ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download Free in this Post from Google Drive Link and Telegram Link , No tags for this post. All PDF Books Download Free and Read Online, ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download PDF , ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download Summary & Review. You can also Download such more Books Free - Hindi Novels PDF Download FreeHindi PDF Books DownloadHindi Stories Book PDF Download
Description of ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download
Name : | ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download |
Author : | Invalid post terms ID. |
Size : | 10.9 MB |
Pages : | 78 |
Category : | Novels, Stories |
Language : | Hindi |
Download Link: | Working |
यह एक बच्चे की नासमझी है, एक नौजवान की आँखों देखी है और एक बुज़ुर्ग की ज़िंदगी है…
—
‘ऊपरवाले की लाठी’ मेरे जीवन का पहला लघु उपन्यास है, जो आपसे अंत तक पहुँचने के लिए सब्र की माँग रखता है। आप इसमें स्वेच्छा से डूबें और इसे अपनी समझ से समझें, यही आशा है। यह एक दिन की घटना है, जो एक सत्तर साल के बूढ़े के साथ घटती है। यूँ तो उसके हज़ारों दिन एक ही जैसे बीतते आये हैं; मगर वह क्या ख़ास बात होती है, जो उस दिन को उन हज़ारों दिनों से ज़्यादा ख़ास बना देती है कि वह एक दिन पूरी बीती उम्र की तरह लगने लगता है—कहानी इसी विषय पर आधारित है।
Summary of book ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download
फ़जर की अज़ान से आग़ाज़ होता है; और फिर सुबह के कोहरे के बीच हम सब अपना सफ़र तै करने लगते हैं।… ‘हुसैन पुरा’(पहाड़ी शहर की घाटी का एक बड़ा इलाक़ा) की गलियाँ छानते हैं; कुछ-कुछ शेरों के चलने लायक़ व कुछ-कुछ तंग हैं। लेकिन जब हम दायाँ रुख़ लेकर कोने पर बनी ‘पनाहगीर मियाँ’ की दुकान से होते हुए मुड़ते हैं—हालाँकि वे प्यासों को पानी पिलाने का सवाब करते हैं—मगर हम भी मुहल्ले के ‘सेठ ज़िद्दीलाल’ के-से ढीठ ही हैं; जब तलक सीधा-सीधा चलते-चलते उनके ही पते तक ना पहुँचेंगे, गले को सूखा रखेंगे। फिर चाहे इस सिलसिले को दोपहर ही क्यों न हो जाए। होना है सो हो जाए, हमें क्या?
…लेकिन इसी जज़्बे से दोपहर ना सही, सूरज की पहली रोशनी तो निकल ही आयी है, जो थोड़ी चटकदार भी है। हमने अब तक जो-जो देखा और जो-जो बयां करने लायक़ है, अब गला गीला किए वही कहेंगे। इक जगह है, जिसका ज़िक्र बाद में करेंगे; फिलहाल— ‘फ़ैज़’ गोश्त की दुकान; ‘ज़मज़म बकेर’ की लाजवाब बिरयानी; 1-2 मदरसे, कबूतरख़ाने व यतीमख़ाने; कुछ ‘शहनाज़’ के पुरखों की बुरक़ों की दुकानें—एक क़तार में; उसी तरह से जिस तरह ‘दिल-अज़ीज़’ के कुरते टोपियों के साथ एक तरफ़ लगे हुए हैं—सड़क की दीवारों पर; और आख़िर में ‘फ़ैज़ान’ मस्जिद, जिसके बड़े दाख़िली-दरवाज़े के आज़ू-बाज़ू गुंबदों वाली ऊँची मीनारों के बारजों में लगे भोंपुओं से ही हम वह आवाज़ सुन रहे थे।
यह ब्योरा तो ज़्यादातर गली के दाएँ तरफ़ का था, जिसमें कुछ-कुछ दुकानें अभी खुलने की हैं।
और इसी तरह बाईं ओर— ‘शाही’ झूमरों की दुकान—फिलहाल बंद; ‘मलिक’ के परदों, कालीनों व जानमाजों का जमावड़ा; मज़हबी किताबों का मजमुआ; फिर ‘अतर बाज़ार’, जहाँ की संगतरों की-सी खुशबू हमें मदहोश करने के लिए…काफ़ी है; और आख़िर में एक दफ़्तर, जहाँ सालों से दर्ज़ी चिपटे हुए हैं…।
इन बाईं और दाईं का मसला जब ख़त्म होता है तो वह बीच की सड़क इक इमारत पर रुककर दोराहा बनाती है। पर ख़ैर, उन दो रास्तों और उनके शोरगुलों से कहीं हम भटक न जाएँ तो वह बीच की इमारत ही हमारा असली मुद्दा है, जो ‘मोमिन मंज़िल’ के नाम से जानी जाती है। वही तो पूरे मुआयने में मिला मरकज़ है! जिससे हमें दिलकशी है—यही तो हमारी मंज़िल थी। जिसके नीचे लगी ‘लखन भाई’ की पान की दुकान से ही तो यहाँ के बाशिंदे अपना-अपना थूक लाल करते हैं। क्या स्वाद है उसमें! खाएँगे तो तभी ही हम नीचे से ऊपर होते हुए देख पाएँगे कि यहाँ की इकलौती—मगर सारे इबादतख़ानों, तालीमख़ानों, दफ़्तरख़ानों के क़दों को छोड़कर—तीन मंज़िला दीखती कैसी है।
पहली मंज़िल, एक शागिर्द रहता है, जो शहर के किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज से तालीम ले रहा है—यह पहला किरायेदार है। दूसरी मंज़िल, एक शादीशुदा जोड़ा अपने 8 साल के बच्चे के साथ—ये दूसरे किरायेदार हैं। …और जैसे ही हम तीसरी मंज़िल जाने को होते हैं तो मुँह में जमी पीक जवाब देने लगती है मगर…
“ज़रा रुकिए तो सही!” सहजता से इतना कहकर लखन भाई हमें रोक लेते हैं।
“क्यों…?” हमने अपनी थूक दबाए पूछा। “क्या हुआ? सड़क ही तो है।” आजकल सरकार सीमेंट की सड़कें बनाने लग गई है न? तो डामर और मिट्टी के बीच फ़रक ही नहीं दीखता।
“ऐसे ही कहीं पे भी थूकना तो ठीक नहीं; फिर चाहे वो सड़क, दीवार या किसी का आँगन ही क्यों ना हो।” थोड़ी व्यस्तता के साथ वे बोले। मानो हमारी आँखें थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ में उनसे पूछ रही हों, “तो इसपर किसका नाम लिखा है?” जिन्हें पढ़कर वे अपनी पीतल की पल्ली से पत्तों पर कत्था पोतते हुए आगे कहते हैं, “अगर आप नए हों तो थूकदान के पते के साथ-साथ इस इमारत के मालिक का नाम भी बताए देता हूँ—(हमें गंभीरता से देखते हुए) सेठ—ज़िद्दी—लाल।”
यह नाम 2-3 बार कानों में गूँजने लगता है… और बातों-ही-बातों में लखन भाई हमें पास रखे थूकदान से सीधा उस इमारत की तीसरी मंज़िल तक ले जाते हैं, जहाँ हमारा ख़ास किरदार सेठ ज़िद्दीलाल रहता है। फिर इसके बाद आने वाले मंज़रों को हम इस अफ़साने के ज़िम्मे सौंपकर उसी के साथ आगे बढ़ते हैं।…
ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download link is given below
We have given below the link of Google Drive to download in ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download Free, from where you can easily save PDF in your mobile and computer. You will not have to pay any charge to download it. This book is in good quality PDF so that you won't have any problems reading it. Hope you'll like our effort and you'll definitely share the ऊपरवाले की लाठी / Uparwale Ki Lathi Book PDF Download with your family and friends. Also, do comment and tell how did you like this book?