ब्योमकेश ने पत्र खोलकर पढ़ना शुरू किया। मैं उठकर ब्योमकेश के पीछे कंधों के पास खड़े होकर पढ़ने लगा। वह हू-ब-हू ठीक वैसा ही पत्र था, जो मुझे भी मिला था। अपवाद केवल एक ही था। इसमें मिलने की तिथि रविवार के स्थान पर सोमवार ग्यारह मार्च थी।
प्रफुल्ल रॉय ने हमें पत्र पढ़ने का समय दिया। उसके बाद अपनी बात जारी रखते हुए उसने कहा, ‘‘पहले तो मुझे पता नहीं कि यह पत्र मेरी पॉकेट में कैसे पहुँचा? फिर इसको पढ़ने के बाद मैं एक अनजाने भय से ग्रस्त हो गया हूँ सर! मुझे रहस्यों में कोई दिलचस्पी नहीं है और इस पत्र में शुरू से अंत तक केवल रहस्य ही है। लगता है, जैसे इसमें कोई अशुभ उद्देश्य छुपा हुआ है। अगर ऐसा नहीं है तो इतनी गोपनीयता क्यों? मैं नहीं जानता कि यह व्यक्ति कौन है, क्या है? मैंने उसे कभी ढूँढ़ने की कोशिश भी नहीं की और यह मुझसे चाहता है कि आधी रात को एक सुनसान सड़क पर चलूँ। क्या यह भय का कारण नहीं है? आप ही बताइए, मैं गलत कह रहा हूँ?’’ उसने सीधे मुझे देखते हुए कहा।
इससे पहले कि मैं कुछ कहता, ब्योमकेश बोला, ‘‘कृपा कर अब यह बताएँ कि किस बात के लिए मेरा परामर्श चाहते हैं?’’
कुछ उलझन में प्रफुल्ल रॉय बोला, ‘‘यही तो पूछ रहा हूँ। मैं इस पत्र के लेखक को नहीं जानता, लेकिन उसका मंतव्य भरोसेमंद नहीं लगता। इसे देखते हुए क्या मेरे लिए उचित होगा कि इस पत्र के उत्तर स्वरूप में वहाँ जाऊँ? मैं पिछले दो सप्ताह से सोचता रहा हूँ, लेकिन कोई हल नहीं सूझा है। अब यदि मुझे करना ही है तो मेरे पास केवल एक दिन का समय रह गया है। इसलिए कोई रास्ता नहीं सूझने पर मैं आपके पास सहायता के लिए आया हूँ।’’
ब्योमकेश एक क्षण सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘मुझे खेद है कि मैं आज आपकी सहायता नहीं कर पाऊँगा। क्यों न आप दोनों चिटों को यहाँ छोड़ जाएँ? पहली फुरसत में ही आपको हल बता दूँगा।’’
प्रफुल्ल रॉय ने कहा, ‘‘लेकिन कल मैं समय नहीं निकाल पाऊँगा। मुझे दफ्तर के कई काम करने हैं। क्या आज रात तक नहीं हो सकता? यदि मैं देर रात करीब आठ-नौ बजे तक आऊँ? क्या यह संभव हो पाएगा?’’
ब्योमकेश ने अपना सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं, आज तो मैं व्यस्त हूँ। मुझे कुछ जरूरी काम करने हैं।’’ यह सोचकर कि आसामी हाथ से ही न निकल जाए, ब्योमकेश ने एक उड़ती दृष्टि प्रफुल्ल रॉय पर डाली और विषय बदलते हुए बोला, ‘‘लेकिन आपको चिंता की आवश्यकता नहीं है। यदि आप कल दोपहर बाद चार बजे के लगभग भी आ सकते हैं, तो काम हो जाएगा।’’
‘‘ठीक है, तो यह तय रहा। मैं कल आता हूँ।’’ उसने पान की डिबिया निकालकर दो पान मुँह में दबा लिये और बोला, ‘‘लीजिए, आप पान खाते हैं या नहीं? कुछ ऐसी आदतें हैं, जो आदमी छोड़ ही नहीं पाता।
‘‘खाना छोड़ सकता हूँ, लेकिन पान नहीं। तो फिर ठीक, मैं कल मिलता हूँ, नमस्कार!’’
हमने उसे अभिवादन का उत्तर दिया। वह दरवाजे तक जाकर रुक गया, फिर मुड़कर बोला, ‘‘यदि पुलिस को इसकी खबर कर दी जाए? मैं समझता हूँ कि पुलिस छानबीन करके उस आदमी के बारे में जरूर पता कर सकेगी!’’
ब्योमकेश एकाएक क्रोध में आ गया। उसने आवेश में उत्तर दिया, ‘‘यदि आप पुलिस के पास जाना चाहते हैं तो मेरे से सहायता की अपेक्षा न करें। मैंने पुलिस के साथ कभी काम नहीं किया है और न ही करना चाहता हूँ। लीजिए, अपने पैसे ले जाइए।’’ उसने दस रुपए के नोट की ओर संकेत किया, जो मेज पर रखा था।
‘‘अरे नहीं, नहीं सर! मैं तो बस आपकी राय जानना चाहता था। लेकिन आप इतना विरोध कर रहे हैं, तो ठीक है। मैं जाता हूँ।’’ और प्रफुल्ल रॉय तेजी से बाहर निकल गया।
उसके जाने के बाद ब्योमकेश ने उस नोट को उठाया और अपने कमरे में जाकर उसने दरवाजा बंद कर लिया। मैं जानता था कि कभी-कभी वह क्रोध में उद्वेलित हो जाता था, किंतु थोड़ी देर का एकांत उसे शांत कर देता था। इसलिए अपने मन में उठने वाले प्रश्नों के बावजूद मैंने अनपढ़े अखबार को उठाया और उसके पन्नों में डूब गया।
कुछ ही देर बाद मैंने सुना कि ब्योमकेश अपने कमरे में बोल रहा है, शायद टेलीफोन कर रहा था। मुझे वह अंग्रेजी वाक्य भी सुनाई दिए। टेलीफोन का वार्त्तालाप लगभग एक घंटे तक चला होगा। उसके बाद वह कमरे से निकला। वह अब पहले की तरह सामान्य और प्रफुल्ल दिखाई दे रहा था।
मैंने पूछा, ‘‘किससे बात कर रहे थे?’’ मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना वह बोला, ‘‘तुम्हें मालूम है कि कल जब तुम एसप्नालेड से लौट रहे थे, तब तुम्हारा पीछा किया जा रहा था।’’
चौंककर मैंने कहा, ‘‘नहीं तो! क्या सच में?’’
ब्योमकेश ने कहा, ‘‘जी हाँ! यह शक की बात नहीं है। लेकिन मुझे उस व्यक्ति के साहस पर अचंभा होता है।’’ वह मन-ही-मन हँसने लगा।
मैं अंदाजा ही न लगाया पाया कि मेरा पीछा करने में साहस की बात क्या हो सकती है? किंतु कभी-कभी ब्योमकेश के वक्तव्य इतने चकराने वाले होते हैं कि उनका अर्थ ढूँढ़ने की तमाम कोशिश व्यर्थ हो जाती है। उससे पूछने का भी प्रश्न नहीं उठता था, क्योंकि जब तक सही समय नहीं आएगा, वह उसका उत्तर देगा ही नहीं। इसलिए समय को व्यर्थ न करके मैं नहाने चला गया।
ब्योमकेश ने पूरी दोपहर और शाम इधर-उधर बैठकर काट दी। कोई काम नहीं किया। मैंने प्रफुल्ल रॉय के बारे में कुछ प्रश्न किए भी, लेकिन वह आँखें बंद करके बैठा रहा, जैसे उसने सुना ही न हो। अंत में उसने आँखें खोलकर ऊपर देखा और उठ बैठा, ‘‘प्रफुल्ल राय? ओह, वह व्यक्ति जो सुबह आया था? नहीं, अभी मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं सोच पाया हूँ।’’
रात को खाने के बाद हम लोग सिगरेट पी रहे थे। जैसे ही साढ़े दस बजे ब्योमकेश यह कहते ही उछल पड़ा, ‘‘जागो, उठो, ओ सोने वालो! तैयार होने का समय आ गया है, अन्यथा मिलन की घड़ी बीत जाएगी।’’
मैंने आश्चर्य में पूछा, ‘‘तुम्हारा मतलब क्या है?’’
ब्योमकेश बोला, ‘‘चलो, हम लोगों को शरीर में काँटे के स्थल पर मिलन का सम्मान करना है, याद है।’’
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