घर से बाहर निकलकर पहले तो मैं घबराता रहा, लेकिन जब मैंने देखा कि मेरे बदले भेष से कोई भी आकर्षित नहीं हो रहा है तो मैं सहज हो गया और मेरा आत्मविश्वास भी लौट आया। सड़क के कोने में पान की दुकान से मैं पान खाया करता हूँ। पानावाला पश्चिम का है और मुझे देखकर हमेशा अभिवादन करके पान बना देता है। मैंने उसकी दुकान पर जाकर पान माँगा। उसने पान बनाकर मुझे दिया। मेरे पैसे देने पर उसने एक सरसरी निगाह से देखा और पैसे ले लिये।
पाँच बज गए थे और अधिक समय अब नहीं बचा था। मैं ट्राम पकड़कर एसप्लेनेड में उतरा और निर्धारित स्थल की तरफ बढ़ने लगा। यद्यपि यह कोई रोमांटिक मुलाकात नहीं थी और न ही मेरे मन में रूमानी सपने थे, फिर भी एक प्रकार की उत्सुकता और उत्तेजना का अहसास हो रहा था। लेकिन यह उत्तेजना जल्दी ही विलुप्त हो गई। भीड़ के रेले में खंभे की तरह एक ही स्थल पर जमे रहना कोई मामूली काम तो था नहीं। अब तक न जाने कितने लोगों की कोहनी और घुटने टकरा चुके थे और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था। लैंपपोस्ट पर टिककर यों ही खड़े रहने पर एक और भी डर पैदा हो गया, क्योंकि सड़क के उस पार क्रॉसिंग पर खड़ा सार्जेंट कई बार मुझे घूर चुका था। अगर वह मेरे पास आए और पूछे कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ, तो उसकी नजरों से बचने के लिए मैंने सामने ‘वाइटवे लैडलॉज’ के सजावटी शोरूमों पर अपनी दृष्टि गढ़ा दी, जैसे कि मैं उनमें रखी सुंदर वस्तुओं को निहार रहा हूँ। मैंने सोचा कि पॉकेटमार समझकर पकड़ा जाऊँ, इससे तो बेहतर है कि शहर देखने आया एक मूर्ख और गँवार बनकर ही खड़ा रहूँ।
मैंने अपनी घड़ी देखी। छह बजने में सिर्फ दस मिनट शेष थे। दस मिनट बिताकर मैं इस झंझट से पार हो जाऊँगा। व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। मैं खंभे से टिककर जरूर खड़ा था, लेकिन बार-बार कुरते की जेब टटोल रहा था। जेब अब तक खाली थी।
आखिरकार छह बजे और मैंने आहिस्ता से लैंपपोस्ट से अपना कं धा हटाया। एक बार और जेब टटोली पर निराशा ही हाथ लगी। निराशा के साथ-साथ मन में खुशी भी हुई। अंततः मुझे एक उदाहरण मिला था, जिसके आधार पर मैं ब्योमकेश को चिढ़ा सकूँगा कि उसके सभी अनुमान सही नहीं होते। मन-ही-मन प्रसन्न होते हुए मैंने एसप्लानेड डिपो की तरफ कदम बढ़ाए ही थे कि ‘फोटो चाहिए, बाबू’ शब्दों ने मुझे चौंका दिया। मैंने मुड़कर देखा, लुँगी पहने एक मुसलिम नौजवान हाथ में एक लिफाफा लिये मेरी ओर देख रहा है। दुविधा में मैंने हाथ में लिफाफा ले लिया और लेने के बाद जैसे ही उसमें से अश्लील फोटो निकलकर जमीन में बिखरी, मैं घबरा गया। मैं जानता था कि कलकत्ता की सड़कों पर यह धंधा चलता है। मैंने अपने हाथ को उसकी ओर बढ़ाते हुए घृणा से इनकार कर दिया, लेकिन इससे पूर्व ही वह आदमी गायब हो गया। मैंने दाएँ-बाएँ, चारों ओर देखा, पर वह लुँगीवाला युवक कहीं भी दिखाई नहीं दिया।
मैं हैरानी में खड़ा हुआ था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? एकाएक एक दबी हुई स्थिर आवाज ने मेरे विचारों को भंग कर दिया। मेरे बगल में एक उम्र वाला अंग्रेज व्यक्ति खड़ा था। मुझे न देखकर वह सामने की ओर देख रहा था और शुद्ध बँगला में एक जानी-पहचानी आवाज में बोल रहा था—‘‘मैं देख रहा हूँ, तुम्हें पत्र मिल गया है। इसलिए अब घर जाओ। सीधे नहीं बल्कि घूमकर जाओ। ट्राम से पहले बऊ बाजार जाओ। वहाँ उतरकर हावड़ा क्रॉसिंग तक बस लो, फिर टैक्सी से घर।’’ इतने में हमारे सामने सर्कुलर रोड जाने वाली ट्राम आकर रुकी। वह व्यक्ति उछलकर उसमें चढ़ गया।
आधे कलकत्ता का चक्कर लगाने के बाद जब मैं थका-हारा घर पहुँचा तो देखा कि ब्योमकेश आरामकुरसी पर पैर फैलाए चरूट पी रहा है। मैंने कुरसी खींचकर बैठते हुए पूछा, ‘‘तो साहेब! आप कब लौटे?’’
ब्योमकेश ने धुआँ उड़ाते हुए कहा, ‘‘करीब बीस मिनट हुए।’’
मैंने कहा, ‘‘तुमने मेरा पीछा क्यों किया?’’
‘‘इसलिए कि मैं कुछ ही मिनटों के लिए चूक गया था। जब तुम लैंपपोस्ट पर कंधा टिकाकर खड़े थे, उस समय मैं ‘लैडला’ के अंदर रेशमी मौजे देख रहा था और काँच की पारदर्शी दीवारों से तुम पर नजर रखे हुए था। उस समय ‘शरीर में काँटे’ का सरगना तुम्हें देखकर हिम्मत बँधा रहा था। उसका भी कारण था, क्योंकि तुम हड़बड़ी में बार-बार पॉकेट देख रहे थे। इसलिए वह रुककर चांस ले रहा था। मुझे स्टोर से बाहर आने में कुछ मिनट ही लगे होंगे, लेकिन तब तक तुम वहाँ से हट गए थे और पत्रवाहक को तुम्हें लिफाफा देने का पर्याप्त समय मिल गया। जब तुम कुछ दूरी पर मुझे मिले तो तुम हाथ में लिफाफा लिये भौंचक खड़े हुए थे। तुम्हें वह लिफाफा कैसे मिला?’’
जब मैंने लिफाफा पाने का वृत्तांत सुनाया तो ब्योमकेश ने पूछा, ‘‘तुमने ठीक से उस आदमी को देखा? क्या तुम उसका चेहरा याद कर सकते हो?’’
मैंने कुछ देर सोचकर कहा, ‘‘नहीं, बस इतना ही याद है कि उसके नाक के पास एक बड़ा मस्सा था।’’
निराश होकर ब्योमकेश सिर हिलाते हुए बोला, ‘‘वह तो जाली था, असल नहीं। ठीक वैसे, जैसे तुम्हारी दाढ़ी और मूँछें। जो भी है, लाओ देखूँ तो सही वह पत्र क्या है? तुम तब तक यह ‘मैकअप’ उतार आओ।’’
जब मैं अपना भेष उतारकर वापस आया तो देखा कि ब्योमकेश का व्यवहार एकदम बदल गया है। वह उत्तेजना में दोनों हाथ पीछे किए तेज कदमों से चहलकदमी कर रहा है। उसके चेहरे पर एक चमक थी। मेरा हृदय उम्मीद में धड़कने लगा। मैंने उत्सुकता में पूछा, ‘‘क्या है उस पत्र में? क्या तुमने कुछ पा लिया है?’’
एक नियंत्रित उल्लास से ब्योमकेश ने मेरी पीठ ठोंकते हुए कहा, ‘‘अजीत, एक बात बताओ? क्या तुमने हावड़ा ब्रिज को तब देखा है, जब वह जहाज के आने पर खुलता है? मेरा मस्तिष्क भी ठीक वैसा था—दो छोर दो तरफ से आकर मिलते हैं, लेकिन एक छोटा सँकरा भाग खाली रह जाता है—छोटे से पुल के लिए, आज वह भाग भर गया है।’’
‘‘यह कैसे हुआ? आखिर उस पत्र में क्या है?’’ ब्योमकेश ने वह कागज मेरे हाथों में पकड़ा दिया।
मैंने तब भी देखा था कि लिफाफे में उन अश्लील चित्रों के अलावा भी एक कागज है, लेकिन मैं उसे पढ़ नहीं पाया था। अब पढ़ रहा हूँ। बड़े अक्षरों में स्पष्ट रूप से लिखा गया था—
‘तुम्हारे शरीर का काँटा कौन है? उसका नाम और पता क्या है? तुम जो चाहते हो, उसे एक कागज पर स्पष्ट अक्षरों में लिख दो। कुछ भी न छिपाओ। अपना नाम लिखने की जरूरत नहीं है। कागज को लिफाफे में सीलबंद करके रविवार, 10 मार्च की आधी रात को खिदिरपुर रेसकोर्स पहुँचो और रेसकोर्स से सटी सड़क पर पश्चिम की ओर चलना शुरू करो। तुम्हें दूसरी ओर से एक साइकिल सवार आता दिखाई देगा। तुम्हारी पहचान के लिए उसने धूप का चश्मा पहना होगा। जैसे ही तुम उसे देखो, अपने हाथ में लिफाफे को दिखाते हुए आगे बढ़ते जाओ। वह साइकिल सवार तुम्हारे हाथ से लिफाफा ले लेगा और फिर समय आने पर तुमसे संपर्क किया जाएगा। कृपया अकेले और पैदल चलकर ही आओ। यदि तुम्हारे साथ किसी और को देखा गया तो हमारा मिलन रद्द कर दिया जाएगा।’
सावधानी से मैंने उसे दो या तीन बार पढ़ा। इसमें संदेह नहीं कि यह सब बहुत ही विचित्र तथा उतना ही रोमांचक भी था। इसलिए मैंने पूछ लिया, ‘‘लेकिन यह तो बताओ कि आखिर यह सब क्या है? मेरा मतलब है, मुझे कुछ दिखाई नहीं…’’
‘‘तुम्हें कुछ भी नहीं दिखाई देता? हाँ, इतना तो है कि जो कुछ तुमने कल भविष्यवाणी की थी, वह सबकुछ सच निकली है। यह भी दिखाई देता है कि उस व्यक्ति को अपनी पहचान छिपाने में उसकी कोई मंशा रही होगी। लेकिन इसके बाद क्या है?’’
‘‘अब सूरदासजी को कैसे दिखाया जाए? जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है, वह तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा?’’ एकाएक ब्योमकेश रुक गया। सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आवाज थी। एक क्षण सुनता रहा, फिर बोला, ‘‘आशु बाबू हैं। उन्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं है।’’ उसने वह कागज मेरे हाथ से लिया और अपनी पॉकेट में रख लिया।
जब आशु बाबू अंदर आए, तब उनकी शक्ल देखने लायक थी। मैं सोच भी नहीं सकता था कि एक ही दिन में उनका चेहरा यों बदल जाएगा। उनके कपड़े अस्त-व्यस्त थे, बाल उलझे हुए, गालों में गड्ढे दिखाई दे रहे थे। आँखों के चारों ओर काले स्याह गोले। ऐसा प्रतीत होता था कि किसी गहरे आघात से उन्हें सिर से पाँव तक हिला दिया है। कल जब वे लगभग मौत से बचकर आए थे, तब भी मैंने उनको इतना हैरान-परेशान नहीं देखा था। उन्होंने अपने आपको सामने की कुरसी पर लगभग फेंकते हुए कहा, ‘‘बुरी खबर है, ब्योमकेश बाबू! मेरे वकील विलास मल्लिक लापता हो गए हैं।’’
सहानुभूति दिखाते हुए गंभीर स्वर में ब्योमकेश बोला, ‘‘मुझे मालूम था। आपको शायद यह पता चल गया होगा कि जोड़ासाँको का आपका मित्र भी उसके साथ मारा गया है।’’ आशु बाबू अवाक् होकर उसे देखते रह गए। कुछ क्षण बाद बोले, ‘‘तुम्हें…तुम्हें मालूम है सबकुछ?’’
‘‘सबकुछ!’’ ब्योमकेश शांत स्वर में बोला, ‘‘मैं कल जोड़ासाँको गया था। वहाँ मैंने विलास मल्लिक को भी देखा। काफी दिनों से विलास बाबू और उस घर में रहनेवाली महिला आपके विरुद्ध साजिश में लगे हुए थे और जाहिर है कि आपको इसकी जानकारी नहीं थी। आपकी वसीयत लिखने के बाद विलास बाबू आपके वारिस से मिलने गए थे। आरंभ में तो शायद यह उनकी केवल उत्सुकता रही हो, पर बाद में तो आप समझ ही सकते हैं। वे दोनों इन तमाम वर्षों में सही अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। आशु बाबू, आपको हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। अब आप बहुत अच्छे हैं। एक दगाबाज औरत और धोखेबाज वकील के चंगुल से बिल्कुल स्वतंत्र हो गए हैं। आपके जीवन को अब कोई खतरा नहीं है। अब आप सड़क के बीचोबीच निर्भय होकर चल सकते हैं।
आशु बाबू ने चिंतित निगाहों से ब्योमकेश को देखा और पूछा, ‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब, स्पष्ट है। जिस संशय से आप घिरे रहते थे और बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, वह एक सच्चाई थी। उन दोनों ने आपकी हत्या का षड्यंत्र रचा था, लेकिन अपने हाथों से नहीं। इस शहर में एक आदमी रहता है, कोई नहीं जानता वह कौन है या कैसा लगता है? लेकिन उसके जालिम हथियार ने अब तक बड़ी खामोशी से पाँच सीधे-सादे मासूम लोगों का इस पृथ्वी से सफाया कर दिया है। यदि आपका भाग्य साथ न देता तो आप भी उन्हीं के कदमों पर चलकर अपनी जान खो देते।’’
कई मिनटों तक आशु बाबू अपने हाथों में मुँह छिपाए बैठे रहे। अंत में उन्होंने एक उदास निश्श्वास छोड़ा और बोलना शुरू किया—‘‘मैं इस बुढ़ापे में अपने पापों की सजा भोग रहा हूँ, इसलिए मैं किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकता। अड़तीस बरस तक मेरे चरित्र पर कोई दाग नहीं था, लेकिन फिर एकाएक मेरा पैर फिसल गया। अतिशय सुंदरी को देखकर मेरा माथा घूम गया। शादी से मेरा शुरू से ही लगाव नहीं रहा, लेकिन एकाएक मैं उससे विवाह करने के लिए पागल हो गया। अंत में एक दिन मुझे पता चला कि वह एक नाचनेवाली की बेटी है, इसलिए शादी तो नहीं हो सकती थी, पर मैं उसे छोड़ना भी नहीं चाहता था। मैं उसे ले आया और उसके लिए किराए पर मकान ले लिया। उसके बाद आज तक यानी बारह वर्षों से मैं उसकी देखभाल पत्नी के रूप में करता रहा हूँ। आप यह जान ही गए हैं कि मैंने अपनी सारी संपत्ति उसके नाम लिख दी और इस भ्रम में रहा कि वह भी मुझे पति की तरह उतना ही प्यार करती है। मुझे कभी कोई संदेह नहीं हुआ। मैं इस सच्चाई को नहीं समझ पाया कि पाप से जन्मी स्त्री में निष्ठा या वफादारी संभव ही नहीं है। जो भी हो, बुढ़ापे में मिले इस सबक का लाभ मैं अब दूसरे जन्म में ही ले पाऊँगा।’’ एक अंतराल के बाद उन्होंने टूटती आवाज में पूछा, ‘‘ये दोनों, क्या आपको मालूम है कि कहाँ गए हैं?’’
ब्योमकेश ने कहा, ‘‘नहीं और इस जानकारी का कोई लाभ भी नहीं है। आप उन दोनों के पीछे उस रास्ते पर जा भी नहीं सकते, जहाँ उनका भाग्य उन्हें खींचे ले जा रहा है। आशु बाबू! आपका यह सामाजिक उल्लंघन हो सकता है समाज की दृष्टि में निंदनीय माना जा सकता है, किंतु विश्वास कीजिए, मेरी दृष्टि में आप हमेशा सम्मानित रहेंगे। आपका हृदय कीचड़ और दलदल से निकलकर सही स्थान पर आ गया है, आपने अपनी ईमानदारी पुनः प्राप्त कर ली है और यही योग्यता तारीफ के लायक है। फिलहाल आपको गहन आघात पहुँचा है और वह कौन होगा, जो इतना बड़ा धोखा झेलकर मायूस न होगा? लेकिन धीरे-धीरे आप समझ जाएँगे कि इससे बढ़िया भाग्य आपको नहीं मिल पाता।’’
भावनाओं में डूबी आवाज में आशु बाबू बोले, ‘‘ब्योमकेश बाबू, आयु में आप मुझसे छोटे हैं, पर जो दिलासा और भरोसा आपने मुझे दिया है, वह मेरी उम्मीदों से कहीं ऊपर है। अपने पाप की सजा जब कोई भोगता है तो कोई भी उससे सहानुभूति नहीं दरशाता। इसीलिए पछतावा इतना कठिन माना जाता है। आपकी सहानुभूति और दया ने मेरे कंधों का आधा बोझ हल्का कर दिया है। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? मैं जीवन भर आपके इस कर्ज से दबा रहूँगा।’’
आशु बाबू के चले जाने के बाद उनकी दुःख भरी कहानी ने पूरी शाम मुझे बोझिल बनाए रखा। सोने से पहले मैंने ब्योमकेश से केवल एक प्रश्न पूछा, ‘‘तुम्हें कब पता चला कि वह स्त्री और विकास बाबू आशु बाबू की हत्या के प्रयास के पीछे हैं?’’ ब्योमकेश ने ऊपर छत में लगे बीमों से अपनी दृष्टि हटाते हुए कहा, ‘‘कल शाम को।’’
‘‘तब तुमने उसे भागने से पहले पकड़ा क्यों नहीं?’’
I love this book
Thank you 😊