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नीम का पेड़ – रही मासूम रजा “मैं अपनी तरफ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था ! इसीलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी ! नफरतों की आग में मोहब्बत के छींट दिखाई देंगे ! सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी !… और इन सबके पीछे दिखाई देगी सियासत की काली स्याह दीवार ! हिंदुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया ! जिसने राज को कभी भी सु-राज नहीं होने दिया ! जिसे हम रोज झंडे और पहिए के पीछे ढूंढते रहे कि आखिर उनका निशान कहाँ हैं? गाँव मदरसा कुर्द और लछमनपुर कलां महज दो गाँव-भर नहीं हैं और अली जमीं खां और मुस्लिम मियां की अदावत बस दो खालाजाद भाइयों की अदावत नहीं है ! ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती है, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है ! बस, बाकी रह जाता है नफरत का एक सिलसिला…. “मैं शुक्रगुजार हूँ उस नीम के पेड़ का जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा और आजादी के सपनों को टूटे हुए भी देखा ! उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है !”
मैं ही इस कहानी का उनवान भी हूँ और कहानी भी…मैं नीम का बूढ़ा पेड़…गाँव के बच्चे मेरे
नीचे बैठकर मेरी निमकौलियों के हार गूंथते हैं…खिलौने बनाते हैं मेरे तिनकों से…माँओं की
रसीली डाँटें घरों से यहाँ तक दौड़-दौड़कर आती रहती हैं कि बच्चों को पकड़कर ले जाएँ
मगर बच्चे अपनी हँसी की डोरियों से बाँधकर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं…मगर
सच पूछिए तो मैं घटाएँ ओढ़कर आनेवाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ…बादल
मुझे देखकर ठट्ठा लगाते हैं कि लो भई नीम के पेड़ हम आ गए…इस मौसम की बात ही
और होती है क्योंकि यह मौसम नौजवानों का भी होता है…मेरे गिर्द भीड़-सी लग जाती है…
मेरी शाखों में झूले पड़ जाते हैं…लड़कियाँ सावन गाने लगती हैं…
मुझे ऐसी-ऐसी कितनी बातें याद हैं जो सुनाना शुरू करूँ तो रात खत्म हो जाए मगर
बात रह जाए…आज जब मैं उस दिन को याद करता हूँ जिस दिन बुधई ने मुझे लगाया था तो लगता है कि वह दिन तो जैसे समय की नदी के उस पार है…मगर दरअसल ऐसा है नहीं।
मेरी और बुधई के बेटे सुखई की उम्र एक ही है…।
क्या तारीख थी 8 जुलाई, 1946 जब बुधई ने मुझे यहाँ अपने हाथों से लगाया था। सुखई की पैदाइश का भी तो वही दिन है और…
मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ अपने दरवाज़े पर बैठे हुक्का पी रहे हैं, साथ
बैठे हैं लाला रूपनारायण। लालाजी ने कहा “मियाँ पहले मेरी अरज सुन लीजिए, आगे जो हुकुम!…हम मियाँ सरकार के दिनों से नमक खाते चले आ रहे हैं। मंडा भर ज़मीन की कोई बात नहीं है। मगर…”
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