ग्रामोफोन पिन का रहस्य – ब्योमकेश बक्शी की जासूसी कहानी

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Author
Saradindu Bandyopadhyay
Language
Hindi

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Description

मैंने कुछ संशय में खड़े होकर कहा, ‘‘मुझे माफ करो। इतनी रात गए मैं वहाँ अकेले नहीं जाना चाहता। तुम चाहो तो खुद चले जाओ।’’

‘‘मैं तो जाऊँगा ही, लेकिन तुम्हें भी चलना चाहिए।’’

‘‘लेकिन क्या जाना जरूरी है? यह जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी शरीर में काँटे के मामले में क्यों? इसकी जगह यदि तुमने ग्रामाफोन-पिन रहस्य पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो अब तक कुछ गुत्थियाँ सुलझ गई होतीं।’’

‘‘शायद तुम सही कह रहे हो, लेकिन इसी बीच एक छोटी सी उत्सुकता पूरी करने में क्या नुकसान है? ग्रामाफोन-पिन तो कहीं भागा नहीं जा रहा। दूसरे प्रफुल्ल रॉय कल आएगा, उसके लिए हमें कुछ तो जानकारी चाहिए।’’

‘‘लेकिन हम दोनों के जाने से बात नहीं बनती। पत्र में जोर देकर कहा गया है कि केवल एक ही व्यक्ति को आना होगा।’’

‘‘मैंने उसका प्रबंध कर लिया है। अब कृपा करके दूसरे कमरे में चलो। समय बीता जा रहा है।’’

कमरे में जाकर ब्योमकेश ने फुरती से मेरा मैकअप कर दिया। मैंने सामने दीवार पर लगे शीशे में देखा। मेरी पुरानी मूँछ और फ्रेंचकट दाढ़ी लौट आई थी। उसके बाद वह अपने मैकअप में लग गया। उसने अपने चेहरे को नहीं बदला, केवल अलमारी से काला सूट और काले रबड़ सोलवाले जूते निकाले और पहन लिये। फिर उसने मुझे शीशे से पाँच-छह फीट दूर खड़ा कर दिया और ठीक मेरे पीछे खड़े होकर बोला, ‘‘क्या तुम शीशे में मुझे देख सकते हो?’’

‘‘नहीं!’’

‘‘ठीक है, अब आगे चलो, क्या तुम मुझे देख सकते हो?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘तो ठीक है, काम बन गया। अब केवल एक आइटम रह गया?’’

‘‘वो क्या है?’’

मैं जब ब्योमकेश के कमरे में घुसा तो दो अंडाकार चीनी मिट्टी की प्लेटें मेज पर रखी दिखाई दीं, ठीक वैसी, जिनमें रेस्त्राँ में मटनचाप परोसा जाता है। उसने एक प्लेट को मेरे सीने पर रखकर एक चौड़े कपड़े से कसकर बाँध दिया और बोला, ‘‘ध्यान रखना, यह फिसलनी नहीं चाहिए। अब इसके बाद तुम कोट पहनकर बटन लगा लोगे तो कुछ भी दिखाई नहीं देगा। मैंने अचकचाते हुए पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’

ब्योमकेश हँसते हुए बोला, ‘‘अरे भाई, हमें भी शस्त्रों से सुसज्जित होना है। है न? मैं भी एक प्लेट लगा रहा हूँ।’’

ब्योमकेश ने दूसरी प्लेट अपनी बास्केट के अंदर लगाई और सारे बटन बंद कर लिये। उसे कपड़े से बाँधने की जरूरत नहीं पड़ी।

और इस प्रकार भेस बदलकर हम लोग ग्यारह बजे घर से निकल गए। ब्योमकेश चलने से पहले फुरती से अलमारी से कुछ चीजें निकालकर अपनी पॉकेट में रखता जा रहा था। उसने पूछा, ‘‘क्या तुमने वह पत्र रख लिया? अरे छोड़ो, एक सादा कागज मोड़कर लिफाफे में रख लो।’’

हमें सियादह क्रॉसिंग पर टैक्सी मिल गई। सड़कें खाली हो गई थीं, अधिकतर दुकानें भी बंद हो चुकी थीं। हमारी टैक्सी चौरंगी की ओर भाग रही थी।

हम लोग उस स्थल पर उतर गए, जहाँ कालीघाट और खिदिरपुर जाने वाली ट्राम लाइनें अलग होती हैं। टैक्सी ड्राइवर भाड़ा लेकर हॉर्न बजाते हुए चला गया। मैंने चारों ओर देखा, सड़क पर एक आदमी भी नजर नहीं आया। चारों ओर से पड़ने वाली लैंपपोस्ट की रोशनी सुनसान नगर के दृश्य को और भी भुतहा बना रही थी। मेरी घड़ी में आधी रात होने में केवल दस मिनट शेष थे।

हम लोगों ने अपने रोल को टैक्सी में ही समझ लिया था। इसलिए अब बातचीत की जरूरत नहीं थी। मैंने सड़क पर चलना शुरू किया। ब्योमकेश एक शांत छाया के रूप में कुछ दूरी पर मेरे पीछे चल रहा था। उसके काले कपड़े और बेआवाज रबड़ के जूतों ने उसकी मौजूदगी को बिल्कुल छिपा लिया था। वह अपने कदम मेरे कदमों से मिलाते हुए मेरे से छह फीट पीछे चल रहा था, लेकिन मुझे स्वयं लग रहा था कि मैं अकेला ही सड़क पर चल रहा हूँ। स्ट्रीट लाइटों की दूरियों के कारण रोशनी मध्यम थी। यदि सड़क के इर्द-गिर्द बिल्डिंग होती तो रोशनी की प्रतिच्छाया बढ़कर उस स्थल को और अधिक प्रकाशमय बना सकती थी। इसके विपरीत चारों ओर के वीराने ने प्रकाश की आधी शक्ति को अपने में ही सोख लिया था। ऐसी स्थिति में कोई भी सामने से आनेवाला व्यक्ति यह कह नहीं सकता कि मैं अकेला नहीं हूँ; कि मेरे पीछे एक छाया चुपचाप मेरे कदमों से साथ चल रही है।

सड़क के एक ओर की ट्राम लाइनें कुछ समय के लिए बंद पड़ी थीं। दूसरी ओर रेसकोर्स पर लगा सफेद रेलिंग सीधे चला जा रहा था। मैंने सड़क के बीच में चलना शुरू कर दिया। कुछ दूरी पर कहीं घड़ी में बारह बजने के घंटे बजने लगे। जैसे ही घंटों की आवाज बंद हुई, ब्योमकेश ने पीछे से दबे स्वर में कहा, ‘‘अब लिफाफे को हाथ में पकड़ लो।’’

मैं भूल ही चुका था कि ब्योमकेश मेरे पीछे ही चल रहा है। मैंने फुरती से जेब से लिफाफा निकालकर हाथ में पकड़ लिया। सड़क पर चलते हुए मुझे सात मिनट हो गए थे और मैंने खिदिरपुर पुल की आधी दूरी पूरी कर ली थी कि मुझे दूर रोशनी की एक हल्की झलक दिखाई दी। उसे देखकर मैं सजग हो गया। मेरे कानों में फिर आवाज सुनाई दी, ‘‘वह आ रहा है, तैयार रहो।’’

रोशनी की वह चमक तेज होती गई। कुछ ही क्षणों में स्पष्ट हो गया कि कोई वस्तु तेज रफ्तार से हमारी ओर बढ़ती चली आ रही है। उसका रंग हमारी तारकोल की सड़क से भी अधिक काला था। कुछ क्षण और बीतने पर साफ दिखने लगा कि वह एक साइकिल सवार है। मैंने चुपचाप खड़े होकर लिफाफे वाले हाथ को देने की मुद्रा में फैला दिया। मेरे सामने आते हुए साइकिल की रफ्तार कुछ धीमी पड़ गई।

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