ग्रामोफोन पिन का रहस्य – ब्योमकेश बक्शी की जासूसी कहानी

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Author
Saradindu Bandyopadhyay
Language
Hindi

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Description

इसी बीच एक गौरैया उड़कर हमारी खिड़की के दरवाजे पर बैठ गई। उसकी चोंच में एक छोटी सी टहनी थी। उसने अपनी छोटी चमकती आँखों से देखा। ब्योमकेश चलते-चलते एकाएक रुक गया और गौरैया की ओर इशारा करके उसने पूछा, ‘‘क्या तुम बता सकते हो कि यह चिड़िया क्या कहना चाह रही है?’’

चौंककर मैं बोला, ‘‘क्या करना चाह रही है माने? मैं समझता हूँ कि वह अपना घोंसला बनाने के लिए जगह ढूँढ़ रही है, और क्या?’’

‘‘क्या यह निश्चयपूर्वक कह सकते हो, बिना किसी संदेह के?’’

‘‘हाँ, बिना किसी संदेह के।’’ ब्योमकेश दोनों बाजुओं को आपस में बाँधकर खड़ा हो गया और हल्की मुसकान से बोला, ‘‘तुमने ऐसा कैसे सोच लिया? क्या प्रमाण है?’’

‘‘प्रमाण…वह तो है, उसके मुँह में पेड़ की टहनी…’’

‘‘उसके मुँह में टहनी क्या निश्चित रूप से यह बताती है कि वह घोंसला ही बनाना चाहती है?’’

मैं समझ गया कि मैं ब्योमकेश के तर्कों के जाल में फँस गया हूँ। मैंने कहा, ‘‘नहीं…लेकिन…’’

‘‘अनुमान? अब तुम लाइन पर आए। तो क्यों इतनी देर से मानने से इनकार करते रहे?’’

‘‘नहीं, इनकार नहीं। लेकिन तुम्हारा कहना है कि जो अनुमान गौरैया के बारे में लगाया गया, वह मनुष्य पर लागू होता है?’’

‘‘क्यों नहीं?’’

‘‘यदि तुम मुँह में टहनी दबाकर किसी की दीवार पर चढ़कर बैठ जाओ तो यह साबित हो जाएगा कि तुम घोंसला बनाना चाहते हो?’’

‘‘नहीं, इससे तो यह साबित होगा कि मैं बहुत ही ऊँचे दर्जे का उल्लू हूँ।’’

‘‘क्या इसके लिए भी कोई सबूत चाहिए?’’

ब्योमकेश हँसने लगा। उसने कहा, ‘‘तुम मुझे किसी भी तरह नाराज नहीं कर सकते। तुम्हें यह मानना ही पड़ेगा कि भले ही जाँच पर आधारित प्रमाण में भूल हो जाए, पर तर्क पर आधारित अनुमान गलत नहीं हो सकता।’’

मैं भी अपनी जिद पर अड़ गया और बोला, ‘‘मैं इस विज्ञापन को लेकर तुम्हारे तरह-तरह के अनुमानों और अटकलों पर यकीन करने के लिए तैयार नहीं हूँ।’’

ब्योमकेश ने कहा, ‘‘इससे तो यही साबित होता है कि तुम्हारा दिमाग कितना कमजोर है? जानते हो, आस्था को भी मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ती है। खैर, तुम्हारे जैसे लोगों के लिए जाँच पर आधारित प्रमाणपत्र ही सर्वाधिक उपयोगी मार्ग है। कल है शनिवार! शाम को हमारे पास कोई काम नहीं है। मैं कल दिखा दूँगा कि मेरा अनुमान सही है।’’

‘‘क्या करोगे?’’

इतने में सीढ़ियों से किसी के चढ़ने की पदचाप सुनाई दी। ब्योमकेश ने कानों पर जोर दिया और बोला, ‘‘आगंतुक…अजनबी…मध्य वय का…भारी-भरकम…या फिर गोल-मटोल…हाथ में बेंत…कौन हो सकता है? जरूर हम ही से मिलना चाहता है, क्योंकि इस मंजिल में हमारे अलावा और कौन है?’’ वह अपने आप पर ही हँस दिया। 

दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। ब्योमकेश जोर से बोला, ‘‘भीतर आ जाइए। दरवाजा खुला है।’’

एक मध्य वय के भारी-भरकम व्यक्ति ने दरवाजा खोलकर प्रवेश किया। उसके हाथ में ‘मलाका’ बाँस से बनी बेंत थी, जिसकी मूठ पर चाँदी चढ़ी हुई थी। वह बटनोंवाला ‘अप्लाका’ ऊन का काला कोट पहने हुए था। नीचे बढ़िया प्लेटोंवाली फाइन धोती झलक रही थी। वह गोरा-चिट्टा क्लीन शेव था। आगे के बाल उड़ गए थे, पर देखने में वह प्रियदर्शी था। तीन मंजिल सीढ़ियाँ चढ़ने से अंदर आते ही बोलने में उसे असुविधा हो रही थी। उसने अपनी जेब से रूमाल निकालकर चेहरा पोंछा। 

ब्योमकेश मेरी ओर इशारा करके आहिस्ता से बड़बड़ाया, ‘‘अनुमान… अनुमान।’’

मुझे ब्योमकेश का ताना चुपचाप सहना पड़ रहा था, क्योंकि उसका अजनबी के बारे में अनुमान सही निकला था।

आगंतुक सज्जन तब तक सहज हो चुके थे। उन्होंने प्रश्न किया, ‘आप दोनों में से जासूस ब्योमकेश बाबू कौन है?’

ब्योमकेश ने पंखा चलाकर कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘तशरीफ रखिए, मैं ही ब्योमकेश बक्शी हूँ, लेकिन मुझे जासूस शब्द से चिढ़ है। मैं एक सत्यान्वेषी हूँ; सच को खोजनेवाला! मैं देख रहा हूँ, आप काफी परेशान हैं। कुछ देर आराम कर लें, फिर आपसे ग्रामोफोन-पिन का रहस्य सुनूँगा।’’

वे सज्जन बैठ गए और बड़ी देर किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ब्योमकेश की तरफ ताकते ही रह गए। आश्चर्य में तो मैं भी था, क्योंकि मेरे भेजे में यह घुस नहीं पा रहा था कि ब्योमकेश ने एक ही नजर में उन मध्य वय के संभ्रांत सज्जन को उस कुख्यात ग्रामोफोन-पिन की कहानी से कैसे जोड़ दिया? मैंने ब्योमकेश के कई अजूबे देखे हैं, पर यह तो कोई जादुई कारनामे से कम नहीं था।

बहुत प्रयास करने के बाद उन सज्जन ने अपने विचारों पर नियंत्रण किया और पूछ ही लिया, ‘‘आप! यह कैसे जान गए?’’

ब्योमकेश ने हँसकर उत्तर दिया—‘‘केवल अनुमान! पहला यह कि आप मध्य वय के हैं; दूसरा आप संपन्न व्यक्ति हैं; तीसरा आपको यह समस्या हाल ही में होने लगी और अंततः आप मेरे पास सहायता के लिए आए हैं, इसलिए…’’ ब्योमकेश ने वाक्य वहीं छोड़ दिया और अपने हाथों को हवा में इस प्रकार उड़ाया, जैसे कह रहा हो कि इतना सब होने के बाद उनके आने का कारण तो एक बच्चा भी जान जाएगा।

यहाँ यह बताना जरूरी है कि इधर कुछ सप्ताहों से शहर में कुछ अजीब घटनाएँ घट रही थीं। अखबारों ने उन घटनाओं को ‘ग्रामाफोन-पिन का रहस्य’ के शीर्षक से छापना शुरू कर दिया था और उन घटनाओं की विस्तृत जानकारी पहले पेज की हेडलाइन के रूप में छाप रहे थे। इन समाचारों ने कलकत्ता की जनता को उत्सुकता, व्याकुलता और आतंक के मिले-जुले प्रभाव से त्रस्त कर दिया था। अखबारों में भयमिश्रित आतंक पैदा करनेवाले वृत्तांत पढ़ने से पान अैर चाय के अड्डों पर तरह-तरह की आशंकाओं और अफवाहों का बाजार गरम था। भय और आतंक से शायद ही कोई कलकत्तावासी रात के अँधेरे में घर से बाहर निकलता हो।

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