मैंने पूछा, ‘‘एक बात बताओ, तुमने यह कैसे अनुमान लगाया कि शरीर में काँटे का सरगना और ग्रामाफोन पिन का हत्यारा एक ही व्यक्ति है?’’
ब्योमकेश ने कहा, ‘‘पहले मैं यह जान नहीं पाया। लेकिन धीरे-धीरे मेरे मस्तिष्क में ये दोनों एक होते गए। देखो, शरीर में काँटेवाला क्या कह रहा है? वह स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि आपके सुख और शांति में कोई व्यवधान है तो वह उससे छुटकारा दिला देगा। जाहिर है, इसके बदले में उसे एक मोटी रकम देनी होगी। यद्यपि इस रकम का कहीं जिक्र नहीं किया जाता, किंतु यह भी तय है कि वह यह काम कोई दया-पुण्य या परोपकारवश के खाते में नहीं करता। और अब, दूसरी ओर देखो, जितनेभी लोग मारे गए, वे सभी किसी के सुख में काँटा बने हुए थे। मैं मरनेवालों के रिश्तेदारों पर उँगली उठाना नहीं चाहता, क्योंकि जिस तथ्य को साबित नहीं किया जा सकता, उसका जिक्र भी फिजूल होता है। लेकिन कोई इस बात को नोट किए बिना नहीं रह सकता कि जितने लोगों की हत्या हुई, वे निस्संतान थे और उनके धन-संपत्ति को पानेवाला कुछ केसों में उनका भतीजा या दामाद था। क्या आशु बाबू और उनकी रखैल स्त्री का किस्सा हमें संकेत नहीं देता कि उन दोनों का दिमाग किस दिशा में काम कर रहा था?’’
‘‘तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि ये दोनों केस शरीर में काँटा और ग्रामोफोन-पिन देखने में तो अलग-अलग दिखाई देते हैं, पर दोनों एक साथ फिट भी हो जाते हैं, जैसे गुलदस्ते के दो टुकड़े उसके गोल छेद में थोड़े प्रयास के बाद आसानी से फिट बैठ जाते हैं। एक दूसरी बात, जो शुरू में ही मेरे मस्तिष्क में खटकी थी, वह थी पहले के नाम और दूसरे के काम में समानता। एक ओर शरीर में काँटे का वर्गीकृत विज्ञापन और दूसरी ओर काँटे जैसी वस्तु के हृदय में घुसने से मरते लोग क्या तुम्हें अहसास नहीं होता कि दोनों में कहीं समानता है?’’
मैंने उत्तर दिया, ‘‘शायद लगा हो, पर मुझे उस समय कुछ सुझाई ही नहीं दिया।’’
ब्योमकेश ने व्यग्रता से सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘यह सबकुछ जमा करके एक-एक घटाते जाने की प्रक्रिया से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। इसका अहसास मुझे आशु बाबू का केस लेने के बाद ही हो गया था। समस्या केवल अपराधी की पहचान की थी और यहीं आकर प्रफुल्ल रॉय का प्रखर मस्तिष्क सामने आ गया। उसकी चालाकी बेमिसाल थी। जिन लोगों ने हत्या के लिए पैसे दिए, वे तक नहीं जान पाए कि वह कौन है और यह काम वो कैसे करता है? उसकी तुरुप चाल यही थी कि वह कैसे अपने को परदे में छुपाए रखे? मैं नहीं जानता कि मैं कभी उसका पता लगा भी सकता था, जब तक कि वह खुद चलकर मेरे घर में नहीं आया।
‘‘देखो, इसको इस प्रकार समझो। जब तुम उसके आमंत्रण पर लैंपपोस्ट पर खड़े थे तो तुम्हारे आचरण से उसको कुछ संदेह जरूर हुआ था, फिर भी उसने जुआ खेला और वह पत्र तुम्हारे पॉकेट में पहुँचाया और अपना संदेह मिटाने के उद्देश्य से तुम्हारा पीछा भी किया। लेकिन जब तुम आधे कलकत्ता का चक्कर लगाकर घर में घुसे तो वह जान गया कि तुम मेरे ही दूत हो। वह पहले ही जान गया था कि आशु बाबू का केस मेरे हाथ में आ गया है। इसलिए उसे पूरा विश्वास हो गया कि मुझे सबकुछ पता चल गया है। उसकी जगह कोई और होता तो वह अपनी योजना छोड़कर भाग खड़ा होता।
‘‘किंतु प्रफुल्ल रॉय अपनी अतिशय जिद के कारण मेरे पास आया, ताकि वह पता कर सके कि मैं कितना कुछ जानता हूँ और शरीर में काँटे के केस में क्या करना चाहता हूँ? यह करके वह कोई जोखिम नहीं उठा रहा था, क्योंकि मेरे लिए यह पता करना असंभव था कि शरीर में काँटे के और ग्रामोफोन-पिन दोनों रहस्यों का प्रणेता वही है, और यदि मैं जान भी लेता तो भी मैं किसी भी सूरत में उसको अपराधी नहीं ठहरा सकता। लेकिन उसने यहाँ एक भूल कर दी।’’
‘‘वो क्या है?’’
‘‘वह यह कल्पना नहीं कर पाया कि उस सुबह मैं उसका ही इंतजार कर रहा था, क्योंकि मैं यह जान गया था कि इन सबकी जानकारी लेने के लिए वह मेरे पास जरूर आएगा।’’
‘‘तुम जान गए थे! तो तुमने पकड़वाया क्यों नहीं?’’
‘‘अब देखो! कर रहे हो न बौड़म जैसी बात! अजित, यदि उस समय मैं उसे पकड़वा देता तो मेरी सारी मेहनत बेकार जाती, क्योंकि मेरे पास ऐसा क्या कोई सबूत था, जिसके बल पर मैं उसे हत्या का अपराधी ठहरा सकता था? मेरे पास उसे पकड़ने का एक ही रास्ता था और वह था कि मैं उसे रँगे हाथ पकड़ूँ। और यही मैंने किया। जरा सोचो, हम लोग सीने पर प्लेट बाँधकर रात में क्या करने गए थे?
‘‘जो भी हो, मेरे से बात करके प्रफुल्ल रॉय जान गया कि मुझे अब सबकुछ पता लग चुका है। केवल यह नहीं जान पाया कि मैंने उसके मस्तिष्क को पढ़ लिया है। उसने फैसला कर लिया कि मुझे अब जिंदा छोड़ देना उसके लिए खतरनाक है। और इसीलिए उसने मुझे उस रात रेसकोर्स की सड़क पर चलने के लिए आमंत्रित किया। वह जान गया था, मैंने उस दिन तुम्हें भेजकर उसे गच्चा दिया था। इसलिए इस बार मैं स्वयं ही जाऊँगा। तो भी एक बात को लेकर उसके मन में अब भी संशय था कि मैं अपने साथ यदि पुलिस ले जाऊँ तो? इसलिए जाते समय उसने पुलिस का जिक्र किया था, पर जब उसने देखा कि पुलिस की बात को लेकर मैं क्रोधित हो गया, तब उसे इत्मिनान हो गया कि पुलिस नहीं आएगी और मन-ही-मन उसने मुझे मृत मान लिया।
बेचारा! नटवर लाल! एक छोटी सी चूक में फँस गया। इसका अफसोस उसने मरते समय प्रकट भी किया और माना कि उसे मेरी प्रखरता को कम नहीं आँकना चाहिए था।
एक अंतराल के बाद ब्योमकेश बोला, ‘‘क्या तुम्हें याद है, जब आशु बाबू पहली बार यहाँ आए थे। तब मैंने उनसे पूछा था कि उन्होंने अपने सीने में झटका लगने के समय क्या कोई ध्वनि या आवाज सुनी थी? उन्होंने कहा था कि साइकिल की घंटी। उस समय मैंने उस बात पर अधिक गौर नहीं किया। यही एक बड़ी पहेली थी, जो सुलझने का नाम ही नहीं ले रही थी। लेकिन जब मैंने शरीर में काँटे का पत्र पढ़ा, तो तुरंत उसका हल मिल गया। तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा था कि मुझे पत्र में केवल एक ही शब्द मिला है, वह है ‘बाइस्किल’।
‘‘आश्चर्य होता है कि मैंने साइकिल पर पहले क्यों नहीं ध्यान दिया?’’ दरअसल आज जब मैं सोचता हूँ तो मुझे साइकिल के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता, क्योंकि इतनी आसानी से निशंक हत्या का अन्य कोई उपाय संभव ही नहीं है। आप सड़क पर चल रहे हैं, एक साइकिल सवार सामने से आता है। वह आपको एक ओर हो जाने के लिए घंटी बजाता है और चला जाता है। आप सड़क पर गिर जाते हैं या कहो मर जाते हैं। कोई भी व्यक्ति साइकिल सवार पर संदेह नहीं करता, क्योंकि उसके दोनों हाथ हेंडिल को पकड़े थे, वह हत्या कैसे कर सकता है? इसलिए दूसरी बार कोई उसे देखता भी नहीं कि वह कहाँ गया?
‘‘केवल एक बार! तुम्हें याद हो! पुलिस ने अपनी चौकसी दिखाई थी। पिछले शिकार—केदारनंदी की मृत्यु पुलिस मुखयालय के सामने लाल बाजार क्रॉसिंग पर हुई थी। जैसे ही वे सड़क पर गिरकर मरे, पुलिस ने सभी ट्रैफिक जाम कर दिया और घटनास्थल पर उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति की जाँच और तलाशी ली गई। लेकिन पुलिस को कुछ नहीं मिला, मैं समझता हूँ, प्रफुल्ल रॉय भी वहाँ भीड़ में मौजूद था और उसकी भी तलाशी ली गई। उसने मन-ही-मन ठहाका भी लगाया होगा, क्योंकि किसी पुलिस सिपाही के दिमाग में साइकिल की घंटी को जाँचने का प्रश्न ही नहीं उठा।’’ इतना कहकर ब्योमकेश घंटी को हाथ में लेकर बड़े चाव से निहारने लगा।
इतने में हवा का एक झोंका आया और मेज पर रखा लिफाफा उड़कर मेरे पाँव के पास गिर गया। मैंने उसे उठाकर मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘तो अब पुलिस कमिश्नर महोदय का क्या कहना है?’’
‘‘और! बहुत कुछ,’’ ब्योमकेश बोला, ‘‘पहले तो उन्होंने पुलिस और सरकार की ओर से धन्यवाद दिया है और बाद में प्रफुल्ल रॉय की आत्महत्या पर शोक प्रकट किया है—यद्यपि उससे उन्हें तो खुशी ही होनी चाहिए थी, क्योंकि इससे सरकार का सारा श्रम व खर्च बच गया। जरा सोचो, उस पर मुकदमा चलाने और फाँसी चढ़ाने में कितना श्रम, शक्ति और खर्चा हो जाता? जो भी हो, एक बात पक्की हो गई है कि जल्दी ही सरकार की ओर से मुझे पुरस्कार मिल जाएगा। कमिश्नर साहब ने कहा है कि उन्होंने मेरे ‘पेटीशन’ को तुरंत काररवाई करके अनुमोदित करने की सारी व्यवस्था कर ली है। प्रफुल्ल रॉय की लाश की पहचान अभी नहीं हो पाई है। ‘ज्वैल इंश्योरेंस’ के कर्मचारियों ने लाश देखकर इनकार कर दिया कि यह व्यक्ति प्रफुल्ल रॉय है। उनका प्रफुल्ल रॉय इस समय काम के सिलसिले में जैस्सोर गया हुआ है। तो यह स्पष्ट है कि हत्यारा प्रफुल्ल रॉय का नाम प्रयोग में लाता था। उसका वास्तविक नाम क्या है, यह अभी पता नहीं चला है। खैर, मेरे लिए तो वही प्रफुल्ल रॉय है। और अंत में कमिश्नर ने एक दुःख का समाचार दिया है। यह घंटी मुझे पुलिस को दे देनी होगी, क्योंकि अब यह सरकार की संपत्ति हो गई है।’’
मैंने हँसकर कहा, ‘‘तुम तो मुझे लगता है, इस घंटी के दीवाने हो गए हो, तुम देना नहीं चाहते, क्यों है न यही बात?’’
ब्योमकेश ने भी हँसते हुए कहा, ‘‘यह सही है। यदि सरकार मुझे दो हजार के पुरस्कार के बदले में यह घंटी दे दे तो मुझे खुशी होगी। लेकिन फिर भी, मेरे पास प्रफुल्ल रॉय की एक यादगार है।’’
‘‘वो क्या है?’’
‘‘क्या तुम भूल गए? वह दस रुपए का नोट। मैं उसे जड़वाऊँगा। वे रुपए मेरे लिए अब हजार रुपए से भी ज्यादा का है।’’ ब्योमकेश ने जाकर घंटी को अपनी अलमारी में रखा और ताला लगा दिया।
वह जब वापस आया तो मैंने पूछा, ‘‘ब्योमकेश! अब तो बताओ, बिल्कुल सच-सच बताना, क्या तुम जानते थे कि पान में जहर था?’’
ब्योमकेश कुछ क्षणों तक चुप रहा। फिर बोला, ‘‘देखो जानकारी में और अज्ञान के बीच का कुछ भाग अनिश्चय का होता है, जिसे हम संभावना का क्षेत्र कह सकते हैं।’’ फिर कुछ ही देर बाद बोला, ‘‘क्या समझते हो, क्या यह उचित होता यदि प्रफुल्ल रॉय की मृत्यु एक साधारण अपराधी की तरह होती? मैं नहीं समझता? इसके विपरीत, उसका अंत बहुत मौजू था। उसने यह दिखा दिया कि हाथ-पैर बाँधे एक अपराधी के रूप में भी उसने कितने सहज रूप से मृत्यु का वरण किया! क्या वह कम कलाकार था?’’
मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं था, क्योंकि एक सत्यान्वेषी के मन में अपने अपराधी के लिए कब और कहाँ प्रशंसा और सहानुभूति पैदा होती है, इस दुर्गम मार्ग की कल्पना करना मेरे लिए आसान नहीं था।
‘‘पोस्टमैन!’’
आवाज सुनते ही हम दोनों ने उत्सुकता से आगंतुक को देखा। ब्योमकेश के नाम रजिस्टर्ड पत्र था। उसने पत्र लेकर खोला। उसके हाथ में एक रंगीन शीट दिखाई दी, जिसे उसने मुसकराते हुए मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने देखा, आशु बाबू की ओर से भेजा गया एक हजार रुपए का चेक था।
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