गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download

मूर्धन्य साहित्यकार गोपालराम गहमरी हिंदी साहित्य में उपेक्षित हैं। कई विधाओं में उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा, लेकिन अपने देश के कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में वे कहीं नहीं हैं। न उनके संस्मरण, न कहानियाँ, न कविताएँ, न उपन्यास, न अनुवाद। उन पर एक जासूसी लेखक का ठप्पा लगाकर उनके पूरे रचनाकर्म से ही हमारे कथित आलोचकों ने किनारा कर लिया, जैसे ये जासूसी उपन्यास घोर पाप हों। फिर धीरे-धीरे उन्हें जान-बूझकर बिसरा दिया गया; लेकिन अब फिर उनके साहित्य की खोज होने लगी है। फिर से लोग अब गहमरीजी की रचनाओं से परिचित होने को बेताब दिख रहे हैं। यह अच्छी बात है। राख के भीतर छिपी आग अब बाहर आ रही है। साहित्य पाठकों के भरोसे जिंदा रहता है, आलोचकों के भरोसे नहीं। कबीर, तुलसी, रैदास अपनी रचनाओं के बूते जिंदा हैं, आलोचकों के भरोसे नहीं। गोपालराम गहमरी अब पुस्तकालयों से बाहर आ रहे हैं। उनकी जासूसी कहानियों में रहस्य और रोमांच है; गुत्थियाँ हैं, जिन्हें सुलझाने के रोचक प्रसंग भी हैं, जो पाठक को बाँध लेंगे।.
DownloadTELEGRAM
3.9/5 Votes: 5,922
Author
Gopalram Gahmari
Size
67 MB
Pages
184
Language
Hindi

Report this Book

Description

 गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download Free in this Post from Google Drive Link and Telegram Link ,

All PDF Books Download Free and Read Online, गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download PDF , गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download Summary & Review. You can also Download such more Books Free -

Description of गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download

Name : गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download
Author : Invalid post terms ID.
Size : 67  MB
Pages : 184
Category : Stories
Language : Hindi
Download Link: Working


मूर्धन्य साहित्यकार गोपालराम गहमरी हिंदी साहित्य में उपेक्षित हैं। कई विधाओं में उन्होंने प्रचुर साहित्य लिखा, लेकिन अपने देश के कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में वे कहीं नहीं हैं। न उनके संस्मरण, न कहानियाँ, न कविताएँ, न उपन्यास, न अनुवाद। उन पर एक जासूसी लेखक का ठप्पा लगाकर उनके पूरे रचनाकर्म से ही हमारे कथित आलोचकों ने किनारा कर लिया, जैसे ये जासूसी उपन्यास घोर पाप हों। फिर धीरे-धीरे उन्हें जान-बूझकर बिसरा दिया गया; लेकिन अब फिर उनके साहित्य की खोज होने लगी है। फिर से लोग अब गहमरीजी की रचनाओं से परिचित होने को बेताब दिख रहे हैं। यह अच्छी बात है। राख के भीतर छिपी आग अब बाहर आ रही है। साहित्य पाठकों के भरोसे जिंदा रहता है, आलोचकों के भरोसे नहीं। कबीर, तुलसी, रैदास अपनी रचनाओं के बूते जिंदा हैं, आलोचकों के भरोसे नहीं। गोपालराम गहमरी अब पुस्तकालयों से बाहर आ रहे हैं। उनकी जासूसी कहानियों में रहस्य और रोमांच है; गुत्थियाँ हैं, जिन्हें सुलझाने के रोचक प्रसंग भी हैं, जो पाठक को बाँध लेंगे।.

 

Summary of book गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download


बात सन् 1893 ई. की है, जब मैं बंबई से लौटकर मंडला में पहले-पहल पहुँचा था। वहाँ मेरे उपकारी मित्र पं. बालमुकुंद पुरोहित तहसीलदार थे। उन्हीं की कृपा से मैं मंडला गया था।
मंडला नर्मदा नदी के बाएँ किनारे बसा है। दाहिने किनारे ठीक उसी के सामने महाराजपुर गाँव है। वहाँ के माननीय जमींदार राय मुन्ना लाल बहादुर एक सुयशवान् परोपकारी वैश्य थे। उनके उत्तराधिकारी बाबू जगन्नाथ प्रसाद चौधरी एक हिंदी प्रेमी युवक ने उपर्युक्त तहसीलदार साहब के द्वार मुझे बुलाया था। मैं जब वहाँ पहुँचा, तब चौधरी साहब ने मुझे बँगला पढ़ाने का काम सौंपा। चौधरी साहब की रुचि बँगला पढ़कर हिंदी साहित्य में बँगला की पुस्तकें अनुवाद करने और हिंदी-सेवा में समय बिताने की थी। चौधरी साहब को मैंने बँगला भाषा की शिक्षा दी और उन्होंने मेरे वहीं रहते ही बँगला से दो पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करके छपवाया। एक ‘दीवान गंगा गोविंद सिंह’ दूसरी पुस्तक ‘महाराजा नंद कुमार को फाँसी’ थी।
उन दिनों मैं सबेरे नर्मदा स्नान किया करता था। नहाते समय मैंने वहाँ दो युवतियों की बातें सुनीं। एक थी लाली नाम की मल्लाहिन, अपनी सखी निरखी के साथ। दूसरी थी एक त्रिशूलधारिणी कषायवसना, नाम इसका मालूम नहीं था।
लाली स्नान करते समय अपनी सखी निरखी से कहने लगी, “अरी विन्ना, ऐसे साधु तो हमने कभी नहीं देखे। बड़ो देवता आए, ओको रूप देखते सोई जीव जुड़ाय जात है। ऐसो सुघर रूप विधाता ने मानो अपने हाथ से सँवारे हैं ओको तो। न जाने कब से संन्यास लए हैं ओने। ओकी उमिरि संन्यासी बनबे की न आय विन्ना।”
लाली की यह बातें निरखी ध्यान से सुन रही थी, लेकिन उसके कुछ कहने से पहले ही पास ही घाट पर त्रिशूल गाड़कर स्नान करती हुई साधुनी ने कहा, “हाँ बहन! तुम्हारा रूप तो विधाता के नौकर-चाकर के हाथ की कारीगरी आय काहे?”
लाली रोज उसी घाट पर नहाने आती थी। मैं भी उसी घाट पर रोज स्नान करता था। वह अवधूतिन पहले ही दिन ही वहाँ दीख पड़ी थी। उसी दिन लाली से अवधूतिन का बहुत मेल-जोल हो गया।
वह संन्यासिनी त्रिशूलधारिणी उस अवधूतिन मंडली के साथ आई थी, जो नर्मदा की परिक्रमा करने अमरकंटक से चली थी, लेकिन उस त्रिशूलवाली का मन उन माताओं से नहीं मिलता था। अकेले माँगकर खाना और अलग उस मंडली के पास ही कंबल डालकर रात काट डालना, उसकी दिनचर्या थी, लेकिन महराजपुर पहुँचने पर जब उस मंडली की संन्यासिनों को मालूम हो गया कि चौधरी साहब के यहाँ से परिक्रमा करनेवाले संतों को रोज भोजन मिलता है, तब उसने भी लंबी तान दी। माँग लाने की चिंता से वहाँ उसको रिहाई मिल गई।

स्त्री जाति के लिए लिखा है कि सदा गृहस्थी के काम में लगे रहने में ही कल्याण है, नहीं तो बिना काम के जब चार-पाँच बैठ जाती हैं, वहाँ चारों ओर का चौबाव चलने लगता है कि समालोचक भी मात खाते हैं। उनमें ऐसा बत-बढ़ाव भी हो जाता है कि झोंटउल की भी नौबत पहुँच जाती है।
हम अपनी माताओं, बहनों और बेटियों से वहाँ इन पंक्तियों के लिए क्षमा माँगते हैं। हमारे कहने का यह अभिप्राय हरगिज नहीं है कि मर्दों में यह लत नहीं है और वे लोग इस तरह चार संगी बैठ जाने पर चर्चा आलोचना नहीं करते।
बात इतनी है कि बेकाम समय बितानेवाली रमणियों में यह गलचौर बहुत बढ़ा रहता है। मर्दों में यह गप्प हाँकनेवाले बहादुरों का जब चौआ-छक्का बैठ जाता है, तब वह लंतरानियाँ ली जाती हैं कि आकाश-पाताल के कुलाबे खूब मिलाए जाते हैं। लेकिन यह ठलुए ऊबकर झट अपना रास्ता नापने लगते हैं और देवियों को देखा है कि ऐसी ठल्ली रहनेवालियों का नित्य का यही रोजगार हो जाता है और जब उनकी मंडली बैठ जाती है, तब उनका निठल्लपुराण बड़ा विकट, बड़ा स्थायी और बड़ा प्रभावशाली हो जाता है। घर-घर की आलोचना का अध्याय जब चलता है, तब परनिंदा का चस्का जिन्हें लगा हुआ है, उनकी लंतरानियों के मारे भले लोगों में त्राहि-त्राहि होने लगती है।
यह लाली उसी मंडली की एक थी। उसने जो नहाती बेर पुरवा के साधु की सराहना की तो साधुनी ने बड़े ध्यान से सब सुना और बड़े चाव से साधु का स्थान, वहाँ जाने का रास्ता और रंग-ढंग तथा हुलिया भी पूछ लिया।

-: 2 :-
दूसरे दिन भिनसारे ही धूई के सामने पद्मासन लगाए हुए पुरवा गाँव के साधु के पीछे वह अवधूतिन शांत भाव से जा खड़ी हुई।
सबेरे का समय था। वहाँ और कोई नहीं था। साधु स्नान करके विभूति लगाए अकेले बैठे थे। अवधूतिन जब पीछे से चलकर उनके सामने हुई, तब उनका चेहरा देखते ही बोली, “काहे देवता! ई आँसू काहे बह रहे हैं तुम्हारे!”
बाबा ने चारों ओर चौकन्ना होकर देखा और हाथ के इशारे से संन्यासिनी को सामने बिठाया।
जब वह बैठ गई तब वे धीरे से बोले, “आँसू नहीं धूई का धुआँ लगा है, देवीजी!”
संन्यासिनी बोली, “ना-ना! धुआँ तो इस घड़ी हुई नहीं देवता, आपको कुछ मन की वेदना है! सच कहिए क्या बात है?”
बाबा को अब इतनी करुणा उमड़ी कि रहा नहीं गया। बोले, “हाँ, बात सही है। यह आँसू अब मेरी जिंदगी में सूखनेवाले नहीं हैं। जाने दो, तुमने देख लिया तो बचा! किसी से कहना नहीं। मैं तो संन्यासी हूँ। तुम भी गेरुआधारिणी हो। मेरा दोष छिपा डालना।”
नए अपरिचित साधु की इस साफ बात पर साधुनी कुछ देर तक चुप रही। फिर हाथ जोड़कर बोली, “मैं किसी से नहीं कहूँगी देवता, लेकिन मेरी विनती यही है कि इस आँसू का कारण आप बतला दें। मैं चुपचाप चली जाऊँगी।”
साधु ने पहले बहुत टाला, लेकिन यह तो छोड़नेवाली देवी नहीं है। सुने बिना नहीं मानेगी, तब बोले, “मेरी कथा लंबी और दुःखभरी है। तुम सुनकर क्या करोगी। दुःख की बातें सुनकर दुःख ही होगा।”

“ना-ना! दुःख कह देने से हलका हो जाता है, इसमें दुःख क्यों होगा भला?”
अब साधु कहने लगे, “मैं काशी के क्वींस कॉलेज में पढ़ता था। घर में माँ और स्त्री यानी तीन आदमियों का परिवार था, लेकिन माता का मिजाज बड़ा चिड़चिड़ा था। मेरी स्त्री को लड़का नहीं हुआ, यही उसका अपराध था। इसी कारण सब गृहकाज सुंदर रूप में करके भी उसको सास की सराहना कभी नसीब नहीं हुई। कभी कुछ भूल हो जाए तो माताजी की मार से उसकी पीठ फूल जाती थी। यह सब सहते हुए, वह लक्ष्मी सास के सामने होकर कभी जवाब नहीं देती थी। एक दिन माँ ने उस पर और दरनापा चलाया। मैं भोजन करने बैठा था। माताजी पास आकर बैठ गईं। बहुत दिनों से परोसकर सामने बैठकर मुझे खिलाना माताजी ने छोड़ दिया था। आज बहुत दिनों पर खाते समय उनका पास बैठना देख बड़ा आनंद आया। माँ बोली, ‘खावो बेटा! हमारे आने से हाथ क्यों खींच लिया? हम हट जाएँ?’ मैंने कहा, ‘न माई! न जाने आज भूख काहे नहीं लगी है!’
“माँ, ‘तरकारी अच्छी नहीं बनी है का रे बँझिया, ला बचवा को चटनी दे। अरे, कटहर का, आम का अँचार मरतबान में से निकाल ला। तोको केतना कोई सिखावे अपनी अकल से कुछ नहीं करती।’ माता ने मेरा नाम टुअरा और मेरी स्त्री का नाम बँझिया या बँझेलवा रखा था।
“मेरी स्त्री अचार चटनी लाने गई, तब माँ ने कहा, ‘देख बेटा! अब तू मेरी बात मान ले। यह पतोहू बाँझ निकल आई। अब मैं मरे के किनारे पहुँच गई हूँ। कब चल दूँ इसका कुछ ठिकाना नहीं है बेटा! लेकिन पोते का मुँह देखे बिना मर जाऊँगी तो इसका दुःख परलोक में पाऊँगी।’

“मेरी पत्नी बोली, ‘तुम अपना एक ब्याह और करो।’ मैं समझ गया कि माँ से जो मेरी बातें हुईं, इसने सब समझ लिया है। मैंने कहा, ‘तुम ऐसी बातें क्यों करती हो?’ वह बोली, ‘स्त्री का कर्तव्य है कि स्वामी जिससे सुखी रहे, जिससे स्वामी का वंश चले इसके वास्ते अपना सब त्याग दे। मैं अभागिन हूँ। भगवान् ने मुझे बाँझ कर दिया तो तुम्हारा वंश ही डुबा दूँ। यह मेरा काम नहीं है।’ मैंने कहा, ‘अच्छा अब अपनी बात कह चुकी तो मेरी भी अब सुन लो। पुरुष का कर्तव्य है कि स्त्री को सुखी करे। स्त्री पुरुष की विलास की सामग्री नहीं है। वह देवी है, उसे प्रसन्न रखना पुरुष का कर्तव्य है। जहाँ स्त्री प्रसन्न नहीं वह घर नरक है।’ वह मेरी बात बीच में रोककर बोली, ‘बस तो मैं तभी प्रसन्न होऊँगी, जब तुम एक ब्याह और कर लोगे।’
“अब मैंने सब बात और कहा-सुनी बंद कर दी। माँ से कह दिया, ‘तुम्हारी बात मानता हूँ। मैं ब्याह कर लूँगा।’ अब मेरा ब्याह उस मुहल्ले के चक्रधर की लड़की सूगा से हो गया।
-: 3 :-
“ब्याह के बाद मैं काशी चला गया। सूगा की चिट्ठी बराबर आती रही। हर चिट्ठी में सूगा अपनी सौत की शिकायत लिखने लगी। मैं बराबर समझता गया कि सौत का सौत पर जो मान होता है, उसी का यह सब प्रसाद है। एक दिन जो सूगा की चिट्ठी आई, उसको पढ़कर तो मुझे काठ मार गया। उसने लिखा, “माँ जी ने कई दिन हुए उनको घर से खदेड़ दिया है।” उस दिन शनिवार था। झट टिकट लेकर घर पहुँचा। रात के समय भीतर जाते ही नई दूल्हन मिली। मैंने तुरंत पूछा, “माँ ने किसको खदेड़ दिया है?”
‘‘फिर सूगा कुछ कहने चली थी कि मैंने उसे डाँटा। तब चुप रही। फिर से हाथ छुड़ाकर गंभीर हो गया। कहा, ‘बिछौना ठीक है?’

We have given below the link of Google Drive to download in गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download Free, from where you can easily save PDF in your mobile and computer. You will not have to pay any charge to download it. This book is in good quality PDF so that you won't have any problems reading it. Hope you'll like our effort and you'll definitely share the गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download with your family and friends. Also, do comment and tell how did you like this book? 

Q. Who is the author of the book गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियां / Gopalram Gahmari ki Jasoosi Kahaniyan PDF Download?
Answer.

 

Download

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *