और फिर करीब पंद्रह दिन बाद ग्रामाफोन-पिन ने अपनी करामात दिखाई। इस बार का शिकार कृष्ण दयाल लाह नामक एक सूदखोर धनवान था। वह धर्मतल्ला और वेलिंगटन स्ट्रीट के चौराहे पर सड़क पार करते समय सड़क पर ही गिर गया और फिर कभी नहीं उठा। इस बार फिर मीडिया में ऐसा घमासान छिड़ा, जिसने खबरों के परखच्चे उड़ा दिए। संपादकीय लेखों में पुलिस की कार्यक्षमता और व्यर्थता पर तीखे प्रहार और तेज हो गए। कलकत्ता महानगर में आतंक छा गया। नागरिकों में भय और दहशत घर करने लगे। अड्डों में, चाय-दुकानों, होटलों और ड्राइंगरूमों में इस विषय को छोड़कर कोई और विषय ही नहीं रहा।
कुछ ही दिन के अंतराल में ऐसी ही दो मौतें और हो गईं। सारा शहर दहशत से सकते में आ गया। एक नागरिक यह समझ नहीं पा रहा था कि वह हत्यारे से अपने को कैसे सुरक्षित रखे?
कहना न होगा कि ब्योमकेश भी गहन रूप से इस रहस्य पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए था। गलत कार्य करनेवालों को पकड़ना उसका व्यवसाय था और इस क्षेत्र में उसने पर्याप्त नाम भी अर्जित किया था। वह चाहे जितना ‘जासूस’ शब्द से घृणा करता हो, पर वह अच्छी तरह से जानता था कि सभी तत्त्वों और उसके कार्यक्षेत्र को देखते हुए वह एक प्राइवेट डिटेक्टिव ही है। इसलिए भी इस जघन्य हत्याकांड ने उसके मस्तिष्क की समस्त क्षमताओं को हिला दिया था। हम दोनों सभी अपराध के घटनास्थलों पर जाते और प्रत्येक घटनास्थल को सभी कोणों से जाँचते। मैं कह नहीं सकता कि ब्योमकेश को इस जाँच-पड़ताल से कोई नया सुराग मिला या नहीं, और यदि मिला भी हो तो उसने मुझसे इस बारे में कोई चर्चा नहीं की। लेकिन इतना जरूर था कि वह अपनी नोटबुक में बड़ी मुस्तैदी से छोटी-छोटी जानकारी को दर्ज करता जा रहा था। संभवतः अपने मन के भीतर से उसे विश्वास था कि किसी दिन रहस्य की कोई टूटी डोर उसके हाथ लग ही जाएगी।
इसलिए आज जब वह टूटी डोर उसके हाथ के करीब आ गई तो मुझे अहसास हो गया कि शांत चेहरे के बावजूद भीतर से वह कितना उद्वेलित और अशांत है। वे सज्जन कहने लगे, ‘‘मैं आया था, क्योंकि मैंने आपके बारे में सुना था और अब देख रहा हूँ कि वह सब गलत नहीं है। आश्चर्यजनक दक्षता, जो आपने अभी दिखाई है, उसे देखकर मुझे लगता है कि आप ही ही हैं, जो मुझे बचा सकते हैं। पुलिस कुछ भी नहीं कर पाएगी। इसलिए मैं उसके पास गया ही नहीं। जरा देखिए तो, कम-से-कम पाँच हत्याएँ दिनदहाड़े उसकी नाक के नीचे हो गईं, क्या वे कुछ कर पाए? और आज तो मैं भी जाने कैसे बच गया।’’ उनकी आवाज लड़खड़ाकर मध्यम हो गई और उनकी कनपटी पर पसीने की बूँदें चमक आईं।
ब्योमकेश ने उन्हें सांत्वना देकर शांत करते हुए कहा, ‘‘मुझ पर विश्वास कीजिए। अच्छा हुआ कि आप पुलिस के बजाय मेरे पास चले आए। अगर कोई इस रहस्य को खोल सकता है तो यकीनन वह पुलिस नहीं है। कृपा करके शुरू से सारी बात विस्तारपूर्वक बताइए। कोई भी बात छोड़िए नहीं, क्योंकि मेरे लिए कोई भी जानकारी व्यर्थ नहीं होती। उन सज्जन ने सहज होकर कहना शुरू किया, ‘‘मेरा नाम आशुतोष मित्र है। मैं नजदीक ही नेबुटोला में रहता हूँ। अठारह साल की उम्र से ही मैं अपने व्यवसाय में लगा हुआ हूँ। मुझे कभी समय ही न मिला कि मैं अपने परिवार या शादी वगैरह के बारे में सोच पाऊँ। दूसरे, मुझे बच्चों का भी कोई शौक नहीं, इसलिए मैं इन सब झंझटों से दूर ही रहा। मेरे शौक भी कुछ अलग ही हैं। कुछ चीजें बहुत अधिक पसंद हैं; कुछ से मुझे सख्त नफरत है और इसलिए मैं अकेला रहना ही पसंद करता हूँ। समय के साथ उम्र भी बीत गई। मैं अगली जनवरी को पचास वर्ष पूरे कर लूँगा। दो साल पहले मैंने अपने काम से अवकाश ले लिया। मेरे पास मेरी बचत का पैसा लगभग डेढ़ एक लाख रुपया बैंक में जमा है, जिसका ब्याज मेरी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। मुझे रहने के लिए भाड़ा भी नहीं देना पड़ता, क्योंकि जिस घर में रहता हूँ, वह मेरा है। मुझे केवल संगीत का ही शौक है। सबकुछ होते हुए मुझे जीवन से कोई शिकायत नहीं है।’’
ब्योमकेश ने प्रश्न किया, ‘‘लेकिन क्या आपके ऊपर कोई निर्भर भी है?’’
आशुतोष ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं मेरा कोई भी संबंधी नहीं है और इसीलिए मेरे ऊपर कोई बोझ नहीं है। एक निठल्ला भानजा जरूर है, जो पहले पैसा माँगने आया करता था। लेकिन वह छोकरा शराबी और जुआरी है, इसलिए मैंने उसके घर में घुसने पर रोक लगा दी है।’’
ब्योमकेश ने पूछा, ‘‘ये भानजा अब कहाँ है?’’
आशुतोष बड़े संतोष के साथ बोले, ‘‘आजकल वह जेल में है। उसे मार-पीट करने और पुलिस से हाथापाई करने के जुर्म में दो महीने की कैद हुई है। अब जेल में है।’’
‘‘अच्छा ठीक है! अब आगे कहिए, जो आप कह रहे थे।’’
‘‘जब से वह बेहूदा विनोद, मेरा भानजा जेल गया है, तब से जीवन आराम से कट रहा था। मेरा कोई मित्र नहीं है और मैंने जान-बूझकर कभी किसी का नुकसान नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं लगता कि कोई मेरा दुश्मन भी होगा। लेकिन कल एकाएक मैं जैसे आसमान से गिरा। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरे साथ भी ऐसा हो सकता है! मैंने अखबारों में ग्रामाफोन-पिन के रहस्य की खबरों को पढ़ा जरूर था, लेकिन मुझे उन पर विश्वास नहीं होता था। मुझे लगता था, ये सब मनगढ़ंत कहानियाँ हैं, लेकिन मैं गलत था।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘कल शाम मैं रोजाना की तरह घूमने निकला। जोड़ासाँको के पास एक संगीत संगोष्ठी है, जहाँ मैं शाम का समय गुजारता हूँ और रात में नौ बजे के आस-पास लौटता हूँ। आमतौर पर मैं पैदल ही जाता हूँ, क्योंकि मेरी उम्र में स्वास्थ्य के लिए यह फायदेमंद है। कल रात को लौटते समय जब मैं हरीसन रोड और एम्हर्स्ट स्ट्रीट के चौराहे पर पहुँचा, उस समय वहाँ की घड़ी सवा नौ बजा रही थी। उस समय भी सड़कों पर भीड़ काफी थी। मैं फुटपाथ पर कुछ समय के लिए रुका रहा, मैं चाहता था कि आने वाली दो ट्राम भी निकल जाएँ। जब ट्रैफिक बिल्कुल साफ हो गया तो मैं सड़क पार करने लगा। मैं सड़क के बीच में पहुँचा ही था कि एकाएक मैंने अपने सीने पर झटका महसूस किया। मुझे ऐसा लगा, जैसे किसी ने मेरे हृदय के ऊपर की हड्डियों के पास, जहाँ मैं अपनी ब्रेस्ट पॉकेट में अपनी घड़ी रखता हूँ, कुछ ठोंक दिया है। इसके साथ ही मुझे दर्द हुआ, जैसे किसी ने हृदय में काँटा घुसा दिया हो। मैं गिरते-गिरते बचा। किसी तरह मैंने अपना संतुलन बनाए रखा और सड़क पार कर गया। मुझे चक्कर आया और मैं समझ नहीं पाया कि यह हुआ क्या? जब मैंने ब्रेस्ट पॉकेट से अपनी घड़ी निकालकर देखी तो वह ठप्प हो गई थी, उसका शीशा पूरी तरह से टूट गया था…और…और एक ग्रामाफोन पिन उसमें घुस गया था।’’ आशु बाबू फिर पसीने से तरबतर हो गए। उन्होंने काँपते हाथों से अपनी भौंह पर आए पसीने को पोंछा और अपनी जेब से निकालकर एक डिब्बी दे दी और बोले, ‘‘यह रही, वह घड़ी।’’
ब्योमकेश ने डिब्बी खोलकर घड़ी निकाली। घड़ी ‘गनमेटल’ की बनी थी। ऊपर का शीशा नदारद था। घड़ी में समय साढ़े नौ बजे का था और एक ग्रामाफोन का पिन घड़ी के बीचोबीच गढ़ा हुआ था। ब्योमकेश ने घड़ी को बड़ी बारीकी से कुछ देर देखा, फिर उसे डिबिया में रखकर सामने मेज पर रख दिया और बोला, ‘‘हाँ तो, आप अपनी बात जारी रखिए।’’
आशु बाबू बोले, ‘‘भगवान् ही जानता है कि उसके बाद मैं कैसे घर पहुँचा। मैं तनाव और परेशानी में सारी रात सो नहीं पाया। यह घड़ी मेरे लिए वरदान ही समझिए, अन्यथा तो अब तक अस्पताल में पोस्टमार्टम की टेबिल पर मेरी लाश पड़ी होती।’’…आशु बाबू के रोंगटे खड़े हो गए, ‘‘एक ही रात में मैंने अपने जीवन के दस वर्ष खो दिए हैं, ब्योमकेश बाबू। पूरी रात मैं सोचता रहा हूँ कि मैं क्या करूँ? किसके पास जाऊँ? अपने को कैसे बचाऊँ? दिन की पहली किरण के साथ ही मुझे आपका नाम सूझा। मैंने आपकी अभूतपूर्व क्षमताओं के बारे में सुना था और इसलिए मैं पहली ही फुरसत में आपके पास चला आया हूँ। मैं एक बंद टैक्सी में आया हूँ। पैदल चलने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि कहीं…’’
ब्योमकेश उठकर आशुतोष बाबू के पास गया और उनके कंधों पर हाथ रखकर बोला, ‘‘आप अब आराम से रहिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपका अब कोई बाल बाँका भी नहीं कर पाएगा। यह सही है कि कल आप बाल-बाल बचे हैं, लेकिन आगे से यदि आप मेरी सलाह पर अमल करेंगे तो आपके जीवन को कोई खतरा नहीं रहेगा।’’ आशु बाबू ने ब्योमकेश के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘ब्योमकेश बाबू, कृपा करके मुझे इस दुर्गति से बचा लीजिए; मेरा जीवन बचा लीजिए। मैं आपको एक हजार रुपए का पुरस्कार दूँगा।’’
ब्योमकेश मुसकराते हुए वापस अपनी कुरसी पर बैठकर बोला, ‘‘यह तो आपकी उदारता है। इसको मिलाकर कुल तीन हजार रुपए हो जाते हैं, क्योंकि दो हजार रुपए के इनाम की घोषणा सरकार कर चुकी है, है कि नहीं? लेकिन यह सब बाद में। पहले मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर दीजिए। कल जब आप पर हमला हुआ, उस समय आपने कोई आवाज सुनी थी?’’
‘‘किस तरह की आवाज?’’
‘‘कोई भी, जैसे कार के टायर फटने की आवाज?’’
आशु बाबू ने निश्चयपूर्वक कहा, ‘‘नहीं।’’
ब्योमकेश ने फिर पूछा, ‘‘कोई और आवाज या ध्वनि?’’
‘‘जैसाकि मुझे याद आता है, मैंने ऐसा कुछ नहीं सुना।’’
‘‘ध्यान से सोचिए।’’
काफी देर सोचने के बाद आशु ने कहा, ‘‘मैंने वे ध्वनियाँ सुनीं, जो अकसर भीड़ भरी सड़कों पर होती हैं। जैसे कारों, ट्रामों, रिक्शों की आवाजें और जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, मुझे झटका लगने के समय मैंने साइकिल की घंटी की आवाज सुनी थी।’’
‘‘कोई और अस्वाभाविक आवाज?’’
‘‘नहीं।’’
ब्योमकेश कुछ क्षणों तक चुप रहने के बाद बोला, ‘‘क्या आपके ऐसे दुश्मन हैं, जो चाहते हों कि आपकी मृत्यु हो जाए?’’
‘‘नहीं, जहाँ तक मेरी जानकारी में है, मैं ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता।’’
‘‘आपने शादी नहीं की, इसलिए आपके बच्चे तो हैं नहीं। मैं समझता हूँ, आपका भानजा ही आपका वारिस है?’’
आशु बाबू पहले तो दुविधा में हिचकिचाए और बाद में बोले, ‘‘नहीं।’’
‘‘क्या आपने अपनी वसीयत लिख दी है?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘कौन है आपका वारिस?’’
आशु बाबू संकोच में मुसकराए और कुछ क्षण चुप रहने के बाद कुछ अटकते हुए बोले, ‘‘आप मुझसे इसे छोड़कर कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं। यह मेरा निजी मामला है, प्राइवेट है।’’ और वह अपनी उलझन में खो गए।
ब्योमकेश पैनी निगाह से आशु बाबू को देखकर बोला, ‘‘ठीक है, लेकिन क्या आपका भविष्य का वारिस, जो भी हो, आपकी वसीयत के बारे में जानता है?’’
‘‘नहीं। यह मेरे और मेरी वकील के बीच पूरी तरह से गोपनीय है।’’
‘‘क्या आप अपने वारिस से अकसर मिलते रहते हैं?’’
आशु बाबू ने दूसरी ओर देखकर कहा, ‘‘हाँ।’’
‘‘आपके भानजे को जेल गए कितने दिन हुए हैं?’’
आशु बाबू ने हिसाब लगाकर बताया, ‘‘लगभग तीन सप्ताह।’’
ब्योमकेश बाबू कुछ देर व्यग्रता में बैठा रहा, फिर एक निःश्वास छोड़कर उठ खड़ा हुआ—‘‘आप अभी घर जाइए। यह घड़ी और अपना पता मेरे पास छोड़ जाइए। यदि मुझे और किसी जानकारी की जरूरत पड़ेगी तो मैं आपसे संपर्क करूँगा।’’
आशु बाबू एकाएक परेशान हो उठे और बोले, ‘‘लेकिन आपने तो मेरे लिए कोई व्यवस्था नहीं की? यदि मुझे फिर…’’
‘‘आपको केवल इतना ही खयाल रखना है कि आप अपने घर से बाहर न निकलें।’’
आशु बाबू का चेहरा भय से सफेद हो गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं घर में अकेला रहता हूँ, यदि कोई…।’’
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