इनचार्ज हैं।’’
डॉक्टर ने दुबारा सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं, मैंने कभी यह नाम नहीं सुना।’’
अपने कमरे में लौटने के बाद मैंने कहा, ‘‘अतुल, अब तुम्हें मुझे सबकुछ बताना होगा।’’
‘‘क्या सबकुछ बताऊँ?’’
‘‘तुम मुझसे कुछ छुपा रहे हो। लेकिन यह नहीं चलेगा। तुम्हें मुझे सबकुछ बताना होगा।’’
अतुल कुछ देर शांत रहा, फिर एक नजर दरवाजे पर डालकर वह बोला, ‘‘अच्छा ठीक है! मैं बताता हूँ। आओ इधर आकर मेरे बेड पर बैठो। मैं भी सोच रहा था कि समय आ गया है कि तुम्हें भी कुछ बता दिया जाए।’’
मैं उसके बेड पर बैठ गया। अतुल भी दरवाजा बंद करके मेरे पास ही बैठा। मेरे हाथ में दवा की पुड़िया थी। मैंने सोचा, मैं उसे खा लूँ, फिर उसकी बातें सुनूँ। लेकिन जैसे ही मैं दवा खाने को उठा, उसने टोक दिया, ‘‘उसे अभी रहने दो। पहले मेरी कहानी सुन लो, फिर उसे ले लेना।’’
उसने लाइट बुझा दी और मेरे कान के पास आकर आहिस्ता से अपनी कहानी सुनाने लगा। मैं चुपचाप दहशत में और कभी प्रशंसा में पूरी कहानी सुनता रहा। करीब पौन घंटे के बाद संक्षेप में अपनी कहानी कहकर अतुल बोला, ‘‘आज के लिए इतना पर्याप्त है। शेष कहानी कल तक इंतजार कर सकती है। उसने घड़ी के चमकते डायल में देखा। अभी काफी समय है। दो बजे से पहले कुछ नहीं होगा। क्यों न तब तक थोड़ी नींद ले लें। मैं समय होने पर जगा दूँगा।’’
लगभग डेढ़ बजे मैं जागा हुआ लेटा था। मेरे कान इतने सजग थे कि मुझे अपने हृदय की धड़कन भी साफ सुनाई दे रही थी। मेरी मुट्ठी में वह वस्तु जकड़ी हुई थी, जो अतुल ने मुझे दी थी।
अंधकार में सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं था। एकाएक मेरे कंधे पर अतुल के हाथ से मैं सजग हो गया। यह संकेत हमने पहले ही तय कर लिया था। मेरी साँस धीमी और गहरी हो गई, जैसे सोए हुए व्यक्ति की होती है। मुझे लग रहा था कि वह घड़ी आ गई है। कब दरवाजा खुला, मुझे पता नहीं चला, लेकिन एकाएक अतुल के बेड पर एक धमाका हुआ और कमरे में रोशनी हो गई। मैं हाथ में लोहे की छड़ लेकर झपट्टे के साथ खड़ा हो गया। मैंने देखा कि अतुल हाथ में रिवॉल्वर लिये और दूसरे हाथ से लाइट के स्विच को दबाए खड़ा है। अतुल के बेड के पास घुटनों के बल झुके हुए अनुकूल बाबू अतुल को ऐसे घूर रहे थे, जैसे एक घायल शेर अपने शिकारी को घूरता है।
अतुल की आवाज गूँजी, ‘‘क्या दुर्भाग्य है अनुकूल बाबू! आप जैसा अनुभवी व्यक्ति अंततः एक तकिया में ही घोंप पाया। यही न? जरा भी हिलने की कोशिश न कीजिए और छुरा फेंक दीजिए। जरा भी हिले तो गोली चला दूँगा। अजित जाकर खिड़की खोल दो। देखो पुलिस बाहर खड़ी इंतजार कर रही है, जरा देखो न?’’
डॉक्टर मौका देखकर दरवाजे की ओर झपटा, लेकिन अतुल के मजबूत हाथ का एक मुक्का उसके जबड़े पर लगते ही वह गिर पड़ा।
डॉक्टर उठ बैठा और बोला, ‘‘ठीक है! मैं भागने की कोशिश नहीं करूँगा, लेकिन दया करके यह तो बता दो कि मुझ पर किस बात का अपराध लगेगा?’’
‘‘उसकी फेहरिस्त बनाने में बहुत समय लगेगा डॉक्टर! पुलिस ने पूरी चार्जशीट बना ली है, वह समय आने पर आपको मिल जाएगी। लेकिन अभी के लिए…’’
उसी समय पुलिस इंस्पेक्टर कमरे के अंदर आते हुए दिखा। उसके पीछे सिपाही।
अतुल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘अभी के लिए मैं आपको सत्यान्वेषी ब्योमकेश बक्शी पर हमला करने और उनकी हत्या करने की कोशिश के लिए पुलिस को सौंपता हूँ। इंस्पेक्टर ये है अपराधी।’’
इंस्पेक्टर ने बिना कुछ कहे अनुकूल बाबू के हाथों में हथकड़ी पहना दी। डॉक्टर ने खूँखार आँखों से देखा और बोला, ‘‘यह षड्यंत्र है। इस ब्योमकेश बक्शी और पुलिस ने मिलकर मुझे झूठे केस में फँसाया है। लेकिन आपको छोड़ूँगा नहीं। देश में कानून है और मेरे पास पैसे की भी कमी नहीं है।’’
अतुल ने कहा, ‘‘जरूर कीजिए। आखिर बाजार में कोकेन का अच्छा दाम मिलता है।’’
विकृत चेहरा बनाकर वह डॉक्टर बोला, ‘‘कोई सबूत है कि मैं कोकेन का धंधा करता हूँ?’’
‘‘जरूर है, अनुकूल बाबू! शुगर मिल्क की बोतलों में क्या है?’’
डॉक्टर इस प्रकार चौंका, जैसे उसके पैर के नीचे साँप आ गया हो। पर बोला कुछ नहीं। उसकी आँखों से अतुल के लिए क्रोध और चिंगारियाँ निकलती रहीं। यह अनुकूल बाबू की छवि नहीं थी। सज्जनता के जामे से एकाएक एक खूँखार हत्यारा निकल आया था। यह सोचकर कि पिछले कुछ महीने मैंने इस व्यक्ति के साथ काटे हैं, मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
अतुल ने पूछा, ‘‘डॉक्टर, अब यह बताएँ कि कल रात आपने हमें क्या दवा दी थी? क्या वह मोर्फिया का चूर्ण था? चलिए, आप नहीं बताएँगे। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। केमिकल जाँच हमें सबकुछ बता देगी। उसने चरूट जलाया और बिस्तर पर सहारा लगाकर बैठ गया और बोला, ‘‘इंस्पेक्टर अब कृपया मेरा बयान ले लें। एफ.आई.आर. बनने के बाद डॉक्टर के रूम की तलाशी हुई, जिसमें कोकेन से भरी दो बड़ी बोतल पाई गईं।’’ डॉक्टर चुप बना रहा। लगभग सुबह होने वाली थी, जब डॉक्टर तथा उसके माल के साथ पुलिस ने प्रस्थान किया। अतुल बोला, ‘‘यह जगह तमाम उपद्रव और उठापटक से भरी पड़ी है, क्यों न तुम मेरे घर चलकर एक कप चाय पी लो।’’
हम लोग हैरीसन रोड स्थित तीन मंजिली इमारत के सामने उतरे। घर के बाहर गेट पर पीतल की प्लेट पर लिखा था, ‘ब्योमकेश बक्शी सत्यान्वेषी! दि इनक्वीजिटर।’ ब्योमकेश जरा तक्कलुफ से बोला, ‘‘आपका स्वागत है। कृपया मेरे घर में प्रवेश करके मुझे आदर प्रदान करें।’’
मैंने पूछा, ‘‘यह सत्यान्वेषी, दि इन्क्वीजिटर? यह मामला क्या है?’’
‘‘यह है मेरी पहचान। मैं ‘जासूस’ शब्द पसंद नहीं करता। जाँच पर्यवेक्षक शब्द तो उससे भी व्यर्थ है। इसीलिए मैं अपने आपको सत्यान्वेषी अर्थात् सच की खोज करनेवाला कहता हूँ। क्या बात है, आपको पसंद नहीं?’’
ब्योमकेश इमारत की पूरी दूसरी मंजिल में रहता था। कुल मिलाकर चार से पाँच विशाल कमरे थे, जिन्हें पूरी रुचि के साथ सजाया गया था। मैंने पूछा, ‘‘क्या तुम अकेले ही रहते हो?’’
‘‘हाँ, केवल मेरा सेवक पुतीराम साथ रहता है।’’
मैंने निश्श्वास छोड़कर कहा, ‘‘बहुत ही अच्छी जगह है। कब से रहते आए हो?’’
‘‘लगभग एक वर्ष हो गया। थोड़े समय के लिए नहीं था, जब मैं तुम्हारे मेस में रुका हुआ था।’’
इसी बीच पुतीराम ने स्टोव जलाकर चाय बना दी थी। ब्योमकेश ने गरमा-गरम चाय की चुस्की लेकर कहा, ‘‘मैं समझता हूँ, कुछ दिन जो मैंने भेस बदलकर तुम्हारे यहाँ बिताए, वास्तव में काफी रोचक रहे। लेकिन अंतिम दिनों में डॉक्टर ने पकड़ लिया था और इसके लिए मैं ही जिम्मेदार था।’’
‘‘वो कैसे?’’
‘‘खिड़की के बारे में मैंने ही पहली बार बताया था और वही मेरा भेदिया हो गया। अब भी नहीं समझे? अरे भाई! अश्विनी बाबू ने इसी खिड़की से…’’
‘‘ऐसे नहीं। अब कहानी शुरू से बताइए।’’
ब्योमकेश ने चाय की दूसरी चुस्की लेकर कहा, ‘‘कुछ तो मैंने तुम्हें कल रात ही बता दिया था। अब शेष कहानी सुनो—‘‘तुम्हारे इलाके में जो आए दिन हत्याएँ हो रही थीं, उसको लेकर पुलिस कुछ महीनों से काफी परेशान थी। पुलिस पर एक ओर सरकार का दबाव बढ़ रहा था, दूसरी ओर पे्रस अपना अभियान चलाए हुए था और जरा भी मौका मिलने पर सरकार का गला पकड़ रहा था। ऐसी स्थिति में मैंने पुलिस कमिश्नर से समय माँगा और उन्हें बताया कि मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूँ और मुझे विश्वास है कि इन हत्याओं के पीछे के रहस्य का पता लगा सकता हूँ। काफी चर्चा के बाद कमिश्नर ने आज्ञा प्रदान कर दी कि मैं स्वतंत्र रूप से इन मामलों की छानबीन कर सकता हूँ। शर्त केवल यह थी कि स्वीकृति की जानकारी मेरे और कमिश्नर के बीच ही रहेगी।
‘‘और इस प्रकार मैं तुम्हारे मेस में आया। छानबीन के लिए यह जरूरी था कि मुझे काम करने के लिए ऐसा स्थान मिले, जो वारदात के निकट हो। इसी उद्देश्य से मैंने तुम्हारे मेस का चयन किया। उस समय मुझे यह पता नहीं था कि विपरीत पार्टी का कर्मस्थल भी वही मेस है।
‘‘शुरू से डॉक्टर स्वभाव से अत्यंत सज्जन पुरुष लगा। मुझे इस बात का भी भान हुआ कि होम्योपैथी जैसा पेशा गैर-कानूनी कोकेन स्मगलिंग को रोकने के लिए एक बहुत ही कारगर उपाय है। किंतु मैं तब तक इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया था कि इस धंधे का रिंग लीडर कौन हो सकता है?
‘‘मुझे पहली बार डॉक्टर पर संदेह अश्विनी बाबू की मृत्यु से एक दिन पूर्व हुआ। शायद तुम्हें याद हो, उस दिन हमारे मेस के सामने एक गरीब अबंगाली की लाश मिली थी। जब डॉक्टर ने सुना, जो व्यक्ति मरा था, उसकी धोती के फैंटे से एक हजार के नोट मिले हैं तो उसके मुँह पर क्षणभर के लिए नोटों के हाथ से निकलने के लालच का भाव झलका था। उसके बाद से मेरे सारे संदेह उस पर ही केंद्रित हो गए।
‘‘फिर उस दिन की घटना जब अश्विनी बाबू छुपकर हमारी बातें सुन रहे थे। दरअसल वे हमारी बातें सुनने नहीं आए थे, बल्कि डॉक्टर से बात करने आए थे। जब उन्होंने देखा कि हम लोग बैठे हैं तो कुछ बहाना बनाकर ऊपर अपने कमरे में चले गए।
‘‘अश्विनी बाबू के व्यवहार से मैं भी कुछ समझ नहीं पा रहा था और कुछ समय तक मैं भी इस उधेड़-बुन में रहा कि कहीं वे ही तो अपराधी नहीं हैं? जब मैंने उनकी अनुकूल बाबू से हुई बातों को फर्श पर लेटकर सुना, तब भी मेरे मस्तिष्क में कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था, लेकिन इतना मुझे आभास हो गया था कि अश्विनी बाबू ने कोई भयंकर घटना देखी है, लेकिन जब उस रात उनकी हत्या हुई तो मेरे मस्तिष्क में सबकुछ स्पष्ट हो गया।
‘‘क्या अब भी तुम समझ नहीं पाए? डॉक्टर नितांत गोपनीय तरीके से गैर-कानूनी नशीली दवाओं का धंधा करता था और अपने इस रिंगलीडर के काम को रहस्य की अभेद्य चादर से छिपाए रखता था। जो कोई भी उसके भेद को जान जाता था, उसे फौरन रास्ते से हटा दिया करता था। यही कारण था, जिसकी वजह से उस पर अभी तक कोई आँच नहीं आ पाई थी।
‘‘जो व्यक्ति सड़क पर मरा पाया गया था, वह अनुकूल बाबू का ही दलाल था या फिर माल सप्लाई करनेवाला सरगना था। यह मेरी धारणा है, हो सकता है, मैं गलत भी हूँ। उस रात जब वह व्यक्ति डॉक्टर के पास आया था, तब दोनों में तकरार हो गई थी। हो सकता है, उस आदमी ने अनुकूल बाबू को ब्लैकमेल करने की कोशिश की हो या उन्हें पुलिस में जाने की धमकी दी हो और जब वह जाने लगा हो तो अनुकूल बाबू ने उसका पीछा किया और मौका मिलते ही उसे समाप्त कर दिया।
‘‘अश्विनी बाबू ने यह घटना अपनी खिड़की से देखी थी और कुछ मतिभ्रष्ट हो जाने की स्थिति में इस घटना की जानकारी डॉक्टर को देने गए थे। मैं कह नहीं सकता, उनकी मंशा क्या थी? वे अनुकूल बाबू के अहसानों से दबे हुए थे और शायद इसीलिए अनुकूल बाबू को इस घटना से सचेत करना चाहते थे। लेकिन उसका परिणाम ठीक इसके विपरीत हुआ। डॉक्टर की नजर में अश्विनी बाबू ने जिंदा रहने का अधिकार खो दिया था। उसी रात जब वे बाथरूम जाने के लिए उठे थे, उनकी नृशंस हत्या कर दी गई।
‘‘मैं कह नहीं सकता कि शुरू-शुरू में डॉक्टर का मुझ पर कोई संदेह था, लेकिन जब मैंने पुलिस को यह बताया कि वह खिड़की ही हत्या का कारण है, तब डॉक्टर समझ गया कि मैं भी कुछ करने जा रहा हूँ और इस प्रकार मैंने भी अपने जीवन समाप्त करने का अधिकार अर्जित कर लिया था। लेकिन मैं उसके लिए अभी तैयार नहीं था। इसलिए मेरे दिन पैनी नजर और सजग पहरेदारी में कटने लगे।
‘‘और तब पुलिस ने एक भूल कर दी। मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। जो भी हो, कमिश्नर ने स्वयं आकर मुझे छुड़ा दिया। मैं मेस में लौट आया और तभी अनुकूल बाबू को विश्वास हो गया कि मैं इंवेस्टिगेटर हूँ, लेकिन उन्होंने अपने विचारों को छुपा लिया और विशाल हृदय दिखाते हुए मुझे उस रात रहने की अनुमति दे दी। इस दरियादिली का एक ही उद्देश्य था कि उसी रात किसी भी समय मुझे मौत के घाट उतार दिया जाए। मैं जितना डॉक्टर के बारे में जानता था, उतना शायद कोई नहीं जान पाया था। तब तक डॉक्टर के खिलाफ कोई सबूत नहीं था। उस समय उसके कमरे की यदि तलाशी हो जाती तो कुछ कोकेन की बोतलों के सिवाय कुछ नहीं मिलता, जिसके बिना पर उसे जेल हो जाती, पर अदालत में कानून की निगाह में यह नहीं साबित किया जा सकता था कि वह एक जघन्य हत्यारा है। इसलिए मुझे उसे टे्रप करना जरूरी था। दरवाजे के ताले में एक नाखून फँसाकर मैंने ही उसे जाम किया था। जब डॉक्टर ने सुना तो मन-ही-मन प्रसन्न हो गया कि हमारा दरवाजा रात में खुला ही रहेगा। और अंत में जब हमने उससे दवा माँगी तो उसे अपने भाग्य पर यकीन ही नहीं हुआ। उसने मोर्फिया की डोज दी और समझ लिया कि हम उसे खाकर उसके आने तक बेहोश हो जाएँगे और वह बड़ी आसानी से हमें हमेशा के लिए नींद के आगोश में सुला देगा और इस प्रकार वह खुद मेरे जाल में फँस गया और क्या?’’
मैंने कहा, ‘‘अब मुझे जाना चाहिए, तुम तो फिलहाल उस ओर जाना नहीं चाहोगे?’’
‘‘नहीं, पर क्या तुम मेस जा रहे हो?’’
‘‘हाँ’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्या मतलब है क्यों का? अरे भाई! क्या मुझे वापस नहीं जाना है?’’
‘‘मैं सोच रहा था कि तुम्हें भी अंततः मेस तो छोड़ना ही पड़ेगा। तो क्यों न यहाँ आकर मेरे साथ ही रहो। यह भी तो अच्छी ही जगह है।’’
कुछ क्षण की शांति के बाद मैं आहिस्ता से बोला, ‘‘क्या मेरा अहसान उतारना चाहते हो?’’
ब्योमकेश ने अपनी बाँहें मेरे कंधे पर रख दीं और कहने लगा, ‘‘अरे नहीं भाई! ऐसा कुछ नहीं है। मैं सोचने लगा हूँ कि तुम नहीं रहोगे तो तुम्हारी कमी महसूस होगी। मैं कुछ सप्ताह में तुम्हारे साथ रहने का आदी हो गया हूँ।’’
‘‘क्या वाकई ऐसी बात है?’’
‘‘इससे ज्यादा नहीं।’’
‘‘ऐसी बात है तो यहीं रहूँ, मैं अपना सामान लेकर आता हूँ।’’
मुसकराकर ब्योमकेश ने कहा, ‘‘मेरा सामान भी लाना न भूलना!’’
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